Saturday, November 27, 2010

छात्र संघ की बहाली लोकतान्त्रिक अधिकार

छात्र संघ की बहाली लोकतान्त्रिक अधिकार

अरविन्द विद्रोही
भारतीय राजनीति आज समाजसेवा का माध्यम न रहकर सत्ता प्राप्ति और सुनियोजित तरीके से जनता की मेहनत की कमाई को लूटने का जरिया बन गई है।लोकसभा चुनावों में,विधानसभा चुनावों में,पंचायती चुनावों में प्रत्याशियों के द्वारा चुनाव में विजयी होने के लिए अपनाये जाने वाले अनैतिक एवं असंवैधानिक कृत्यों को सभी जानते भी हैं और स्वीकारते भी हैं।समस्त राजनैतिक दल पूरे जोशो-खरोश से युवा वर्ग को आकर्षित करने के लिए नाना प्रकार के लोक-लुभावन वायदे करते नजर आते हैं।अधेड़ हो चुके अपने अनुभव हीन पुत्रों को तमाम राजनेता युवा नेता के रूप् में प्रस्तुत करके किसी साज-सज्जा की,उपभोग की वस्तु की तरह प्रचारित-प्रसारित करने में करोड़ों रूपया खर्च कर चुके हैं।आज 18वर्ष की उम्र का कोई भी युवा अपना मत चुनावों में अपना जनप्रतिनिधि निर्वाचित करने में दे सकता है।
लोकतंत्र का दुर्भाग्य कहें या वंशानुगत राजनीति का प्रभाव कहें कि भारत में प्रधान से लेकर सांसद तक के निर्वाचन में अपना मत देने वाला युवा वर्ग अपने शिक्षण संस्थान में अपना छात्र-संघ का प्रतिनिधि नहीं निर्वाचित कर सकता है।कारण है छात्र संघों का निर्वाचन बन्द होना।छात्र राजनीति लोकतांत्रिक राजनीति की प्रयोगात्मक,शिक्षात्मक व प्राथमिक पाठशाला होती है और इस राजनीति पर प्रतिबन्ध लगाकर अपने क्षमता के बूते छात्र-छात्राओं के हितों के लिए संघर्ष करके राजनीति में आये गैर राजनैतिक पृष्ठभूमि के होनहारों को राजनीति में अपना स्थान बनाने से रोकने के लिए यह दुष्चक्र रचा गया है।यह दुष्चक्र युवा वर्ग ही तोडेगा,इसमें तनिक भी सन्देह की गुंजाइश नही है।क्या सिर्फ इस दौरान आम युवा वर्ग को राजनीति में आने से रोकने का दुष्चक्र रचा गया है?नहीं.....छात्र-संघ पर प्रतिबन्ध लगाना,युवा वर्ग राजनीति में प्रवेश न करे इसका प्रयास पूर्व में भी किया गया है।लेकिन घ्यान रखना चाहिए कि भारत ही नहीं समूचे विश्व के इतिहास में जब भी तरूणाई ने अव्यवस्था के खिलाफ अंगड़ाई मात्र ही ली तो परिणामस्वरूप बड़ी-बड़ी सल्तनतें धूल चाटने लगी।क्रांति व युद्ध का सेहरा सदैव नौजवानों के ही माथे रहा है।छात्र-संघ बहाली की लड़ाई ने अब जोर पकड़ना प्रारम्भ कर दिया है।केन्द्र सरकार की सर्वेसर्वा सोनिया गॉंधी को इलाहाबाद यात्रा के दौरान छात्रों विशेषकर समाजवादी पार्टी के युवाओं ने भ्रष्टाचार-महॅंगाई आदि मुद्दों पर अपने विरोध प्रदर्शन से लोहिया के अन्याय के खिलाफ संघर्ष के सिद्धान्त को कर्म में उतार कर खुद को साबित किया है।अब छात्र-छात्राओं,युवा वर्ग को अपने जनतांत्रिक अधिकार की लड़ाई लड़कर अधिकार हासिल करके खामोश नहीं बैठना है वरन् सतत् संघर्ष का रास्ता अख्तियार करके वंशानुगत राजनीति की यह जो विष बेल बड़ी तेजी से भारतीय लोकतंत्र में फैल रही है,इसकी जड़ में मठ्ठा डालने का काम भी करना है।छात्र-संघों का चुनाव न कराना एक बड़ा ही सुनियोजित षड़यंत्र है-आम जन के युवाओं को राजनीति में संघर्ष के रास्ते से आने की।
इसी प्रकार से जंग-ए-आजादी के दौरान तमाम् नेता विद्यार्थियों को राजनीति में,क्रंाति के कामों में हिस्सा न लेने की सलाहें देते थे,जिसके जवाब में क्रांतिकारियों के बौद्धिक नेता भगत सिेह ने किरती के जुलाई,1928 के अंक में सम्पादकीय विचार में एक लेख लिखा था।इस लेख में भगत सिंह ने लिखा था,-‘‘दूसरी बात यह है कि व्यावहारिक राजनीति क्या होती है?महात्मा गॉंधी,जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यावहारिक राजनीति,पर कमीशन या वाइसराय का स्वागत करना क्या हुआ?क्या वह पोलिटिक्स का दूसरा पहलू नहीं?सरकारों और देशों के प्रबन्ध से सम्बन्धित कोई भी बात पोलिटिक्स के मैदान में ही गिनी जायेगी,तो फिर यह भी पोलिटिक्स हुई कि नहीं?कहा जायेगा कि इससे सरकार खुश होती है और दूसरी से नाराज?फिर सवाल तो सरकार की खुशी या नाराजगी का हुआ।क्या विद्यार्थियों को जन्मते ही खुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए?हम तो समझते हैं कि जब तक हिन्दुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे हैं तब तक वफादारी करने वाले वफादार नहीं,बल्कि गद्दार हैं,इन्सान नहीं,पशु हैं,पेट के गुलाम हैं।तो हम किस तरह कहें कि विद्यार्थी वफादारी का पाठ पढ़ें।‘‘
आज भगत सिंह के इस लेख के 82 वर्ष एवं भारत की ब्रितानिया दासता से मुक्ति के 63वर्ष बाद भी युवा वर्ग को मानसिक गुलामी का पाठ पढ़ाने का,वंशानुगत राजनैतिक चाकरी करवाने का दुष्चक्र रचा गया है।छात्र-संघ को बहाल न करना तथा अपने दल में छात्र व युवा संगठन रखना राजनैतिक दास बनाने के समान नहीं तो ओर क्या है?क्रंातिकारियों के बौद्धिक नेता भगत सिंह ने अपने इसी लेख में आगे लिखा,-‘‘सभी मानते हैं कि हिन्दुस्तान को इस समय ऐसे देश-सेवकों की जरूरत है,जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आजादी के लिए न्यौछावर कर दें।लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे?क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटों में फॅंसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे?यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फॅंसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो।‘‘
आज आजाद भारत में छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हरण किया जा रहा है।सत्ताधारी दलों की निरंकुशता का चाबुक छात्र हितों व छात्र राजनीति पर बारम्बार प्रहार करके राजनीति के प्राथमिक स्तर को नष्ट करने पर आमादा है।इन छात्र-युवा जन विरोधी सरकारों को छात्र-संघ बहाली का ज्ञापन देना,इनसे अपने अधिकारों की बहाली की मांग करना अन्धे के आगे रोना,अपना दीदा खेाना के समान है।सन् 1960-62 में डा0राम मनोहर लोहिया ने नारा दिया था-देश गरमाओं।जिसका अर्थ है,-‘‘आदमी को अन्याय और अत्याचार पूर्ण रूतबे से लड़ने के लिए हमेशा तैयार करना।दरअसल अन्याय का विरोघ करने की अीदत बन जानी चाहिए।आज ऐसा नहीं है।आदमी लम्बे अर्से तक गद्दी की गुलामी और बहुत थोडें अर्से के लिए उससे नाराजगी के बीच एक अन्तर करता रहता है।‘‘वर्तमान समय में छात्र संघ की बहाली व छात्र हितों की आवाज उठाने वाले लोगों को शासन-सत्ता व भाड़े के गुलामों के दम पर कुचलने का प्रयास किया जा रहा है।छात्र संघ बहाली के लिए आंदोलित सभी छात्र-युवा संगठनों को एक साथ आकर अनवरत् सत्याग्रह व हर सम्भव संघर्ष का रास्ता अख्तियार करना चाहिए।