Tuesday, November 9, 2010
सपना
सपना देखा,लगा जिन्दगी हो ........ भरी गर्मी में,भरी दोपहरी महसूस हुआ.... सपना नहीं,मेरी जिन्दगी का सच हो। आँखे खुली -अधखुली अपलकनिहारती..... क्या कहें,क्या कुछ ना कहें...... देखो वर्षों बीत गए....... सोचते हुए ,कब कहें ,कैसे कहें................. तुम सपना हो मेरी जिन्दगी का......... और जिन्दगी अमानत है,माँ-बाप,खानदान की. कुल-नाम-मर्यादा का ख्याल...... हर पल तेरी याद,तेरा ही ख्याल,कौंधता एक सवाल.... आँखे देखती रहीं,मन चुप ही रहा..... रिश्ता कैसा बन गया है तुमसे मेरा.... ना कुछ और कहा,ना सुना ,इस प्यार में....... तुमने भी और तुम्हारे दिलोदिमाग ने। आज फिर तुमने मजबूर किया...... तुम्हे समझाने को निगाहों से नहीं........ वाणी से,शब्दों से,स्फुटित स्वरों से ....... कि मेरी सपना अब तू हकीकत है, किसी जिन्दगी की...... अब इस नए रिश्ते की मर्यादा में तुम्हे...... निकलना होगा अपने जेहन से मुझे व मेरी शरारतें...। जिन्दगी की धरातल पे सपनो की इमारत.... रेत के महल की तरह,लहरों के झोंके से........ भरभरा कर गिर गयी। लेकिन खामोश हूँ सिर्फ इसलिए .... मेरी सपना रहे मेरी.सिर्फ मेरे लिए.... इसलिए इंतज़ार है............ काली रात का अब इस बियावान में.
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