Wednesday, October 27, 2010

गणेश शंकर विद्यार्थी

अरविन्द विद्रोही

हिन्दी की राष्टीय पत्रकारिता के जनक गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्तूबर,1890 को अपनी ननिहाल अतरसुइया-इलाहाबाद,उ0प्र0 में हुआ था।आपके पिता श्री जयनारायण ग्वालियर रियासत में शिक्षक थे।विद्यार्थी जी की प्रारम्भिक शिक्षा मुंगावली व विदिशा में हुई।मिडिल पास करने के पश्चात विद्यार्थी जी कानपुर काम करने के उद्देश्य से आ गये।उनके चाचा शिवव्रत नारायण ने पढ़ाई करने के लिए समझाया।चाचा के समझाने पर वे पुनः विदिशा लौटे और मैटिक की परीक्षा 1907 में व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में उत्तीर्ण की।आगे की पढ़ाई कायस्थ पाठशाला इलाहाबाद में की।विदिशा में आपने ‘‘हमारी आत्मोत्सर्गता‘‘ नामक किताब लिखी।विद्यार्थी जी की साहित्यिक प्रतिभा को प्रेरणा इलाहाबाद में पण्डित सुन्दरलाल जी से मिली।

जीविकोपार्जन के लिए विद्यार्थी जी ने कानपुर के करेंसी आफिस में नौकरी की।04जून,1909 को आपका विवाह चंद्रप्रकाशवती से हुआ।1910 तक आपने वहीं नौकरी की।फिर स्कूल में अध्यापकी,हिन्दुस्तान इन्श्योरेन्स कम्पनी में काम करके,होम्योपैथी डाक्टर के रूप में जीविका चलाई।साथ ही साथ आपकी साहित्यिक अभिरूचि निखरती रही।आपकी रचनायें सरस्वती,कर्मयोगी,स्वराज्य,हितवार्ता में छपती रहीं।आपने ‘सरस्वती‘ में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में काम किया।हिन्दी में ‘शेखचिल्ली की कहानियां’ आपकी देन है।‘‘अभ्युदय‘‘ नामक पत्र जो कि इलाहाबाद से निकलता था,से भी विद्यार्थी जी जुड़े।गणेश शंकर विद्यार्थी ने अंततोगत्वा कानपुर लौटकर ‘‘प्रताप‘‘ अखबार की शुरूआत की।‘‘प्रताप‘‘ भारत की आजादी की लड़ाई का मुख-पत्र साबित हुआ।कानपुर का साहित्य समाज ‘‘प्रताप‘‘ से जुड़ गया।क्रान्तिकारी विचारों व भारत की स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया था-प्रताप।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रेरित गणेश शंकर विद्यार्थी जंग-ए-आजादी के एक निष्ठावान सिपाही थे।महात्मा गाॅंधी उनके नेता और वे क्रान्तिकारियों के सहयोगी थे।सरदार भगत सिंह को ‘‘प्रताप‘‘ से विद्यार्थी जी ने ही जोड़ा था।विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा प्रताप में छापी,क्रान्तिकारियों के विचार व लेख प्रताप में निरन्तर छपते रहते।

गणेष शंकर विद्यार्थी का सपना उन्नत व समृद्ध आजाद भारत का था।अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए ‘‘प्रताप‘‘ को माध्यम बनाकर,निर्भीक अभिव्यक्ति के साथ-साथ विद्यार्थी जी ने काकोरी के अमर शहीद अशफ़ाक उल्ला खां व अनेको क्रान्तिकारियों की आर्थिक सहायता भी प्रदत्त की।कानपुर में मजदूरों का संगठन तैयार करने के साथ ही कवियों-लेखकों-पत्रकारों को एकजुट कर चुके विद्यार्थी जी को देशभक्ति की भावना को बलवती बनाने के अपराध में ‘‘प्रताप‘‘ पर अनवरत् छापे,पाबन्दी और बार-बार जमानत जब्त होने को झेलना पड़ा।अपने जीवन काल में पांच बार जेल गये विद्यार्थी जी ने उत्कृष्ट व निर्भीक पत्रकारिता ब्रितानिया हुकूमत के शासन में,जिन कष्टों को सहकर की होगी,उसकी कल्पना मात्र से ह्दय द्रवित हो जाता है तथा शीश इस महापुरूष के सम्मान में झुक जाता है।हिन्दी उत्थान व ग्राम्य जीवन में सुधार,महिलाओं की तरक्की,भिक्षावृत्ति-वेश्यावृत्ति की समाप्ति,देश-प्रेम की भावना का विकास,सामाजिक बुराईयों का खात्मा व सामाजिक एकता गणेश शंकर विद्यार्थी के स्वप्न थे।दुर्भाग्यवश सरदार भगत सि।ह-राजगुरू-सुखदेव के शहादत दिवस 23मार्च,1931 के तुरन्त बाद कानपुर में ब्रितानिया हुक्मरानों की साजिश के फलस्वरूप उपजे हिन्दू-मुस्लिम दंगे में 25मार्च,1931 को ही विद्यार्थी जी एक मुस्लिम परिवार की जान बचाने में अपनी जान गवां बैठे। मानवता का यह पुजारी पाशविक वक्तियों का शिकार हो गया।साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखने की अपील करते हुए बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी गणेश शंकर विद्यार्थी असमय मौत का शिकार हो गए।

महात्मा गांधी ने विद्यार्थी जी की मृत्यु पर कहा था,-"व्यर्थ नहीं जायेगा बलिदान,विद्यार्थी का खून।वह हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए सीमेण्ट का कार्य करेगा।"

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पण्ड़ित जवाहर लाल नेहरू के अनुसार,-"यदि विद्यार्थी जी थोड़े दिनों तक और जीवित रहते तो आज भारत की दूसरी ही तस्वीर होती।"

गणेश शंकर विद्यार्थी जी की शहादत को यदि चिंतन-मनन व प्रचारित-प्रसारित किया जाये तो भारत दंगा मुक्त हो जायेगा।

देश के दीमक भ्रष्टाचारियों पर कड़ी कार्यवाही हो

ग्रामीण भारत ही असली भारत है। भारत की 80 प्रतिशत आबादी ग्रामीण अंचलों में निवास करती है तथा शेष 20 प्रतिशत आबादी भी अप्रत्यक्ष रूप से ग्राम्य जीवन से जुड़ी है। कृषि आधारित भारत के ग्राम्य विकास की महती जिम्मेदारी केन्द्रीय ग्रामीण मंत्रालय एवं प्रदेश स्तर पर ग्राम्य विकास विभाग की है। एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना निचले पायदान पर खड़े नागरिक के हितों की रक्षा व पूर्ति से होती है। ग्रामीण भारत के निवासियों के अधिकारों पर खुलेआम, निर्लज्जतापूर्वक डाली जा रही डकैतियों को और अधिक बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए तमाम महत्वाकांक्षी योजनायें भारत सरकार-प्रदेश सरकार संचालित कर रहीं है ।इन योजनाओं के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी ग्राम्य विकास विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों की होती है।पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद ग्राम्य विकास विभाग में बड़ी धनराशि,ग्राम्य जीवन स्तर को उच्च स्तर पर लाने की क्रान्तिकारी योजना के तहत् आवंटित होनी प्रारम्भ हुई।यह इस धरा का दुर्भाग्य है कि यहां के खेतों की मेंड़े ही खेत को चरने लगी हैं। आज दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में हमारा 5वां स्थान है और हमारे भ्रष्ट सरकारी कर्मियों-भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों को शर्म नहीं आ रही है।

विकास कार्यों के लिए आवंटित धनराशि में बड़े पैमाने पर घोटाले की बात स्व0राजीव गाँधी -पूर्व प्रधानमंत्री से लेकर डा0 मनमोहन सिंह- प्रधानमंत्री, भारत सरकार, द्वारा स्वीकार की जा चुकी है। अभी बीते लोकसभा चुनावों में विकास के धन की लूट का मुद्दा प्रमुखता से कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गाँधी ने उठाया। परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी जनता ने जमकर कांग्रेस के प्रत्याशियों को आर्शिवाद रूपी मत देकर अपने विकास कार्यों की निगरानी के लिए,अपने हितों के रक्षार्थ अपना संसद रूपी चैकीदार चयनित करके जनहित के कार्यों को करने के लिए सर्वोच्च संस्था संसद भवन में भेजा है ।उ0प्र0 की मुखिया सुश्री मायावती ’अध्यक्ष‘बहुजन समाज पार्टी की छवि कानून व्यवस्था को नियंत्रित रखने में सफल प्रशासक के रूप में बरकरार है। मनरेगा तथा केन्द्र सरकार द्वारा स्वीकृत अन्य योजनाओं में उ0प्र0 सरकार की शिथिलता का आरोप कंाग्रेस के राहुल गांधी अक्सर लगाते रहते हैं। शायद इन्ही आरोपों को ईमानदारी पूर्वक संज्ञान में लेते हुए उ0प्र0सरकार की मुखिया सुश्री मायावती ने कड़े आदेशों को जारी किया है। विश्वस्त्र सूत्रों के अनुसार सर्वजन हिताय- सर्वजन सुखाय को चरितार्थ करने के लिए मायावती ने उच्च अधिकारियों को समस्त विभागों में शिकायतों,गडबड़ियों पर तत्काल प्रभावी कार्यवाही के आदेश दियें हैं। शासनादेशों का पालन न करने वालों को जो चेतावनी,प्रतिकूल प्रविष्टि व निलम्बन की कार्यवाही झेलनी पड़ रही है,वह उ0प्र0 की मुखिया सुश्री मायावती के भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की हनक ही है। आज मनुष्य नैतिकता-सदाचरण की बातों को बकवास मानता है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि तमाम् धर्मस्थलों पर ये भ्रष्टाचारी-पापी माथा टेकने,अपने पाप धोने की लालसा में सबसे आगे खड़े रहते हैं। ये भ्रष्ट गण मनुष्य को ही नहीं,सर्वशक्तिमान को भी अपने मिथ्या आडम्बर से छलने का दुश्प्रयास करते रहते हैं। अपनी काली कमाई से धार्मिक स्थलों के निर्माण,धार्मिक आयोजनों में धनराशि व्यय करके ये भ्रष्टाचारी अपने को समाज में श्रेष्ठतम् रूप में स्थापित करते हैं।

विकास के धन की लूट को रोकने के लिए इसे मुद्दा बना कर जितना अच्छा कार्य राहुल गाँधी ने किया और इसका फायदा भी कांग्रेस को मिला, अब विकास के धन की लूट करने वालों को चिन्हित कर दण्डित करने की कार्यवाही से उ0प्र0 सरकार की मुखिया सुश्री मायावती को भी निःसन्देह फायदा मिलेगा।आम जनता जन सुविधाओं की प्राप्ति के लिए भीख मांगती है और उसके हक की लूट करने वाले मौज करते हैं। प्रशासनिक दृढ़ता और शासन की स्पष्ट नीति से वर्तमान समय में भ्रष्टाचार में लिप्त कर्मचारी-अधिकारी-जनप्रतिनिधि बौखला गयें हैं। कत्र्तव्य पालन करने में नाकाम – नाकारा व्यक्तियों का यह समूह नाना प्रकार के बहाने पेश कर रहा है। इनके भ्रमजाल व दबाव में आये बगैर प्रशासन-शासन को जनहित-राष्ट्हित के इस क्रान्तिकारी निर्णय को जारी रखना चाहिए। बेरोजगार,ईमानदार नवयुवकों की भारी संख्या इन भ्रष्ट कर्मियों के स्थान पर दायित्व निभाने के लिए तैयार खड़ी है।

भारतीय ग्राम्य व्यवस्था अरविन्द विद्रोही

राष्ट का गौरवशाली,समृद्धशाली इतिहास राष्ट के निवासियों को उर्जा प्रदान करता है।अनेकानेक कारणों से जनता राष्ट गौरव की गाथाओं,समृद्धशाली इतिहास,बलिदान गाथाओं और विभिन्न कालों में रहे सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की जानकारी से दूर होती जाती है।साहित्य ही वह माध्यम होता है जो जनता को समाज के सम्पूर्ण इतिहास-रूप से जोडता है।साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है।समाज की सोच क्या है,यह साहित्य से ही परिलक्षित होता है।

‘‘वसुधैव कुटुम्बकम‘‘ की भावना को आत्मसात करे हमारी मातृभूमि भारत वर्ष की संरचना ग्राम्य आधारित है।कृषि आधारित हमारा देश मुगलों-अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के पश्चात् लोकतान्त्रिक गणराज्य के रूप में एक पंथनिरपेक्ष राष्ट के रूप में स्थापित है।सरकारों का कत्र्तव्य जनहित की कल्याणकारी योजनाओं का निर्धारण और क्रियान्वयन करना है और हमारा कत्र्तव्य निश्चय ही इन जन कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में सहयोग करना और निगरानी रखना।आजाद भारत की सबसे बडी समस्या भ्रष्टाचार है।कोई भी क्षेत्र इस भ्रष्टाचार रूपी दानव के पंजे से बचा नहीं है।योजनाओं के लिए आवंटित धनराशि का नेता-अपराधी-नौकरशाह मिलकर एक समूह के रूप में बंदरबांट करते हैं और आम जन कोसने के अलावा कुछ नहीं कर पाता है।फिर भी राष्ट को समृद्ध बनाने के लिए राष्ट के उन्नति के बारे में मनन व प्रयास करने वाले मतवालों का संघर्ष जारी रहता है और जारी है।

भारतीय ग्राम्य समाज का स्वरूप तमाम राजनैतिक परिवर्तनों,युद्धों,विदेशी आक्रमण को झेलते हुए भी कमोबेश वही बना रहा है।भारत की आत्मनिर्भर ग्राम्य समाज व्यवस्था के बारे में 1835 में भारत के गवर्नर रहे सर चाल्र्स मेटकाफ के अनुसारःग्राम समाज छोटे-छोटे गणतंत्र हैं।अपनी जरूरत की सारी चीजें इन्हें अपने यहां प्राप्त हैं और विदेशी सम्बन्धों से ये मुक्त हैं।जहां कुछ भी स्थायी नहीं,वहां ये जैसे अकेले अमर हैं।राजकुल लुढ़कते रहे,का्रंतियां होती रहीं,हिंदू,पठान,मुगल,मराठा,सिख,अंग्रेज क्रमशःमालिक बनते रहे,लेकिन ग्राम समाज यथापूर्व बने रहे।

माक्र्स ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ पूंजी में भारत की ग्राम्य व्यवस्था के बारे में लिखाःहिन्दुस्तान के वे छोटे-छोटे तथा अत्यन्त प्राचीन ग्राम समुदाय अर्थात समाज,जिनमें से कुछ आज तक कायम हैं,जमीन पर सामूहिक स्वामित्व,खेती तथा दस्तकारी के मिलाप और एक एैसे श्रम विभाजन पर आधारित हैं जो कभी नहीं बदलता,और जो जब कभी एक नया ग्राम्य समुदाय आरम्भ किया जाता है तो पहले से बनी बनाई और तैयार योजना के रूप में काम आता है।सौ से लेकर कई हजार एकड़ तक के रकबे में फैले हुए इन ग्राम-समुदायों में से प्रत्येक एक गठी हुई इकाई होती है जो अपनी जरूरत की सभी चीजें पैदा कर लेती हैं।पैदावार का मुख्य भाग सीधे तौर पर समुदाय के ही उपयोग में आता है और वह माल का रूप् धारण नहीं करता।इसलिए यहां पर उत्पादन उस श्रम विभाजन से स्वतंत्र होता है जो माल के विनिमय ने मोटे तौर पर पूरे हिन्दुस्तानी समाज में चालू कर दिया है।केवल अतिरिक्त उत्पादन ही माल बनता है और यहां तक की उसका भी एक हिस्सा उस वक्त तक माल नहीं बनता जब तक वह राज्य के हाथों में नहीं पहुंच जाता।अत्यन्त प्राचीन काल से ही यह रीति चली आ रही है कि इस उत्पादन का एक निश्चित भाग सदा जिंस की शक्ल में दिए जाने वाले लगान के तौर पर राज्य के पास पहुॅंच जाता है।हिन्दुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में इन समुदायों का विधान अर्थात गठन अलग-अलग ढ़ंग का है।जिनका सबसे सरल विधान है,उन समुदायों में जमीन को सब मिलाकर जोतते हैं,और पैदावार सदस्यों के बीच बांट ली जाती है।इसके साथ-साथ हर कुटुम्ब में सहायक धंधों के रूप में कताई और बुनाई होती है।इस प्रकार,उन आम लोगों के साथ-साथ,जो सदा एक ही प्रकार के काम में लगे रहते हैं,एक मुखिया होता है जो जज,पुलिस और वसूलदार का काम एक साथ करता है।एक पटवारी होता है जो खेतीबारी का हिसाब रखता है और उसके बारे में हर बात अपने कागजों में दर्ज करता है।एक और कर्मचारी होता है जो अपराधियों पर मुकद्मा चलाता है,अजनबी मुसाफिरों की हिफाजत करता है और उनको अगले गाॅंव तक सकुशल पहुॅंचा जाता है।एक पहरेदार होता है जो पड़ोस के समुदायों से सरहद की रक्षा करता है,आबपाशी का हकीम होता है जो सिंचाई के लिए पंचायती तालाबों से पानी बांटता है,ब्राह्मण होता है जो बच्चों को बालू पर लिखना-पढ़ना सिखाता है,पंचाग वाला ब्राह्मण या ज्योतिषी होता है जो बुआई,कटाई और खेत के अन्य काम के लिए मुहूर्त विचारता है।एक लोहार और एक बढ़ई होते हैं जो खेती के तमाम औजार बनाते हैं और उनकी मरम्मत करते हैं,कुम्हार होता है जो सारे गांव के लिए बर्तन-भांडे तैयार करता है,नाई होता है,धोबी होता है जो कपड़े धोता है,सुनार होता है और कहीं-कहीं पर कवि भी होता है जो कुछ समुदायों में सुनार का,कुछ में पाठशाला के पंड़ित का स्थान ले लेता है।इन दर्जन व्यक्तियों की जीविका पूरे समुदाय अर्थात समाज के सहारे चलती है। अगर आबादी बढ़ जाती है तो खाली पड़ी जमीन पर पुराने समुदाय के ढ़ाचे के मुताबिक एक नये समुदाय की नींव डाल दी जाती है।पूरे ढ़ाचें से एक सुनियोजित श्रम विभाजन का प्रमाण मिलता है।इन आत्मनिर्भर ग्राम्य-समुदायों या समाजों में,जो लगातार एक ही रूप के समुदायों में पुनःप्रकट होते रहते हैं और जब अकस्मात बरबाद हो जाते हैं तो उसी स्थान और नाम से फिर खड़े हो जाते हैं,उत्पादन का संगठन बहुत ही सरल ढंग का होता है और उसकी यह सरलता ही एशियाई समाजों की अपरिवर्तनशीलता की कुंजी है,उस अपरिवर्तनशीलता की जिसके बिल्कुल विपरीत एशियाई राज्य सदा बिगड़ते और बनते रहते हैं और राजवंशों में होने वाले परिवर्तन तो मानों कभी रूकते ही नहीं।राजनीति के आकाश में जो तूफानी बादल उठते हैं,वे समाज के आर्थिक तत्वों के ढ़ाचें को नहीं छू पाते।

भारतीय ग्राम्य व्यवस्था में उद्योग धंधे और पूॅंजी का बेहतर विकास होता था।भारतीय उद्योग के महत्व को वी0एफ0कैलबर्टन ने दि अवेकनिंग आॅफ अमरीका 1939 में लिखाःतीव्र बुद्धि,सूक्ष्म योग्यता और सृजनात्मक प्रतिभा के फलस्वरूप भारतीय उद्योग पाश्चात्य देशों से अपेक्षाकृत आगे बढ़े हुए थे।शुरू की उन सदियों में,जब पाश्चात्य नौपरिवहन सर्वथा अविकसित था,भारत ने भारी बोझ ढ़ोने वाले समुद्री जहाज बनाये थे……………..वस्त्र निर्माण हिन्दुस्तान का प्रमुख उद्योग था,और यहां के सूती और रेशमी कपड़ों की सारी दुनिया में तारीफ और मांग थी।तेरहवीं,चैदहवीं और पन्द्रहवीं सदियों में धातुकार्य,प्रस्तर शिल्प,शक्कर,नील और कागज के भी उद्योग विकसित थे।कुछ भागों में काष्ठ-कर्म,मृत्तिका-पात्र और चर्मकार्य आदि उद्योग भी पल्लिवित हुए।………..देश के कई हिस्सों में रंगाई प्रमुख उद्योग था,कुछ भागों में जरी का काम और कसीदाकारी का काम पूर्णता के चरम बिंदु तक विकसित था।खानों से रांगा,पारा और कुछ हद तक लोहा निकालने और शीशे के निर्माण कार्य भी महत्वपूर्ण और विकसित उद्योग थे।बहुत सारे यात्रियों ने भारत में निर्मित लोहे और यहां के रासायनिक उद्योग की प्रशंसा की है।चीन की तरह भारत में भी चीनी मिट्टी के बर्तनों का उद्योग काफी विकसित था।गजदंत से कंगन,अंगूठी,पांसा,मनका,पलंग और अन्य अनेक चीजें बनती थी और सारी दुनिया में,खासकर यूरोप में इनकी बड़ी मांग थी।बेशकीमती पत्थरों पर किए गये काम में भी बड़ी कुशलता का परिचय मिलता है।

अंग्रेजों और अन्य यूरोपियों के भारत आने से पहले यहां उद्योगों का विकास काफी हद तक हो चुका था।ये उद्योग प्रधानतःघरेलू थे और कृषि सम्बन्धी थे।भारत में दस्तकारी का उच्च कोटि का काम सदियों से था।कलात्मकता अनूठी और आकर्षक थी।ख्याति सर्वत्र फैली होने के कारण भारतीय उद्योगों का माल दुनिया के बाजारों में छाया था।कैलबर्टन के अनुसारः-प्राचीन काल में जब रोम के निजी और सार्वजनिक भवनों में भारतीय कपड़ों,दीवार दरी,ताम चीनी,मोजेक,हीरे-जवाहरात आदि का उपयोग होता था,उस वक्त से औद्योगिक क्रंाति के प्रारम्भ तक,आकर्षक और उद्दीपक वस्तुओं के लिए सारा संसार भारत का मोहताज रहा।

कृष्णराव शिवराव शेलवांकर ने दि प्राब्लम आॅफ इण्ड़िया-1940 में लिखाः-घरेलू उद्योग और कृषि के प्रत्यक्ष संयुक्तीकरण,जिसका वह ग्राम्य समाज प्रतिनिधित्व करता था,और तज्जनित अर्थव्यवस्था की बदौलत,ग्राम्य अपना संतुलन बनाए रखने तथा विघटनकारी प्रभावों का शक्तिशाली मुकाबला करने में समर्थ था।……..ग्राम्य का,जिसमें साधरणतःअर्धदासता या बैरनों अर्थात सामंत सरदारों के शोषण के लिए स्थान न था,आंतरिक गठन बहुत ही दृढ़ था और इसलिए वह सफल हुआ,जबकि मैनोर अर्थात यूरोप के जमींदारों की जमींदारी अपना अलग गठन बनाये रखने में असफल रहा।जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि वह उन्न्ीसवीं सदी में मानव-निर्मित माल के आक्रमण के सामने डटा रहा और अंत में राजनीतिक तथा आर्थिक परिवर्तनों के सम्मिलित दबाव से चरमरा कर बैठ गया तो हमें उसकी अब तक प्रदर्शित दृढ़ता पर आश्चर्य न होगा।

भारतीय समाज के स्वाभाविक विकास की दशा में यहां का पूॅंजीपति वर्ग सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से सशक्त होकर राज्य पर अधिकार कर लेता तथा सामंती राज्यों के स्थान् पर पूॅंजीपति राज्य की स्थापना करता परन्तु फ्रंासीसी,ब्रिटिश तथा अन्य यूरोपीय सशस्त्र शक्तिशाली पूॅंजीपतियों का समूह भारत आ गया।इनके और भारतीय पूॅंजीपतियों के मध्य आर्थिक और राजनैतिक प्रभुत्व के संघर्ष में ब्रिटिश पूॅंजीपति विजयी हुए।ब्रिटिश पूॅंजीवाद वह दानव है जो भारतीय समाज की व्यवस्था की छाती पर सवार हो गया और उसे तहस-नहस कर दिया।इतिहास साक्षी है कि गुलामी का अभिशाप झेल रहे भारत के पठान या मुगल विजेता जो सामंत व्यवस्था के प्रतिनिधि थे,ने भारत की ग्राम्य समाज व्यवस्था को ही अपना आधार बना लिया था।कालांतर में ब्रिटिश विजेता तो पूॅंजीवादी थे।ब्रिटिश विजेताओं के मुक्त व्यापार व्यवस्था,आधुनिकीकरण,अविष्कार और भाप के इंजन ने संयुक्त रूप से भारत के ग्राम्य व्यवस्था के मुख्य आधार चरखे और करघे को तोड़ डाला।

सन्1813 में ब्रिटिश औद्योगिक पूॅंजी ने भारत की अर्थव्यवस्था को लूटना प्रारम्भ कर दिया था।ब्रिटिश कल-कारखानों में बने माल की खपत मण्डी के रूप में भारत का इस्तेमाल प्रारम्भ हो चुका था।कार्ल माक्र्स के अनुसार,ः-1818 और 1836 के बीच ग्रेट ब्रिटेन से हिन्दुस्तान भेजे जाने वाले सूत का परिमाण 5,200गुना बढ़ गया।1824 में अंगरेजी मलमल का हिन्दुसतान को निर्यात ज्यादा से ज्यादा दस लाख गज ीहा होगा पर 1837में यह बढ़कर 6करोड़40लाख गज से भी ज्यादा हो गया।साथ ही ढ़ाका की आबादी 1,50,000से कम होकर 20,000 रह गई।ब्रिटिश शासन का सबसे बुरा परिणाम यही नहीं था कि हिन्दुस्तान के ऐसे नगर,जो कपड़े के उद्योग के लिए प्रसिद्ध थे,तबाह हो गए,ब्रिटिश भाप और विज्ञान ने हिन्दुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक कृषि उत्पादन तथा हस्त उद्योग के समागम को जड़ से उखाड़ फेंका।

ध्यान रहे कि ब्रिटिश काल के पूर्व भारत में ग्राम्य व्यवस्था में भूमि व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी।अंगरेजों ने भारत में ब्रिटेन के ढ़ंग की सामंती व्यवस्था लादी।उत्तर-भारत में जमींदारों का एक नया वर्ग बनाकर उन्हें जमीन का मालिक बना दिया।दक्षिण भारत में रैयतवारी प्रथा को लागू कर किसान को जमीन का मालिक बना दिया।इस प्रकार जमीन को व्यक्तिगत सम्पत्ति बना दिया गया जिसकी बाजार में खरीद फरोख्त हो सकती थी।विभिन्न कानूनों को लागू करके ब्रिटिश शासकों ने ग्राम्य समाज व्यवस्था जो कि स्वायत्तशासित समाज था,के स्वरूप को छिन्न-भिन्न करके केन्द्रीयभूत राज्य की प्रशासकीय इकाई बना डाला।महात्मा गाॅंधी भारत के इसी भारतीय ग्राम्य समाज व्यवस्था की पुनःस्थापना को चाहते थे।स्वदेशी-स्वावलम्बन-कुटीर उद्योग आदि का महत्व वे बखूबी समझते थे।ब्रिटिश शासकों के पूॅंजीवादी व्यवस्था का प्रतिकार व स्वदेशी की बुलन्द आवाज लार्ड कर्जन द्वारा 16अक्तूबर,1905 को बंग-भंग योजना लागू करने के पश्चात् हुई।ढ़ाका,चटगाॅंव और राजशाही डिवीजनों को बंगाल से अलग करके असम के साथ मिला कर पूर्व बंगाल और असम नामक नये प्रंात बनाये गये,राजधानी ढ़ाका बनी।बाकी हिस्सा बंगाल और राजधानी कोलकाता।बंगाल सारे देश में राजनैतिक आंदोलन का केन्द्र था।कर्जन जैसे साम्राज्यवादी शासक ने फूट डालो और राज्य करो के तहत मुसलिम प्रधान पूर्व बंगाल को अलग कर उसे हिन्दू प्रधान शेष बंगाल के खिलाफ खड़ा करने की नाकाम कोशिश की।पूरे बंगाल में विदेशी वस्तुओं का बायकाट घोषित किया गया।बायकाट आंदोलन में चार सूत्रीय कार्यक्रमों को अपनाया गया-ब्रिटेन के कपड़े,नमक,चीनी आदि का बहिष्कार,अंग्रेजी में बोलना बन्द,सरकार के मातहत अवैतनिक पदों और कौंसिलों से इस्तीफा,विदेशी वस्तुओं को खरीदने वालों का सामाजिक बहिष्कार।सामाजिक बहिष्कार के सम्बन्ध में तय किया गया कि-उनके साथ कोई भी खान-पान न करेगा,उनके साथ कोई भी वैवाहिक संबंध न करेगा,उनसे कोई भी खरीद फरोख्त न करेगा,नाई उनका कोई काम न करेंगें,लड़कों और लड़कियों को हिदायत दी जानी चाहिए कि वे उनके बच्चों के साथ न खेलें।तत्कालीन खुफिया रिपोर्ट से पता चलता है कि कैसे जंग-ए-आजादी में भारत की ग्रामीण आम जनता ने शिरकत की,-सिर्फ जमींदारों और वकीलों ने ही नहीं,विद्यार्थियों और नौजवानों ने,किसानों और दुकानदारों ने,यहां तक कि डाक्टरों और देशी सेना ने,ब्राह्म्णों और पुरोहितों,नाइयों और घोबियों ने बायकाट और स्वदेशी आन्दोलन के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।खबर है कि बैरकपुर और फोर्ट विलियम,कलकत्ता के सिपाहियों की तीन रेजीमेण्टों ने जब विदेशी कपड़ों की बनी वर्दी पहनने से इंकार कर दिया तो उन्हें निरस्त्र कर दिया गया और पश्चिमोत्तर भारत की सुदूर छावनियों में भेज दिया गया।

दरअसल ब्रितानिया हुकूमत में भारत की आम जनता का उत्पीड़न अपने चरम पर था,आम जन भयाक्रांत था।शासन जन भावनाओं को पुलिसिया बूटों तले कुचल डालता था,आजिज आकर भारत की जनता ने आजादी की जंग लड़ी और ब्रितानिया हुकूमत से मुक्ति मिली।परन्तु विचारणीय प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।हमारा ग्राम्य समाज आज विकास के किस पायदान पर खड़ा है?भूमि अधिग्रहण के मामलों ने किसानों से उनका हक छीन लिया है।1894 में ब्रितानिया हुकूमत द्वारा बनाये गये भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 ने किसानों और कृषि भूमि दोनों को संकट में डाल दिया है।आम जन की दशा अत्यन्त शोचनीय है।आजाद भारत में भी सरकारों का निरंकुश,गैरजिम्मेदाराना रवैया ब्रितानिया हुकूमत द्वारा दिये गये जख्मों की ही तरह दर्द देते हैं।फर्क सिर्फ इतना ही है कि ये सरकारी तंत्र हमारी ही धरा के चन्द लोगों के हाथों में कैद है।ब्रितानिया पुलिस द्वारा निरपराधों की हत्या व बलात्कार,उत्पीड़न,शोषण का बदला तो चाफेकर बंधुओं,खुदीराम बोस,उधम सिंह,हरिकिशन,भगतसिह,राजगुरू,सुखदेव,आजाद आदि क्रंातिवीरों ने जुल्मी अंग्रेज हुक्मरानों को मौत के घाट उतार कर ले लिया था परन्तु आजाद भारत में इसी धरा के हुक्मरानों और उनके नुमाइंदों,पुलिस बल द्वारा किये जाने वाले पापाचार,उत्पीड़न,शोषण और भ्रष्टाचार की सजा दिलाने के लिए उठने वाली लोकतांत्रिक आवाजों को अनसुना करने का दुःसाहस करने वालों को कौन सजा देगा?विधायिका,कार्यपालिका,न्यायपालिका,मीडिया और हमस ब अपनी जिम्मेदारियों से आखिर कब तक मुॅंह मोडे रहेंगें।न्याय में देरी पीड़ित के दर्द को बढ़ावा देती है।पुलिस हिरासत में नागरिकों की मौतों ने ब्रितानिया हुकूमत के जुल्म को मात दे दी है।आज वही स्थिति है जिसके बारे में 23मार्च,1976 को उ0प्र0 विधानसभा में चैधरी चरण सिंह ने चेतावनी देते हुए कहा था,-‘‘आप समझते हैं कि स्टीम इकठ्ठी होती रहे और बाॅयलर में कहीं कुछ नहीं होगा?होगा,अवश्य होगा,एक विस्फोट होगा,एण्ड दि कण्टरी विल बी डूम्ड इन फलेम्स….और देश लपटों में घिर जायेगा।

कहावत भी है-जबरा मारै,रौवे न देय।इतिहास साक्षी है एैसी घटनाओं की प्रतिक्रिया अवश्यंभावी है।न्याय का गला नहीं घोटना चाहिए,जन आवाज को सुनना चाहिए उसको कुचलना नहीं चाहिए।यह दबती नहीं है वरन् ब्रितानिया हुकूमत के अल्फाजों में देशद्रोही,उपद्रवी,अराजक तत्व,अपराधी कहलाती है परन्तु इतिहास के सुनहरे पन्नों में ये क्रांतिकारी,देशभक्त,मानवता के पुजारी,वीर,शहीद,बलिदानी,माँ के सच्चे सपूत,जनसेवक के रूप में युगों-युगों तक पूजे जाते हैं।

हिन्दी का महत्व व विड़म्बनायें

सिर्फ मातम-पुर्सी से काम नहीं चलने वाला है।हिन्दी भारत वर्ष में राज-काज की भाषा है,हमारे सम्मान की प्रतीक है,तो सभी प्रांतीय व स्थानीय भाषायें हिन्दी की बहनें।भारत-वर्ष में बोली जाने वाली समस्त स्थानीय भाषाओं का एक समान आदर व सम्मान हमारा राष्ट धर्म होना चाहिए।डा0राममनोहर लोहिया ने प्रत्येक हिन्दी भाषी क्षेत्र के निवासी को सलाह दी थी कि वो कम से कम जहां जिस क्षेत्र या प्रदेश में रह रहे हों,वहां की स्थानीय भाषा को भी सीखें,उसका आदर करें,उसी स्थानीय भाषा को वहां पर बोल-चाल में अपनायें।इसी के साथ समूचे भारत के लोगों को हिन्दी अवश्य सीखने की सलाह भी डा0 लोहिया ने दी थी।

आज हिन्दी अपने उस मुकाम पर नहीं है जहां उसको होना चाहिए था।हिन्दी भाषी क्षेत्रों के शहरी इलाकों में रहने वाले लोग हिन्दी की जगह अंग्रेजी व पाश्चात्य सभ्यता को जाने-अनजाने बढ़ावा देते चले आ रहे हैं।हिन्दी समूचे राष्ट के लिए सम्मान की प्रतीक होनी चाहिए परन्तु एैसा हो नहीं पा रहा है।अंग्रेजों के जाने के पश्चात् भी अंग्रेज परस्त लोगों की गुलाम मानसिकता के कारण आजाद भारत में आज भी निज भाषा गौरव का बोध परवान नहीं चढ़ पा रहा है।जगह-जगह हर शहर,कस्बों में अंग्रेजी माध्यम का बोर्ड लगा देखकर इस भाषाई पराधीनता की वस्तुस्थिति को समझा जा सकता है।आज की शिक्षा बच्चों के लिए बोझ सदृश्य हो गई है।वर्तमान शिक्षा में अंग्रेजी के अनावश्यक महत्व ने आम जन व गरीबों के बच्चों के विकास को बाधित कर रखा है।जो गरीब का बच्चा,आम आदमी का बच्चा हिन्दी या अपनी किसी अन्य मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करता है,उस बालक को अपने-आप शैक्षिक रूप से पिछडा़ मान लिया जाता है।अंग्रेजी भाषा का झुनझुना उसके हाथों में पकड़ा कर उसके बोल उसके कानों में जबरन डाले जाते हैं।वो बेबस बालक दोहरी पढ़ाई करता है यानि कि एक तो शिक्षा ग्रहण करना और दूसरी पराई भाषा को भी पढ़ना।उस पर अंग्रेज परस्त लोगों का यह कहना कि अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा है,इसका महत्व किसी भी स्थानीय भाषा के महत्व से ज्यादा है,भारत में व्याप्त अभी भी गुलाम मानसिकता का द्योतक है।इन गुलाम मानसिकता के अंग्रेज-परस्त लोगों ने अंग्रेजी भाषा को आज प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है।जबकि सत्य यह है कि आज लोग इस भ्रम में कि अपने बच्चों को अंग्रेजी की शिक्षा दिलाना चाहते हैं कि अंग्रेजी सीखने के बाद जीविका के तमाम अवसर मिल जायेंगें।दरअसल किसी भी भाषा के बढ़ने के कारकों में सर्वाघिक महत्व-पूर्ण बात यह हो गई है कि उस भाषा का प्रत्यक्ष लाभ आदमी को रोजी-रोटी कमाने में मिले।जिस भाषा से ज्ञान और शिक्षा को संगठित करके रोजगार परक बना दिया जाता है,वह भाषा आम जन के मध्य लोकप्रिय होती जाती है।आज भारत की भाषाओं पर एक सोची-समझी रणनीति के पहत् अंगेजी थोप दी गई है।जीविका को अंग्रेजी भाषा के आश्रित बनाकर भारत के लोगों को मानसिक तौर पर गुलाम बना लिया गया है।आज पूरे विश्व में भारत ही एकमात्र एैसा देश है जहां के निवासियों को अपनी भाषा में बात-चीत करने या लिखने पढ़ने में भी शर्म आने लगी है।भारत के मूल निवासी मानसिक गुलाम अधकचरी अंग्रेजी बोलने में मस्तक उॅंचा करके गर्व महसूस करते हैं।

हम अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को कदई गलत नहीं मानते,किसी भी भाषा का ज्ञान व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास व योग्यता के लिए बहुत आवश्यक होता है।लेकिन जब किसी भाषा को किसी देश की मातृभाषा,स्थानीय भाषा के उपर थोपा जाता है तब कष्ट होता है।भारत के लोगों को भी चीन,जापान,रूस,फ्रांस,स्पेन आदि देशों के लोगों की ही तरह अंग्रेजी को सिर्फ एक साधारण भाषा के तौर पर ही लेना चाहिए।भाषा ज्ञान का पर्यायवाची नहीं होती है।कोई भी राष्ट अपनी भाषा में तरक्की के बेमिसाल मापदण्ड़ स्थापित कर सकता है इसके जीवन्त उदाहरण जापान,अमेरिका,चीन आदि देश हैं।

विद्यार्थियों की माँ नवदुर्गा से प्रार्थना

हे पूज्य गुरुदेवों सादर चरण स्पर्श ।

हे बृहस्पति गुरु,हे शुक्राचार्य, हे द्रोणाचार्य आदि गुरुओं की परम्परा के वाहक गुरुजन अपनी गौरवमयी परम्परा को याद करें ।यह हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि समाज को शिक्षित करके सत्मार्ग पर ले जाने वाले आप समाज के शिक्षक गण अपनी राह से भटक ही नहीं गये हैं वरन पथभ्रष्ट हो गये हैं ।यह वेदना है एक शिष्य की ……..पीडा है आपके शिष्य के अंर्तमन की ।जिसका शीश किसी भी गुरुकुल के शिक्षक के सम्मान में झुक जाता था, वो शीश आज शिक्षकों के नित नये अनैतिक कारनामों के उजागर होने से शर्म व ग्लानि से धसां जा रहा है ।हे गुरुदेवों ….अपना पुर्न उत्थान करें ।अपनी ज्ञान उर्जा को शिक्षा जगत में , समाज को शिक्षित करने में लगाने का प्रयास करें ।

आप माँ शारदे के पुत्र ,आपको यह सांसारिक लोभ लालच भ्रष्टाचार ने कैसे अपने बंधनो में जकड लिया है ।हे गुरुश्रेष्ठ -जागृत हो,मोह-लोभ की बेडियों को तोड दीजिए ।छोड दीजिए-ठेकेदारी का लालच ।मत मोड़िए ,अपनी शैक्षिक छवि को ,ज्ञान पुंज को-लोभ के दरिया में।व्यभिचार के कुंभ में बदलते अपने स्वरूप को तत्काल रोकें-गुरूदेवों ।हम महादेव के सामने सिर पटक चुके हैं कि हे महादेव-हमारे गुरूओं को सत्मार्ग पर लायें ।हम माँ सरस्वती से विनयावत हो चुके हैं कि हे माते अपने पुत्रों को सहेजें ।हमने अपने छात्र जीवन की उन घटनाओं को याद किया है ,जब हे गुरूश्रेष्ठ-आप हमें सिर्फ असत्य बोल देने पर कक्षा में दण्डित करते थे ।आज आप ही के द्वारा दण्डित ,सत्मार्ग पर आपके ही द्व्रारा चलाये गये विधार्थी आपके सम्मुख चरण वन्दना को प्रस्तुत हैं-हे गुरूवर ,हे परशुराम ,हे वशिष्ठ आदि ऋषियों मुनियों की भाॅंति हमें युगों-युगों से शिक्षित कर रहे शिक्षा के पुजारियों ,आप माँ लक्ष्मी के पुजारी क्यों बन रहें हैं? आप अपना स्वरूप क्यों बिगाड रहें हैं? विद्या ददाति विनयम् आपने हमें पढाया था। आपकी उदारता ,आपका कत्र्तव्यबोघ ,समाज के प्रति आपका अनुराग कब ,कैसे ,क्यों और कहाँ लुप्त हो गया? हम चिंतातुर हैं मुनिवर् ।हम व्याकुल हैं ,आघुनिक भारत के शिक्षा गुरूओं-हम व्यथित हैं। हे जगतजननी माँ ,आप ही दया करो। आने वाली अपनी औलादों के लिए हमारे गुरूओं की सदबुद्धि वापस कर दो –माँ , हम अपने लिए नहीं वरन् अपने गुरूओं और अपनी संतानों और समाज के लिए आपसे गुरूओं को सत्मार्ग पर लाने की भिक्षा माँगते। हैं।

हे भारतमाता। आप ही समझाओं इन गुरूश्रेष्ठों को। हे दुर्गा माँ -आपसे तो असुर भी भय खाते थे ,क्या हमारे गुरू आपसे नहीं डरते?हे सनातन धर्म के कोटि2 देवताओं ,हे समस्त धर्मो के श्रध्देयों-हमारी ,विद्यार्थियों की विनती पर भी ध्यान दें ।हमारे शिक्षकों को माॅं सरस्वती का ही पुत्र रहने दें ।हमारे शिक्षकों को भ्रष्टाचार के दलदल से निकालो-कृष्ण ।हे वासुदेव कृष्ण-तुमने तो अधर्म के नाश के लिए चचेरे भाईयों में महाभारत कराकर धर्म की स्थापना की थी। हे मधुसूदन-अपने मामा कंस का वध आपने ही अत्याचार ,आतंक खत्म करने के लिए किया था ।अवतार ले लो हे चक्रधारी ।

हे सर्वशक्तिमान-सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता ।आप जिस भी रूप में हों, आपकी नजर तो सब पर है ।हम आपको नहीं देख पाते ,आपका डाक पता भी नहीं है ,इसलिए हम इस लेख के माध्यम से आप देवगणों से निवेदन करते हैं कि हमें सत्मार्ग दिखाते आ रहे हमारे गुरूओं ने अपना मार्ग बदल दिया है ,इन्हें राह पर लाने का कोई तो जुगाड. करो प्रभु ।हे सृष्टि रचयिता ब्रहमाजी-आपने कहाॅं चूक कर दी?हे पालनहार विष्णु जी-आपने पालन में क्या असमानता कर दी?हे महादेव-क्या आपके त्रिनेत्र खोलने का समय आ गया है?नहीं2 महादेव नहीं , हम अपने गुरूदेवों की तरफ से क्षमाप्रार्थी हैं ।आपने तो समस्त दोषियों को अपनी गलती सुधारने का मौका दिया है ,उन्हें सचेत किया है ।फिर हमारे मार्गदर्शकों ,हमारे पूज्यनीयों के साथ यह भेदभाव क्यों?गुरूओं को अवसर दें प्रभु ।उन्हे सत्मार्ग पर लाने के लिए माॅं से बोलिए प्रभु ।अपने कर्मो से स्वयं अपना अपमान करा रहे गुरूवरों को दण्डित करने के बारे में अभी मत सोचें-महादेव ।भ्रष्टाचार के घनघोर बियावान में भटक रहे गुरूजनों को अपने ज्ञानपुंज से सदाचरण की राह पर लाओ माँ ।।।।।।।।।।।

इसी आशा और विश्वास के साथ कि हमारी मनोकामना अतिशीघ्र पूरी होगी।

अपने मन के रावण को मारें,मन का अंधेरा मिटायें-दीप पर्व मनायें

फिर इस वर्ष भी हमने,हम सबने लंकेश रावण के पुतले का दहन कर डाला।नव दुर्गा का उपवास रखा,शक्ति रूपों की पूजा की,माँ-स्वरूप् कन्याओं को भरपूर भोजन कराया,उन्हें भेटें दी।अब हम सभी को दीपावली की तैयारी में लगना है।सुख,समृद्धि,खुशियों के त्यौहार,मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र जी के लंका विजय व वनवास पूरा करने के पश्चात् अयोध्या वापस आने की प्रसन्नता में मनाया जाने वाला दीप पर्व भी हमें मनाना है।अंधकार भगाने के प्रतीक स्वरूप दीपावली का यह पुनीत पर्व सम्पूर्ण परिवार तथा समाज को बहुप्रतीक्षित सदैव रहा है।साथ ही साथ धनतेरस,नरक चैदस,गोवर्धन पूजा,भैया दूज,कलम दवात आदि पर्व हम श्रद्धा-भक्ति व धूमधाम से मनायेंगें।सदियों से इन त्यौहारों को मनाने की परम्परा है और निःसन्देह सदैव रहेगी।

प्रत्येक त्यौहार-परम्परा का एक विशेष महत्व होता है।उसके मूल में एक सन्देश-भाव छिपा रहता है।महापराक्रमी विद्वान दशानन लंकेश रावण पर अयोध्या के राजकुमार-वनवासी राम की विजय सिर्फ एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति पर विजय नहीं थी।न ही यह विजय राक्षसों की सेना पर वानरों,भील आदि रामभक्तों की सेना की विजय मात्र थी।वस्तुतःयह विजय थी-सत्ता के मद में चूर महापराक्रमी रावण के द्वारा स्त्री के अपमान के फलस्वरूप् उत्पन्न परिस्थितियों एवं असत्य के राही एवं मदमस्त रावण पर मर्यादा की स्थापना हेतु पिता के आज्ञा पालन हेतु अयोध्या छोड़कर वन में विचरण करने वाले सत्य के राही राम की।यह विजय थी-असत्य पर सत्य की।

सत्यमेव जयते।सत्य की विजय हो।कैसे?कभी सोचा हमने? आज तो जन-मन-गण की सोच ही थक चुकी है या साफ-साफ कहें तो सोच निस्प्राण होकर विकृत अवस्था को प्राप्त हो चुकी है। जहाँ जिस धरा पर आदिकाल से वसुधैव-कुटुम्बकम् की अवधारणा स्थापित रही हो, वहां पाश्चात्य सभ्यता व पूंजीवाद इतना प्रभावी हो गया है कि पैसों के लिए परिवार भी विखण्डित हो रहे हैं।पारिवारिक विखण्डन अब व्यक्ति के आंतरिक टूटन की वजह बन गई है।अंधाधुंध आर्थिक उन्नति की मंजिलें तय करते-करते मनुष्य मानसिक-सामाजिक-चारित्रिक रूप से बिखरता जा रहा है।इन नैतिक मूल्यों का हनन व्यक्ति-परिवार-समाज सभी को हानि के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे रहा है।

हाँ, तो बात फिर से दीपावली पर्व के सन्दर्भ में।दीप पर्व की हमारे वर्तमान जीवन में उपयोगिता की,असत्य पर विजय प्राप्त कर के अयोध्या वापस लौटे मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम चन्द्र जी के सम्मान व स्वागत में आयोजित हुए इस दीप पर्व के आज हमारे द्वारा परम्परागत रूप से मनाये जाने की प्रासंगिकता पर।माँ कैकेयी द्वारा मांगे गये पिता से वरदान की लाज रखने हेतु,पिता के वचनों की,राजधर्म की मर्यादा की रक्षा के लिए पत्नी-भाई समेत वन जाने जैसा आचरण क्या आज हमारे समाज में करने की कोई सोच भी सकता है?आज तो हालात यह हो गई है कि पुत्र के विवाहोपरान्त बेचारे माॅं-बाप ही घर से कब निकाल दिये जायें,इसका ही ठिकाना नहीं है।रिश्तों को भौतिकता रूपी दीमक चाट चुका है।लालच का बिच्छू अपना जहर लोगों के नसों में उतार चुका है।मिथ्याचरण मनुष्य के आभूषण रूप में सुशोभित हो रहा है।सदाचार मानव स्वभाव से विलुप्त हो चुका है और व्यभिचार आम जीवन शैली का अनिवार्य हिस्सा बना हुआ है।आज कहाँ हैं राम जैसा आज्ञाकारी पुत्र कहाँ है भरत-शत्रुध्न और लक्ष्मन जैसे भाई?क्या कोई स्त्री सीता जैसा कष्ट सहने का,पति के साथ दुःखमय जीवन जीने का निर्णय ले सकती है?त्याग की भावना की जगह वासना-पूर्ति की अभिलाषा अपना साम्राज्य स्थापित कर चुका है।तो क्या हमें अपने अन्दर के राक्षस रूपी इन विकारों को,आसुरी प्रवृत्तियों को खत्म करने का प्रयास नहीं करना चाहिए?क्या परम्परागत रूप से महाविद्वान पुलस्त्य ऋषि के नाती,महापराक्रमी,बलवान,ज्ञानी,शिवभक्त परन्तु अहंकारी,सत्ता मद में चूर,राक्षसी प्रवृत्ति के,स्त्री उत्पीड़क लंकेश रावण के पुतले का दहन कर के ही हम दशहरा मनाते रहेंगें?सिर्फ परम्परा के निर्वाहन हेतु दीप पर्व मनायेंगें?

आइये……समाज के हितार्थ स्वयं की आन्तरिक आसुरी शक्तियों के खिलाफ धर्मयुद्ध की शुरूआत करें।अन्र्तद्वन्द छेड़े।चेतना को नया आयाम दें।नया सबेरा लाने की दिशा में कदम बढ़ायें।अपने मन के लंकेश को सदाचार रूपी बाणों से नाभि प्रहार यानि दुराचरण का खात्मा करके आसुरी शक्ति को परास्त कर परिवार-समाज की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करें।यदि मानव एैसा करे तो श्री रामचन्द्र जी के लंका विजय के उल्लास में,अयोध्या वापसी की प्रसन्नता में आज तक मनाये जा रहे इन पर्वों की,दीप पर्व की प्रासंगिकता हमारे वर्तमान में है अन्यथा सिर्फ अवकाश,थोड़ा सैर-सपाटा,मन बहलाव व ईश्वर भक्ति के ढ़ोंग के लिए दीपावली मनाना कोई मायने नहीं रखता।