Monday, December 20, 2010

काकोरी के अमर शहीद

काकोरी के अमर शहीद

9 अगस्त, 1925 को लखनउ के करीब काकोरी के पास क्रान्तिकारी कार्यक्रमों को संचालित करने तथा ब्रितानिया हुकूमत से भारत को आजाद कराने के लिए हथियारों को जुटाने तथा धन की कमी को पूरा करने के उद्देश्य से क्रान्तिकारियों ने रेलगाड़ी से आ रहे सरकारी खजाने को गाड़ी रोकवा कर लूट लिया था। इस अभियान के बाद चन्द्रशेखर आजाद को छोड ़कर बाकी सभी क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, शचीन्द्र बख्शी, रोशन सिंह , भूपेन्द्रनाथ सान्याल, शचीन्द्रनाथ सान्याल, जोगेश चन्द्र चटर्जी, मन्मथनाथ गुप्त, गोविन्द चरणकार उर्फ डी0एन0चैधरी, सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य, राजकुमार, विष्णु शरण दुबलिस, राम दुलारे आदि पकड़े गये तथा इन पर अभियोग चलाया गया। काकोरी काण्ड के अभियुक्त राजेन्द्र नाथ लाहिडी़ को 17 दिसम्बर 1927 को गोण्ड़ा जेल में, 19 दिसम्बर 1927 को अशफ़ाक उल्ला खाँ को फैजाबाद जेल में, राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में तथा रोशन सिंह को इलाहाबाद जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया। इस मुकदमें के सेशन जज मि0 हेमिल्टन ने फैसला देते हुए कहा था कि-ये नौजवान देशभक्त हैं तथा इन्होने अपने लिए कुछ भी नहीं किया है। इन वीरों को फॅांसी की व अन्य को कड़े कारावास की सजा सुनाते समय जज ने कहा-आप सच्चे सेवक और त्यागी हो, लेकिन गलत रास्ते पर हो। मुकदमें में फैसले के बाद की स्थिति का वर्णन सरदार भगतसिंह ने पंजाबी में लिखे एक लेख में किया है कि-गरीब भारत में ही सच्चे देशभक्तों का यह हाल होता है। ..........जिन्हें फांसी की सजा मिली, जिन्हें उम्र भर के लिए जेल में बन्द कर दिया गया, उनके दिलों का हाल हम नहीं समझ सकते। कदम-कदम पर रोने वाले हिन्दुस्तानी, यों ही थर-थर कॅांपने लग जाने वाले कायर हिन्दुस्तानी, उन्हें क्या समझ सकते हैं?छोटों ने बड़ों के पैरों पर झुककर नमस्कार किया। उन्होंने छोटों को आर्शीवाद दिया, जोर से गले मिले और आह भरकर रह गये। जेल भेज दिये गये। जाते हुए श्री राम प्रसाद बिस्मिल ने बड़े दर्दनाक लहजे में कहा-

दरो-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं।
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं। ।

यह कहकर वह लम्बी, बड़ी दूर की यात्रा पर चले गये। दरवाजे से निकलते समय उस अदालत के बड़े भारी रैंकन थियेटर हाल की भयावह चुप्पी को एक आह भरकर तोड़ते हुए राम प्रसाद बिस्मिल ने फिर कहा-

हाय, हम जिस पर भी तैयार थे मर जाने को।
जीते जी हमसे छुड़ाया उसी काशाने को। ।

आइऐ, इन चारों क्रान्तिकारियों के जीवन संघर्षों, परिचय तथा विचारों का ज्ञान लाभ उठाने की कोशिश करें। किन उद्देश्यों को लेकर इन नौजवानों ने अपना उच्चतम बलिदान अपने प्राणों का न्यौछावर, मातृभूमि की सेवा में अर्पित किया?इसका मनन् करें तथा हो सके तो इनके सपनो के भारत के निर्माण में अपना योगदान स्वयं सुनिश्चित करें।

राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी

अंग्रेजी शासन के धुर विरोधी श्री क्षितिज मोहन लाहिड़ी के पुत्र रत्न के रूप में राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी का जन्म 23 जून 1903 को मोहनपुर ग्राम पवना, बंगाल में हुआ था। बंग-भ्ांग आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी निभाते हुए क्षितिज मोहन लाहिड़ी जेल यात्रा कर चुके थे। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को 9वर्ष की उम्र में बनारस शिक्षा ग्रहण करने हेतु पिता ने बड़े भाई के साथ भेज दिया। बनारस परम्परागत् शिक्षा के केन्द्र के साथ-साथ क्रान्तिकारियों गढ़ भी था। बनारस में राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी क्रांतिकारी शिक्षा में दीक्षित हो गये। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययनरत् लाहिड़ी, शचीन्द्रनाथ सान्याल के क्रान्तिकारी संगठन में शामिल हो गये। साहित्यिक अभिरूचि के कारण लाहिणी को बंग साहित्य परिषद का सचिव बनाया गया। क्रांतिकारी मासिक पत्र अग्रदूत का सम्पादन भी आपने किया। आपके लेख बंगवाणी और शंख में निरन्तर छपते थे। जोगेश चन्द्र चटर्जी जो कि अनुशीलन समिति का कार्य बनारस में भी प्रारम्भ कर चुके थे, ने शचीन्द्रनाथ सान्याल के साथ मिलकर काम करने के उद्देश्य से हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के नाम से नये संगठन का गठन किया। बनारस जनपद का संगठक राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को बनाया गया। 22 वर्ष की ही उम्र में क्रांतिकारी संगठक के रूप में शीघ्र ही आपने अपनी धाक जमा ली। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने सेण्टल हिन्दू स्कूल के विद्यार्थी रामनारायण पाण्डेय को अपना पत्रवाहक बनाया।

राजनैतिक डकैतियों में राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी की उपयोगिता के कारण ही रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में हुई रेल डकैती में लाहिड़ी को शामिल किया गया था। क्रातिकारी दल के सदस्यों की बैठक 7अगस्त 1925 को शाहजहॅांपुर में हुई। सहारनपुर से लखनउ जाने वाली पैसेंजर गाड़ी में कुछ क्रांतिकारी शाहजहॅांपुर से तथा कुछ काकोरी में सवार हुए। काकोरी से आगे बढ़ते ही राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने जंजीर खींच कर रेलगाड़ी को रोक दिया। रेल रूकते ही सभी क्रांतिकारियों ने नीचे उतर कर फायरिंग की, गार्ड और चालक को पेट के बल जमीन पर लिटा दिया तथा यात्रियों को रेलगाड़ी के अन्दर ही रहने का आदेश दिया। सरकारी खजाने का संदूक तोड़कर क्रांतिकारी भाग निकले। इस काकोरी षड़यंत्र के बाद लाहिड़ी कलकत्ता चले गये। दक्षिणेष्वर के बम कारखाने में 10 नवम्बर 1925 को बंगाल पुलिस द्वारा छापा मारा गया, यहीं पर लाहिड़ी गिरफतार किये गये तथा इस जुर्म में 10 वर्ष की सजा हुई। काकोरी काण्ड में संलिप्तता साबित होने पर लाहिड़ी को कलकत्ता से लखनउ लाया गया। बेड़ियों में ही सारे अभियोगी आते-जाते थे। आते-जाते सभी मिलकर गीत गाते। एक दिन अदालत से निकलते समय सभी क्रांतिकारी-सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, गाने लगे, सूबेदार बरबण्डसिंह ने इन्हे चुप रहने को कहा। क्रांतिकारी सामूहिक गीत गाते रहे। बरबण्डसिंह ने सबसे आगे चल रहे राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी का गला पकड़ लिया, लाहिड़ी के एक भरपूर तमाचे और साथी क्रांतिकारियों की तन चुकी भुजाओं ने बरबण्डसिंह के होश उड़ा दिए। ज़ज को बाहर आना पड़ा। इसका अभियोग भी पुलिस ने चलाया परन्तु वापस लेना पड़ा। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी अध्ययन और व्यायाम में अपना सारा समय व्यतीत करते थे। 6 अप्रैल 1927 केा फाँसी के फैसले के बाद सभी को अलग कर दिया गया परन्तु लाहिड़ी ने अपनी दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं किया। जेलर ्रने पूछा कि-प्रार्थना तो ठीक है परन्तु अन्तिम समय इतनी भारी कसरत क्यो? राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने उत्तर दिया-व्यायाम मेरा नित्य का नियम है। मृत्यु के भय से मैं नियम क्यांे छोड़ दूँ?दूसरा और महत्वपूर्ण कारण है कि हम पुर्नजन्म में विश्वास रखते हैं। व्यायाम इसलिए किया कि दूसरे जन्म में भी बलिष्ठ शरीर मिलें, जो ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ युद्ध में काम आ सके। यह एक रहस्य आज भी बना है कि काकोरी काण्ड के अभियुक्तों को 19 दिसम्बर को फांसी दी जानी थी तो राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को 17 दिसम्बर 1927 को दो दिन पूर्व ही गोण्ड़ा जेल में फॅांसी क्यों दे दी गयी?

रामप्रसाद बिस्मिल

मैनपुरी उ0प्र0 में 1897 में पं0 मुरलीधर के पुत्र रूप में जन्में रामप्रसाद बिस्मिल प्रमुख क्रांतिकारियों में से एक हैं। शाहजहांपुर के मूल निवासी बिस्मिल अपनी माता तथा स्वामी सोमदेव से अत्यधिक प्रभावित थे। क्रांतिकारी विचारधारा के संत स्वामी सोमदेव ने ही बिस्मिल के मन में क्रांति के बीज बोये। भाई परमानन्द को फाँसी की सजा सुनाये जाने पर, बिस्मिल ने स्वामी सोमदेव के सामने अंग्रेजों को खत्म करने की प्रतिज्ञा ली। स्वामी जी ने बिस्मिल की आत्मा को ललकारते हुए कहा था-प्रतिज्ञा करना सरल है, उसका पालन करना कठिन है।

कांग्रेस के 1916 के लखनउ अधिवेशन में रामप्रसाद बिस्मिल, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की कार के आगे लेट गये थे। यह बिस्मिल की जिद का परिणाम था कि कार के बजाए तिलक घोड़ागाड़ी से चारबाग स्टेशन से अधिवेशन स्थल तक गये। इस घोड़ागाड़ी को युवकों ने रामप्रसाद के नेतृत्व में घोड़ों को हटाकर स्वयं गाड़ी खींच कर चलाई थी। रास्ते भर तिलक पर पुष्प वर्षा की गई। अधिवेशन में लोकमान्य तिलक की भूमिका और विचारों से युवकों का दल अत्यन्त प्रभावित हुआ। इसी अधिवेशन में बिस्मिल का परिचय क्रांतिकारियों से हुआ और बिस्मिल क्रांतिकारी संगठन के सदस्य बन गये। रामप्रसाद बिस्मिल ने अमेरिका को स्वतंत्रता कैसे मिली?ग्रंथ लिखा। मैनपुरी षड़यंत्र के कर्ताधर्ता पं0 गेंदालाल दीक्षित के अत्यन्त करीबी थे-बिस्मिल। अपने मित्र सुशील चन्द्र सेन से बंग्ला सीखने के प्श्चात् बिस्मिल ने बंग्ला क्रातिकारी साहित्य का हिन्दी में अनुवाद कार्य प्रारम्भ किया। तीन पुस्तकों का प्रकाशन भी कराया। 1920 में जब सारे राजनैतिक कैदी रिहा कर दिये गये तब बिस्मिल पर से भी पाबंदी हटा ली गई। बिस्मिल ने शाहजहांपुर वापस आकर दो पुस्तकें और लिखी तथा प्रकाशित करवाईं। उनकी लिखित क्रांतिकारी जीवन को प्रकाशित करने का साहस किसी प्रकाशक को नहीं हुआ। महर्षि अरविन्द की पुस्तक यौगिक साधना का अनुवाद भी बिस्मिल ने किया। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की फौजी शाखा के प्रमुख के रूप में बिस्मिल ने पार्टी का एक्शन ग्रुप संभाल रखा था। धन की कमी को पूरा करने के उद्देश्य से रामप्रसाद बिस्मिल ने सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई। इसके लिए बिस्मिल ने 7 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर में क्रांतिकारियों की बैठक की। इस बैठक में राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुंदीलाल गुप्त, बनवारीलाल, चन्द्रशेखर आजाद, अशफ़ाक उल्ला खाँ, मुरारीलाल, केशव चक्रवर्ती शामिल थे। पं0रामप्रसाद बिस्मिल ने रेलगाड़ी से सरकारी खज़ाने को लूटने का प्रस्ताव रखा। आजाद ने समर्थन तथा अशफ़ाक ने विरोध किया। फिर सबके समर्थन के कारण यह योजना 9 अगस्त 1925 को क्रियान्वित की गई। घटना को अंजाम देने वाले मात्र दस क्रांतिकारी थे परन्तु बाद में चालीस लोग पकड़े गये। चन्द्रशेखर आजाद तो आजीवन आजाद ही रहे। ब्रितानिया सरकार ने पकड़े गये लोगों को अलग-अलग रखकर आपस में सन्देह उत्पन्न कर दिया। अंग्रेजों की इस चाल से कुछ लोग मुखबिर हो गये तथा पच्चीस लोगों पर काकोरी षड़यंत्र का अभियोग चला। क्रांतिकारियों का मुकद्मा मोतीलाल नेहरू, गोविंद वल्लभ पंत, चंद्रभानु गुप्त, मोहनलाल सक्सेना, अजित प्रसाद जैन, बी0के0चैधरी ने लड़ा। 18माह तक चले मुकद्में के दौरान इन लोगों से मिलने वेश बदल कर सरदार भगतसिंह, शिव वर्मा, विजय सिन्हा आते रहते थे। 6 अप्रैल 1927 को काकोरी षड़यंत्र का फैसला आया। रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में रखा गया। जेल में ही लिखी बिस्मिल की आत्मकथा का प्रकाशन गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने पत्र प्रताप में किया। प्रताप का यह अंक जब्त कर लिया गया था। 19 दिसम्बर 1927 को फांसी का दिन निर्धारित था। फांसी के समय अन्तिम इच्छा पूछे जाने पर बिस्मिल ने कहा-मैं अंग्रेजी साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ। धार्मिक प्रवृत्ति के देशभक्त, कवि और लेखक रामप्रसाद बिस्मिल की लिखी गज़ले अत्यन्त ओजपूर्ण हैं।

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-कातिल में है।

अब न अहले वलवले हैं और न अरमानें की भीड़।
एक मिट जाने की हसरत, अब दिले-बिस्मिल में है। ।

मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे,
बाकी न मैं रहूँ, न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,
तेरा ही ज़िक्रेयार, तेरी जुस्तजू रहे। ।

अशफ़ाक उल्ला खाँ

पं0 रामप्रसाद बिस्मिल के अनन्य सहयोगी अशफ़ाक उल्ला खॅां का जन्म शाहजहॅांपुर में हुआ था। अशफ़ाक उल्ला खॅां एकमात्र एैसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने बिस्मिल के सरकारी खजाने को लूटने के प्रस्ताव का विरोध किया था। दूरदृष्टि रखने वाले अशफ़ाक जानते थे कि सरकारी खज़ाने को लूटने का मतलब है ब्रितानिया हुकूमत से सीधी टक्कर लेना। अशफ़ाक का मानना था कि अभी ब्रितानिया हुकूमत से सीधी टक्कर लेना मुनासिब नहीं है। अभी इस कार्यवाही से ब्रितानिया हुकूमत बौखला उठेगी तथा क्रांतिकारियों को पकड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी, परिणामस्वरूप क्रांतिकारी बिखर जायेंगें। क्रांतिकारियों को फिर से संगठित करना बड़ा मुश्किल हो जायेगा। अशफ़ाक की दलीलें तथा विरोध व्यावहारिक थीं। दरअसल इस समय क्रांतिकारियों के संगठन के पास धन की बड़ी कमी थी। उसी कमी को पूरा कर, हथियार आदि की व्यवस्था के लिए सरकारी खज़ाने को लूटने का दुःसाहसिक निर्णय अशफ़ाक के विरोध के बावज़ूद क्रांतिकारियों ने लिया। निर्णय पूर्व विरोध जताने वाले अशफ़ाक, खज़ाना लूटा जायेगा यह निर्णय होने के बाद अपने साथियों के साथ काकोरी षड़यंत्र में शामिल हुए। 9 अगस्त, 1925 को काकोरी के आगे खज़ाना लूटने के बाद सभी क्रांतिकारी तितर-बितर हो गये थे। 26 सितम्बर, 1925 को सुबह 4बजे पुलिस ने शाहजहॅांपुर में पं0रामप्रसाद बिस्मिल के घर पर छापा मार कर, बिस्मिल को गिरफतार कर लिया। अशफ़ाक उल्ला खॅां बिस्मिल के घर पर ही थे, वे पीछे के रास्ते से भागने में सफल रहे। दो दिन तक गन्ने के खेत में छिपे रहने के बाद अशफ़ाक किसी प्रकार बनारस पहुँचे। यहाँ के भी सभी साथी पुलिस हिरासत में पहुंच चुके थे। बनारस से अशफ़ाक राजस्थान पहुंचे। यहाँ के क्रांतिकारी अर्जुनलाल सेठी के घर में रहने लगे। कुछ समय बाद अशफ़ाक बिहार आ गये तथा डाल्टनगंज में क्लर्क की नौकरी करने लगे। आठ माह के डाल्टनगंज प्रवास के दौरान अशफ़ाक ने अपने को मथुरा का कायस्थ बता रखा था। यहीं पर बंग्ला भाषा सीखी। यहीं पर शाहजहॅांपुर के रहने वाले एक इंजीनियर से अशफ़ाक की जान पहचान हो गई। बाद में धन के लालच में इस इंजीनियर ने अशफ़ाक को पुलिस के हाथों पकड़वा दिया। इस समय तक काकोरी षड़यंत्र का फैसला हो चुका था। मुकद्मा चला तथा अशफ़ाक को भी फाँसी की सजा मिली। क्रांतिकारियों की फाँसी की सजा के खिलाफ़ जब अपील तैयार की गई तब उस पर अशफ़ाक उल्ला खॅां ने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और कहा-मैं परवरदिग़ार खुदा के अलावा किसी से भी माफ़ी नहीं मांगता हूँ। अशफ़ाक को फैज़ाबाद जेल में रखा गया। 19 दिसम्बर 1927 को अशफ़ाक को जेल में ही फांसी दे दी गई। इस दिन अशफ़ाक ने नये कपड़े पहने, इत्र लगाया, कुरान शरीफ को हाथ में ले कर, कलमा पढ़ते-पढ़ते फाँसी के तख्ते पर चढ़ गये। शहीद होने के पहले अशफ़ाक उल्ला खॅां ने कहा था-

फना है सबके लिए, हम पै कुछ नहीं मौक़ूफ़।
बक़ा है एक फ़कत जाने किब्रिया के लिए। ।
तंग आकर हम भी उनके जुलूम-ऐ-बेदाद से,
चल दिए सूए-अदम ज़िन्दाने फैज़ाबाद से!

अशफ़ाक उल्ला खाँ का जेल से भेजा गया संदेश

भारतमाता के रंगमंच पर हम अपनी भूमिका अदा कर चुके हैं। ग़लत किया या सही, जो भी हमने किया, स्वतन्त्रता-प्राप्ति की भावना से प्रेरित होकर किया। हमारे अपने अर्थात कांग्रेसी नेता हमारी निन्दा करें या प्रशंसा, लेकिन हमारे दुश्मनों तक को हमारी हिम्मत और वीरता की प्रशंसा करनी पड़ी है। लोग कहते हैं हमने देश में आतंकवाद फैलाना चाहा है, यह ग़लत है। इतनी देर तक मुकद्मा चलता रहा। हमारे में से बहुत से लोग बहुत दिनों तक आज़ाद रहे और अब भी कुछ लोग आज़ाद हैं, फिर भी हमने या हमारे किसी साथी ने हमें नुक़सान पहुँचाने वालों तक पर गोली नहीं चलायी। हमारा उद्देष्य यह नहीं था। हम तो आज़ादी हासिल करने के लिए देश भर में क्रान्ति लाना चाहते हैं।

जजों ने हमें निर्दयी, बर्बर, मानव-कलंकी आदि विशेषणों से याद किया है। हमारे शासकों की क़ौम के जनरल डायर ने निहत्थों पर गोलियाँ चलायीं थीं और चलायीं थीं बच्चों, बूढ़ों व स्त्री-पुरूषों पर। इन्साफ के इन ठेकेदारों ने अपने इन भाई बन्धुओं को किस विशेषण से सम्बोधित किया था?फिर भी हमारे साथ यह सलूक क्यों?

हिन्दुस्तानी भाइयों। आप चाहे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय को मानने वाले हों, देश के काम में साथ दो। व्यर्थ आपस में न लड़ो। रास्ता चाहे अलग हों, लेकिन उद्देश्य सबका एक है। सभी कार्य एक ही उद्देश्य की पूर्ति के साधन हैं, फिर यह व्यर्थ के लड़ाई-झगड़े क्यों?एक होकर देश की नौकरशाही का मुक़ाबला करो, अपने देश को आज़ाद कराओ। देश के सात करोड़ मुसलमानों में पहला मुसलमान हूँ, जो देश की आज़ादी के लिए फॅांसी चढ़ रहा हूँ, यह सोचकर मुझे गर्व महसूस होता है।

अन्त में सभी को मेरा सलाम।

हिन्दुस्तान आज़ाद हो।

मेरे भाई खुश रहें।

आपका भाई
अशफ़ाक़

रोशन सिंह

रोशन सिंह रायबरेली के रहने वाले थे। किसान आन्दोलन में जेल जा चुके थे। पुलिस की नजरों से बचे रहकर क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल रहने वाले रोशन सिंह ने पुलिस की मदद करते हुए कई डकैतों को पकड़वाया था। काकोरी रेल डकैती के पहले ही कई बार राजनैतिक डकैतियां डाल चुके रोशन सिंह भी क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य थे। काकोरी षड़यंत्र में रोशन सिंह के खिलाफ़ कोई भी सबूत नहीं था लेकिन फिर भी वे अंग्रेजशाही का शिकार हो ही गये और 19 दिसम्बर, 1927 को इलाहाबाद जेल में फॅांसी पर लटका दिये गये। तख्ते पर खडे़ होने के बाद रोशन सिंह ने वन्देमात्रम का उद्घोष किया। आपके शव को जुलूस की इज़ाजत नहीं मिली। रोशन सिंह ने अंतिम पत्र 13दिसम्बर को लिखा-इस हफ़ते फॅांसी हो जायेगी। ईश्वर के आगे विनती है कि आपके प्रेम का आपको फल दे। आप मेरे लिए कोई गम़ न करना। मेरी मौत तो खुशी वाली है। चाहिए तो यह कि कोई बदफैली करके बदनाम होकर न मरे और अन्त समय ईश्वर याद रहे। सो यही दो बातें हैं। इसलिए कोई ग़म नहीं करना चाहिए। दो साल बाल बच्चों से अलग रहा हूँ। ईश्वर भजन का खूब अवसर मिला है। इसलिए मोह-माया सब टूट गयी। अब कोई चाह बाक़ी न रही। मुझे विश्वास है कि जीवन की दुख भरी यात्रा खत्म करके सुख के स्थान जा रहा हूँ। शास्त्रों में लिखा है, युद्ध में मरने वालों की ऋषियों जैसी श्रेणी होती हैं।

जिन्दगी ज़िन्दादिली को जानिए रोशन,
वरना कितने मरे और पैदा होते जाते हैं।