Saturday, October 30, 2010

बारदौली का किसान संघर्ष

30जून,1927 को ब्रितानिया हुकूमत की गुलामी में जकडी़ भारतमाता के कर्मयोगी सपूतों-अन्नदाता किसानों पर बम्बई प्रदेश की सरकार ने बारदौली जनपद,सूरत ताल्लुक का लगान 20-25 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था।यह वही समय था जब ब्रिटेन की तीनों प्रमुख पार्टियों:कंजरवेटिव,लिबरल और लेबर के प्रतिनिधि साइमन कमीशन के नाम से भारत में तत्कालीन शासन व्यवस्था के काम करने के तरीके का पता लगाने,शिक्षा की दशा,प्रातिनिधिक संस्थाओं के विकास की स्थिति आदि का पता करने घूम रही थी।इस कमीशन का पूरे भारत में जोरदार तरीके से विरोध किया गया था।

लगान में वृद्धि के विरोध में बारदौली के किसानों ने अपना संगठित स्वरूप खड़ा किया।बढ़े हुए लगान का प्रतिरोध करने के लिए आन्दोलन स्वयं किसानों ने खडा किया।किसानों को जागृत किया,एकत्र किया,बड़ी विशाल किसान सभा का तत्काल आयोजन हुआ।किसानों का एक प्रतिनिधि-मण्डल लगान में अनुचित वृद्धि को वापस लेने की मांग को लेकर सरकार के राजस्व अधिकारी से मिला,ज्ञापन दिया।होना क्या था?किसानों को दर्द देने वाले हाथ दवा देने से रहे।किसान अपनी ताकत बढ़ाने में जुट गये।16सितम्बर,1927 को दूसरी किसान सभा का आयोजन किया गया।बम्बई की लेजिस्लेटिव कौसिंल बढ़े हुए लगान को वापस लेने व वसूली रोकने का प्रस्ताव भेज चुकी थी परन्तु सरकार सहमत न हुई।इस दूसरी सभा में तमाम कंाग्रेसी नेता और कौंसिल के सदस्य शामिल हुए थे।निर्णय ले लिया गया-बढ़ा हुआ लगान नहीं देंगे।

सरकार खामोश रही,किसान सुलगते रहे।4फरवरी,1928 को किसानों ने फिर सभा करके अपना निर्णय लगान नही देंगे को दोहराया तथा वल्लभ भाई पटेल को अपना नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया।निमंत्रण मिलते ही पटेल महात्मा गाँधी से मिले।महात्मा गाँधी से इजाजत लेकर,उनसे गहन विचार-विमर्श करने के पश्चात् पटेल ने बारदौली के किसानों का आन्दोलन अपने हाथों में लिया। गाँधी का ब्रह्मास्त्र सत्याग्रह लेकर उनके विश्वस्त पटेल ने किसानों की फौज के सेनापति का दायित्व उठाया।

12फरवरी,1928 को किसानों का सम्मेलन हुआ।फैसला हुआ-जब तक सरकार लगान की दरें संशोधित करने के लिए वचनबद्ध नहीं होगी,तब तक किसान सरकार को लगान नहीं देंगे।बारदौली के गाँव में एक-एक पुराने कांग्रेसी को जिम्मेदारी देकर किसानों को आंदोलन की रूपरेखा बताने में लगा दिया पटेल ने।लगानबंदी के साथ-साथ असहयोग भी प्रारम्भ हो गया।सरकारी महकमें के लोगों से बोलना,बैलगाड़ी देना,सामान बेचना सब बन्द कर दिया किसानों ने।क्या यह सब शान्तिपूर्वक हो रहा था?सरकार दमन पर उतर आई।मवेशियों की कुड़की प्रारम्भ हुई,किसानों ने शान्ति बनाये रखी।फिर सामूहिक कुड़की का दौर चला।पुलिस और उनके पठान किसानों के घरों में घुसते,मारते-पीटते और घर की चीजों और जानवरों को लेते जाते।इन कार्यों के विरोध में केन्द्रीय विधानसभा के अध्यक्ष विठ्ठल भाई पटेल ने वाइसराय को पत्र लिखकर अपने पद से इस्तीफा देने की धमकी दी।

किसानों पर हो रहे इस दमन चक्र की आग पूरे देश में फैल रही थी।हर तरफ से लगान कम करने की मांग उठने लगी।बारदौली के किसानों के समर्थन में देश में चारों तरफ सभाओं का आयोजन हुआ।बम्बई और संयुक्त प्रान्त में भी किसानों ने लगानबंदी का अनुसरण करने का ऐलान किया।आन्दोलन को व्यापकता देने के लिए गाँधी जी ने पूरे देश में एक साथ बारदौली दिवस मनाने की अपील की।तारीख तय हुई-12जून,1928।बारदौली दिवस पर आयोजित एक सभा में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष डा० अंसारी ने कहाः-बारदौली के लोग जमाने से चली आई दासता से हमारे गुलाम मुल्क की मुक्ति के पलटन के हरावल हैं।

किसानों की जनशक्ति को देख,अन्नदाता के विराट संगठित रूप को देख,भारतीयों की भीष्म प्रतिज्ञा को देखकर बंबई के गवर्नर ने पटेल को धमकी भी दी।पर गाॅंधी के सैनिक और किसानों सेनापति पटेल ने लौह पुरूष की दृढ़ता दिखाई।वह टस से मस न हुआ।फलतःबारदौली के किसानों की विजय हुई,पुराना लगान लागू हो गया।गुलामी की जंजीर की एक कड़ी लौह पुरूष पटेल के नेतृत्व में अन्नदाता किसान के विराट रूप ने तोड़ दी।सरकार ने वायदा किया कि सभी गिरफतार लोगों को छोड़ दिया जायेगा तथा कुड़की की सारी सम्पत्ति वापस होगी।इस वायदे के आधार पर जुलाई 1928 को आंदोलन समाप्त कर दिया गया।11-12अगस्त,1928 को सारे गुजरात में बारदौली विजय का उत्सव मनाया गया। यहाँ पर ही किसान शक्ति ने पटेल को सरदार की उपाधि से विभूषित किया था।हर तरफ महात्मा गाँधी की जय और सरदार पटेल की जय गुंजायमान हो रही थी।लेकिन अफसोस बाद में बारदौली के किसानों से किया गया वायदा निभाया न गया।किसानों को जेल से रिहा न किया गया।जब्त सम्पत्तियां भी वापस न की।वाइसराय ने अपने वायदों की कोई कीमत न रखी।गाँधी जी ने वायसराय को इस वायदाखिलाफी के विषय में कई पत्र लिखे,परन्तु कोई असर न हुआ।बहरहाल,एक सत्य यह भी है कि यही बारदौली का सत्याग्रह है जिसने कांग्रेस , गाँधी जी और उनके अनुयायियों की जनप्रियता सारे देश में बहुत बढ़ाई परन्तु किसानों के साथ हुई वायदाखिलाफी पर ये लोग कुछ न कर सकें।बारदौली सत्याग्रह ने गाँधी जी के लिए राजनीति में पुनःप्रवेश और कांग्रेस की बागडोर फिर से अपने हाथ में लेने का मार्ग प्रशस्त किया।

आज आजादी के 62 वर्षों बाद भी किसानों का शोषण-उत्पीड़न बन्द नहीं हुआ है।विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए मनमाने तरीके से किसानों की उर्वरा भूमि का अधिग्रहण जन विरोधी कृत्य है। अपने अथक परिश्रम से जिस भूमि पर अपना खून पसीना बहा कर,तपती दोपहरी में,भयानक सर्द मौसम में और भीषण बरसात में सपरिवार दिलो-जान लगा कर,अपना,अपने परिवार एवं समाज के उदर पोषण हेतु अन्न उपजाता है,वही भूमि,विकास के नाम पर अधिग्रहीत कर के,कंक्रीट के जंगलों में बदल दी जा रही है।सम्पूर्ण देश में भूमि अधिग्रहण के मामलों ने किसानों से उनका हक छीन लिया है।विभिन्न सरकारी आवासीय योजनाओं के लिए कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण तो बदस्तूर जारी ही है,प्रापर्टी डीलरों ने भी किसानों की जमीनों की खरीद-फरोख्त कर के मोटा पैसा कमाने के साथ ही साथ भारत की कृषि आधारित व्यवस्था को बरबाद करने में और किसानों को बर्बादी,शराब खोरी तथा बेरोजगारी की तरफ ढकेलने जैसा कार्य किया है। भूमाफियाओं के काले कारनामें अखबारों की सुर्खियां बनते रहते हैं।विभिन्न अदालतों में भी भूमि सम्बन्धित मामले लम्बित पड़े हैं।धार्मिक स्थल,कब्रिस्तान की जमीनें भी जमीन के इन दलालों ने नहीं छोड़ी हैं।रही-सही कसर किसानों की बेशकीमती उर्वरा भूमि पर शासन-प्रशासन की दृष्टि ने पूरी कर दी है।ग्राम समाज,बंजर,नजूल आदि जमीनों के रहते हुए कृषि योग्य उर्वरा भूमि का अधिग्रहण,ब्रितानिया जुल्मों सितम् की याद दिलाता है।किसानों का कोई पुरसा हाल नहीं है,आम जन मॅंहगाई के बोझ तले कराह रहा है।भारत के वर्तमान कृषि मंत्री सत्ता मद में चूर हो कर,बार-बार कालाबाजारियों को शह देने वाले गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य देकर हिन्दुस्तान की रियाया का मजाक उड़ा रहें हैं।किसानों के हितों,आम जनता के हितों के बजाए कृषि मंत्री मिल मालिकों व जमाखोरों को प्रोत्साहन देने का जन विरोधी कार्य करने में मशगूल हैं।आज किसान बेबस होकर,अपनी शक्ति से आन्दोलन की राह पर खड़ा है।भूमि अधिग्रहण,चकबन्दी,नहर कटान,बाढ़ की विभिषिका,नकली खाद,बीजों की कमी,कृषि लागत में वृद्धि,शैक्षिक स्थिति,स्वास्थ्य-परक समस्याओं से जूझ रहा किसान आज ठगा जा रहा है।दुर्भाग्य वश किसानों का नेतृत्व भी किसानों की शक्ति के बल पर,इनको संगठित करके,अपनी राजनैतिक हैसियत,आर्थिक मजबूती बनाने में लगा रहता है।अधिकारों की बहाली व प्राप्ति के संघर्ष के स्थान पर समझौतों की परिपाटी डाल रखी है,किसानों के इन रहनुमाओं ने।किसान वर्षों से अपनी समस्याओं से जूझ रहा है और राजनीति व नौकरशाही के गठजोड़ में किसानों का शोषण अनवरत् जारी है।

कृषि आधरित भारत की संरचना,महात्मा गाँधी के ग्राम्य स्वराज्य की अवधारणा,आज हमारे हुक्मरानों की अनियंत्रित और जनविरोधी विकास की भेंट चढ़ रहीं हैं।आज किसानों के द्वारा ‘‘सरदार’’ की उपाधि से विभूषित वल्लभ भाई पटेल को अपना आदर्श मानने वालों को किसानों के हित की लड़ाई में अपना सर्वस्व द।ाव पर लगा देना चाहिए। सरदार वल्लभ भाई पटेल को सच्ची श्रद्धाजंली होगी-किसानों की कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण का बन्द होना।युग दृष्टा सरदार भगत सिंह ने कहा था,-‘‘वास्तविक क्रांतिकारी सेनायें तो गाँव और कारखानों में हैं।

आज भी अन्नदाता किसान बेहाल है,किसान हित का दावा करने वाले सभी लोगों को एकजुट होकर बुनियादी जरूरतों के लिए लड़ना चाहिए यही सच्ची श्रद्धाजंलि होगी सरदार वल्लभ भाई पटेल को।

Friday, October 29, 2010

प्रयास

धरोहरों कों सजोंने का,

शहीदों को नमन का ।

राष्टप्रेम को जगाने का,

गौरव को बताने का ।

आत्मबल को बढ़ाने का,

गुलामी से मुक्ति पाने का ।

जनचेतना को जगाने का,

समृद्ध राष्ट बनाने का ।

मानवता को बचाने का,

परचम फिर लहराने का ।

अभी तो अधूरा संकल्प है ।

प्रेरणा मिलेगी ,

कैसे ? कब ? कहाँ ?

आदर्श बचे ,

कहाँ ?

ढूढ़ता हूँ भीड़ में,

शायद मिल जाये भीड़ में ।

और यहाँ भीड़ ,

समूह है भेड़ों का ।

चरवाहे हैं वही,

नेता,अपराधी व नौकरशाह ।

जो ये कहें,करते रहो,

चुपचाप जीते हुए मरते रहो ।

चुप रहो,शान्त रहो,

शान्ति ही जीवन है ।

पर क्या यह सत्य है ?

अभी तो अधूरा संकल्प है ।।।।

हमें जगाती चिड़िया

चीं-चीं-चीं चिड़िया करती,
मेरे घर में वो रहती है।
रोज सुबह वह शोर मचाती,
हमको बिस्तर से है उठाती।
चीं-चीं-चीं करती जाती,
भोर हुई उठ कहती जाती।
जब तक हम उठ न जाते,
चीं-चीं-चीं करती जाती।
उठ कर बिस्तर से जैसे ही,
दरवाजों के पट खोलें हम।
नील गगन में उड़ जाती है।
हमसे कहती अब तुम भी,
झट से विद्यालय जाओं न।
पढ़ना-लिखना जाओ सीखों,
समय व्यर्थ गवाओं न।
चीं-चीं-चीं करती चिड़िया ,
प्रतिदिन हमें उठाती है।
अच्छी चिडिया सुन्दर चिडिया,
हमें राह दिखाती है

Thursday, October 28, 2010

पंचायती चुनाव-लोकतन्त्र या भीड़तन्त्र

उ0प्र0 में पंचायती चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं।चार चरणों में सम्पन्न हुए पंचायती चुनावों ने लोकतन्त्र के वर्तमान स्वरूप को ही कठघरे में खडा कर दिया है।चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित चुनाव आचार संहिता की प्रतिक्षण धज्जियां उडाते हुए तमाम प्रत्याशियों ने अपनी पूॅंजी एवं शक्ति के दम-खम पर ईमानदार-कर्मठ व नेक प्रवृत्ति के सामाजिक सोच रखने वाले प्रत्याशियों को प्रारम्भिक दौर में ही नेपथ्य में धकेल दिया था।निरंकुश,धनमद व शक्तिमद में चूर तमाम प्रत्याशियों ने पंचायत चुनाव में जनप्रतिनिधि निर्वाचित होने के लिए कोई भी अनैतिक रास्ता छोडा नही।प्रलोभन का रास्ता विफल हो जाने पर विपक्षी की हत्या जैसा जघन्य कृत्य भी उ0प्र0 पंचायत चुनाव में घटित हुआ।प्रत्याशी की हत्या में शामिल नामजद आरोपी पंचायत चुनाव में प्रत्याशी बने रहे,यह स्वच्छ व निर्भीक मतदान कराने की चुनाव आयोग की घोषणा का मजाक व माखौल नहीं है तो आखिर है क्या?

जनता का प्रतिनिधि बनने के लिए व्यावसायिक व आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों ने विगत 3-4 महीने बहुत ही मशक्कत की है।जिन्होंने कभी भी किसी भूखे को नही खिलाया न ही किसी प्यासे को कभी पानी पिलाया,वही लोग पंचायती चुनाव में विभिन्न पदों पर निर्वाचित होने के लिए दावतों का आयोजन प्रतिदिन करते रहे।शराब की रिकार्ड तोड बिक्री चुनाव में शराब के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल का प्रत्यक्ष प्रमाण है।उपहार के रूप में साड़ी,कपड़ा के साथ-साथ नकदी ने मतदाताओं के आंखों पर व्यक्तिगत स्वार्थ व धनलोलुपता की पट्टी बांध दी थी।

चुनाव आचार संहिता का माखौल उडाते हुए पूॅंजी के दम पर चुनाव लड़ रहे आपराधिक व गैर सामाजिक प्रवृत्ति के प्रत्याशियों ने शराब बांट कर व शराब पिला कर मतदाताओं का समर्थन जुटाने व मत हासिल करने पर ज्यादा जोर दिया।यह अनैतिक तरीका काफी असरदायक व फायदेमंद साबित हुआ।इस अनैतिक कृत्य के खिलाफ गिने-चुने ईमानदार सामाजिक प्रत्याशियों ने जनता के बीच आवाज उठानी प्रारम्भ की।जनता के एक बडे तबके का रूझान भी शराब-खेरी के खिलाफ बनना प्रारम्भ हुआ।बहुतायत में मतदाताओं ने शराबखोरी व पैसा वितरण जैसा घृणित अनैतिक काम करने वालों को चुनावों में शिकस्त देने के लिए ईमानदार व सशक्त प्रत्याशी की तलाश भी प्रारम्भ की।इन परिस्थितियों को भंापकर व्यावसायिक क्षेत्र के तमाम प्रत्याशियों ने भी सामाजिक-राजनैतिक ईमानदार प्रत्याशियों के वक्तव्यों को दोहराना व जनता के बीच कहना शुरू कर दिया।साथ ही साथ उन्होने एक कुशल व्यावसायी की भांति अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए शराब पिलाने में पैसा न खर्च करके जगह-जगह हैण्डपम्प लगवाने,मरम्मत करवाने,मंदिर-मस्जिद का सौन्दर्यीकरण करवाने,क्षेत्र के बीमार लोगों को आर्थिक सहायता करने,क्षेत्र के मृत व्यक्तियों के अंत्येष्टि संस्कार में शामिल होकर आर्थिक सहायता करना आदि जैसा आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन का काम मरना प्रारम्भ किया।क्षेत्र की एक आबादी पैसे की ताकत पर शराब,साड़ी व नकदी के जरिए बहक गई तथा धार्मिक व व्यक्तिगत लाभ के दृष्टिकोण से तमाम मतदाता व्यावसायिक प्रत्याशियों की तरफ चले गये।मतदाताओं का बड़ा तबका जातिवाद में फंसा रहा।जातिवाद,तात्कालिक लाभ,शराबखोरी,धार्मिक उन्माद,प्रलोभन व आतंक के जाल में फंस कर आदर्श चुनाव संहिता ने दम तोड़ दिया और तमाम शिकायतों व प्रत्यक्ष प्रमाणों के पश्चात भी चुनाव आयोग मौन रहा।

सामाजिक-राजनैतिक आचरण को नकारते हुए चुनाव जीतने की लालसा में जिस प्रकार का आचरण बहुतायत में प्रत्याशियों ने किया और उनके अनैतिक आचरण के प्रभाव में आकर जाति-धर्म के फेर में पड़कर,धन वितरण,शराब खोरी,व्यक्तिगत तात्कालिक लाभ के फेर में पड़कर जो समर्थन व मत देने नहीं अपितु बेचने का कार्य जाने-अनजाने मतदाताओं ने किया है,उसका परिणाम मतगणना के पूर्व ही सामने आ चुका है।सामाजिक-राजनैतिक चरित्र के प्रत्याशियों की बहुतायत में हार व धनवान,व्यावसायिक व आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की जीत सुनिश्चित मानी जा रही है। सम्पन्न हुए पंचायती चुनाव ने सही अर्थों में साबित कर दिया है कि लोकतनत्र अब भीड़तन्त्र में बदल गया,जहां आदर्श-शुचिता-सदाचरण-ईमानदारी-नेकी जैसी बातें बेमानी हैं।

पंचायती चुनाव-जनप्रतिनिधि चयन के आधार
अरविन्द विद्रोही

उत्तर-प्रदेश में पंचायती राज चुनाव में नामांकन प्रक्रिया समाप्त हो चुकी है।समस्त पदों ग्राम्य प्रधान,ग्राम्य पंचायत सदस्य,क्षेत्र पंचायत सदस्य तथा जिला पंचायत सदस्य के सभी दावेदार सामने आ चुके हैं।समाज के प्राथमिक स्तर को,ग्राम्य विकास के प्रारम्भिक,प्रत्यक्ष व आघारभूत आधार को मजबूत करने का उत्तर-दायित्व इन पदों पर होता है।इन पदांे के लिए जनता के सम्मुख अपना प्रतिनिधि चयनित करने का अवसर पुनःआ गया है।आज इस निर्वाचन की बेला में प्रत्याशी गण वायदों की पोटली खोले घूमना प्रारम्भ कर चुके हैं।ऐन-केन प्रकारेण मतदाताओं को अपने-अपने पाले में करके विजयश्री प्राप्त करने की फिराक में सभी प्रत्याशी गण लगे हैं।मतदाता को क्या करना चाहिए?इन प्रत्याशियों में से किस प्रकार मतदाता योग्य प्रतिनिधि निर्वाचित करे,यह प्रश्न उठना लाजिमी है।

मतदाता अपना जनप्रतिनिधि चयनित करने के लिए जातिवाद,सम्प्रदायवाद,क्षेत्रवाद,शराब-खोरी,धनलिप्सा,गुण्ड़ागर्दी आदि तरीकों के बीच अपना जनप्रतिनिधि चुनता है।दुर्भाग्य-वश मतदाता इन्हीं में से किसी तरीके के प्रभाव में आकर मतदान कर देता है।मतदान के पूर्व मतदाता को जनप्रतिनिधि चयनित करने के लिए पूर्वाग्रहों व वादों से विरत् होकर चयन के आधार बनाना चाहिए।यैसे प्रत्याशियों को मत देना सर्वथा उचित होगा जो कि सामाजिक,सांस्कारिक,मिलनसार,योग्य,कर्मठ,निर्भीक हो।जनता के प्रति,सममानित मतदाता के प्रति,समाज व राष्ट के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझने वाले प्रत्याशी को अपना मत देना चाहिए।जनता व समाज के प्रति जवाबदेही योग्य जनप्रतिनिधि चयन का मूल आधार होना चाहिए।यैसा प्रत्याशी जो व्यक्तिगत,सार्वजनिक,राजनैतिक जीवन में ईमानदार व सह्दय हो-वही जनता के अमूल्य मत का पात्र है।

जिस प्रकार वर्षा ऋतु में तमाम खर-पतवार,जंगली,अनुपयोगी पौधे उग आते हैं,ठीक उसी प्रकार विकास के धन के लुटेरे भी चुनाव लड़ने की बेला में जनता के बीच हाथ जोड़ कर अपना मिथ्या जाल फैला कर,जनता-मतदाता को फंसाकर अमूल्य मत को लूटने आ जाते हैं।एैसे तमाम लोग जो कभी भी समाज में लोगों से,पास-पड़ोस के निवासियों से दुःख-सुख में मिलना गवारा नहीं समझते हैं,अपने व्यवसाय में व्यस्त रहते हैं,ग्राम्य विकास विभाग में व पंचायती राज विभाग में विकास के लिए आवण्टित अथाह-प्रचुर धनराशि के लालच में पेशेवर तरीकें से जनप्रतिनिधि बनने के लिए चुनावी समर के योद्धा बन जाते हैं।वर्चस्व बरकरार रखने,बढ़ाने व विकास का धन लूटने के फेर में प्रतिद्वन्दी प्रत्याशी की हत्या तक से गुरेज बाहुबली व धनमद में चूर लोग नहीं करते हैं।मतदाता ही किसी भी प्रत्याशी का भाग्य-विधाता होता है।मतदाताओं को एैसे प्रत्याशियों को नकार देना चाहिए जो कि सिर्फ चुनावी बेला में सामाजिक जीवन में आयें हों।गुण्ड़ों,अपराधियों,उनके संरक्षण दाताओं व सहयोगियों को किसी भी कीमत या दबाव में अपना मत व समर्थन नहीं देना चाहिए।मतदाता का मत व समर्थन इन असामाजिक तत्वों को और मजबूती प्रदान करता है।बहुत से प्रत्याशी चुनाव लड़ने के दौरान माॅंस व मदिरा के ही सहारे चुनावी वैतरणी पार करने में लगे रहते हैं,इनको सिरे से नकारना अपने स्वयं के लिए,अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए सबके हित में है।सत्तामद में चूर गैर-जिम्मेदार,पूॅंजीवादी विचारों के वाहकों,विकास का धन लूटने वाले तथा विकास का धन लूटने का इरादा रखते हुए आज चुनाव प्रचार के दौरान मतदाताओं पर धन लुटाने वालों को नकार देना श्रेयस्कर व लोकतन्त्र के रक्षार्थ कार्य होगा।फर्जी व बोगस मतदाताओं के सहारे जनप्रतिनिधि बनने की कोशिश करने वालों का चुनाव में किसी भी प्रकार से सहयोग नहीं करना चाहिए।
पंचायती चुनाव-प्रत्याशी व मतदाता
अरविन्द विद्रोही

उ0प्र0 में पंचायत राज चुनाव की अधिसूचना जारी होने,आदर्श आचार चुनाव संहिता लागू होने के बाद चुनाव की सरगर्मी व प्रत्याशियों के करतब दिन दूना रात चैगुना बढ़ गये हैं।ऐन केन प्रकारेण पंचायत चुनाव में प्रतिनिधि निर्वाचित होने के लिए तमाम पदों के प्रत्याशी राजनैतिक दांव पेंच खेलने व बनाने में मशगूल हैं।जातीय आंकडे,जातीय नेताओं का आर्शीवाद,धन-बल,बाहुबल,सत्ता की धमक जैसे विभिन्न अस्त्रों-शस्त्रों से लैस प्रत्याशी गण अब मतदाताओं को अपना शिकार बनाने में जुट गये हैं।आबकारी विभाग के सूत्रों के अनुसार मदिरा की बिक्री में गुणोत्तर वृद्धि का एक मात्र कारण उ0प्र0 में पंचायती राज चुनाव है।

आखिर पंचायत चुनाव क्यों होते हैं?प्रत्याशी चुनाव में क्यों खडे़ हैं?प्रत्याशियों के चुनाव में खडे़ होने का कारण क्या है?प्रत्याशी की सोच क्या है?मतदाता प्रत्याशी चयन में क्या सोचता है?यह सवाल मेरे समझ से परे होते जा रहा है।राजनीति एक समय समाज-सेवा का माध्यम होती थी।राजनैतिक-सामाजिक व्यक्ति किसी विचार धारा का समर्पित कार्यकर्ता होता था।विचारधारा आधारित राजनीति कब व्यक्तित्व आधारित राजनीति में तब्दील हो गई,पता ही नहीं चला।विचार धारा व सिद्धान्त के अनुयायियों का स्थान व्यक्ति विशेष की चरण वन्दना-स्तुति गान करने वाले चाटुकारों ने ले लिया।व्यक्ति आधारित राजनीति के कारण ही आज राजनैतिक-सामाजिक मूल्य बिखर से गये हैं।भारतीय प्रजातांत्रिक राजनीति आज स्याह और संकीर्ण हो चुकी है।बाल गंगाधर तिलक,वीर सावरकर,करतार सिंह सराभा,अशफाक उल्लाह खान,भगत सिंह,शचीन्द्र नाथ सान्याल,महात्मा गाॅंधी,नेता जी सुभाष चन्द्र बोस,डा0भीमराव अम्बेडकर,डा0राममनोहर लोहिया,जय प्रकाश नारायण,संत विनोबा भावे,आचार्य नरेन्द्र देव,चैधरी चरण सिंह आदि महान विभूतियों की विचारधारा आधारित राजनीति व देश के प्रति अनूठा समर्पण तथा त्याग की भावना से मानों कोई प्रेरणा लेना ही नहीं चाहता।

आज राजनीति गुण्ड़ों,अपराधियों,भ्रष्टाचारियों,अवसरवादियों की पनाहगाह बन चुकी है।राजनैतिक-सामाजिक मूल्यों की गिरावट ने राजनीति में भी चरित्र पर विपरीत प्रभाव डाला है।विकास के लिए आवण्टित प्रचुर मात्रा में धन की उपलब्धता ने राजनीति में लुटेरों के प्रवेश हेतु आकर्षण पैदा किया है।यह लुटेरे जनता का विश्वास रूपी मत लूटने के लिए चुनावों में अपने धन-बल का प्रयोग करते हुए शराब की दरिया बहाकर,साड़ी कपड़ा आदि वितरित करके,नगद-नारायण भेंट करके जनप्रतिनिधि बनने का प्रयास करते हैं।जातीय राजनीति के माहिर प्रत्याशी अपना जातीय वैमन्यसता का जहर समाज में उगल कर जनप्रतिनिधि बनने की फिराक में लगे रहते हैं।बाहुबली अपने दमखम पर सवार होकर मतदाताओं पर भय का साम्राज्य स्थापित करते हुए नाना प्रकार के तिकडम की रचना करते हुए जनता का प्रतिनिधि बनने की फिराक में लगा रहता है।इन स्वार्थी तत्वों के बीच समाज में अच्छी सोच रखने वाला प्रत्याशी कहीं टिक ही नहीं पाता।मतदाता उस मजबूत विचारों वाले प्रत्याशी की सामाजिक सोच,सामाजिक पकड़,ईमानदारी,कर्मठता को नजरअंदाज करके उसको कमजोर प्रत्याशी घोषित कर देता है तथा साधन संपन्न,धन को चुनाव में लुटाने वाले प्रत्याशियों,जातीय विषमता का जहर घोल कर चुनावी वैतरणी पार लगाने के फिराक में लगे रहने वाले प्रत्याशियों को प्रबल दावेदार मान बैठता है।चुनाव में धन को लुटाने वाले प्रत्याशी जनता की मेहनत की कमाई से दिये गये राजस्व से बने विकास के लिए आवण्टित धन को निःसन्देह लुटेगा,यह साधारण सी सामान्य ज्ञान की बात जानते हुए भी मतदाता स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारता है।

पंचायती चुनाव का मकसद ग्राम्य स्तर पर विकास को सुचारू रूप से क्रियान्वयन पर जनता के प्रतिनिधि का,अपने चैकीदार का निर्वाचन करता है।आज पंचायती चुनाव में मतदाता अगर धन लुटाने वाले को निर्वाचित करती है तो आज धन को लुटा करके चुनाव जीतने वाला उस खर्च किये गये धन की भरपाई विकास के लिए आवण्टित धनराशि की लूट व बन्दरबाॅंट से ही तो करेगा।पंचायती चुनाव में क्षेत्र पंचायत सदस्य और जिला पंचायत सदस्य के पद पर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों का मकसद आज चुनाव जीतने के बाद क्षेत्र पंचायत प्रमुख व जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव में अपना मत देने के बदले सौदेबाजी करना हो गया है।ग्राम्य पंचायत सदस्य पद प्रधान के साथ मिलकर कुछ थोडा बहुत पा लेने का जरिया मात्र बन चुका है।प्रधान पद के प्रत्याशी गण यह बता ही नहीं पाते कि उनके पास गाॅंव के विकास की क्या योजना है।दुर्भाग्य वश सारे पदों के अधिकतर प्रत्याशी अपने-अपने तरीकों से जनता का विश्वास रूपी मत लूटने के लिए कमर कस करके चुनावी मैदान में आ चुके हैं,देखिये अभी क्या-क्या गुल खिलता है……………….

पंचायती चुनाव-लूट का जरिया बनी राजनीति

उ0प्र0 में पंचायती चुनाव की रणभेरी बज चुकी है।चुनावी महाभारत में तमाम योद्धा अपना दम-खम दिखाने के लिए उतरने का ऐलान कर चुके हैं।पंचायती चुनाव में ग्राम पंचायत सदस्य,ग्राम प्रधान,क्षेत्र पंचायत सदस्य तथा जिला पंचायत सदस्य का चुनाव एक साथ करने का मौका मतदाताओं के सम्मुख आ गया है।आज मतदाता के सम्मुख पुनःअपना पंचायत प्रतिनिधि निर्वाचित करने का अवसर आन पड़ा है।दुर्भाग्य वश चुनावों में भारी तादात् में ऐसे लोग निर्वाचित होते हैं जिनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं होता है।राजनीति समाजसेवा का माध्यम न रहकर व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति एवं विकास के धन की लूट करने का जरिया बन चुकी है।आसन्न पंचायती चुनावों में सर्वाधिक दिलचस्प व खर्चीला चुनाव प्रधान पद पर हो रहा है।ग्राम्य विकास विभाग में विकास के लिए आवण्टित धनराशि को आहरित करने का अधिकार ग्राम प्रधान को प्राप्त है।इसी विकास के धन की लूट करने के मकसद से प्रधान पद के अधिकांश प्रत्याशी मतदाताओं को ठगने के फेर में धन को आज चुनाव प्रचार के दौरान लुटा रहें हैं।ढ़ाबे,रेस्टोरेण्ट,शराब की दुकाने,बीयर शाप,पान,चाय की दुकानों सभी जगह प्रधान पद के प्रत्याशी गण मतदाताओं को अपने पाले में करने के लिए अपने दामाद की भांति सेवा करने में लगे हैं।

भ्रष्टाचार वह दानव है जो समाज,देश व आम आदमी को शनैःशनैः निगलता जा रहा है।लोकतंत्र का स्वरूप भीड़तंत्र में बदल चुका है।पैसा,भीड़ और बाहुबल ने सार्थक सोच व ईमानदार व्यक्तित्व के लोगों के जनप्रतिनिधि निर्वाचित होने पर पूर्ण विराम लगा दिया है।फिर भी समाज को सही आईना दिखने,जनता को चेताने,उचित सलाह देने के ध्येय से यह विचार मन में आया कि कुछ सवालात प्रधान पद के प्रत्याशियों से पूछा जाना चाहिए।जनता को पूछना होगा कि आप आखिर कार चुनाव क्यों लड़ रहें हैं?चुनाव में ग्राम्य स्तर पर विकास कार्यों की प्राथमिकताओं का ब्यौरा प्रधान प्रत्याशियों से मांगना सर्वथा उचित होगा।यह ब्यौरा लिखित ही होना चाहिए।गांव में गरीब और विभिन्न सरकारी कल्याण कारी योजनाओं के पात्र लोगों को आवास आवण्टन,राशन वितरण से लेकर समस्त योजनाओं के क्रियान्वयन कैसे करने की योजना प्रधान प्रत्याशी की है,यह प्रश्न प्रत्याशी से पूछने से प्रधान पद प्रत्याशी की योग्यता और कार्य क्षमता हमारे सामने आ जायेगी।स्थानीय विषयों पर सवालात का जवाब दे सकने वाला प्रत्याशी निःसन्देह योग्य होगा।अगर योग्य,जानकार व्यक्ति प्रधान पद पर निर्वाचित होगा तो वह किसी की कठपुतली नहीं होगा तथा जन दबाव के कारण वह विकास के धन की लूट,कमीशन खोरी व पक्षपात पूर्ण व्यवहार में नही पड़ेगा।दरअसल अभी मतदाता भी बुनियादी सवालातों के स्थान पर जातीय समीकरण तथा फौरी लाभ,व्यक्तिगत राग-द्वेष को ध्यान में रखकर मतदान करते हैं।जब तक ग्राम्य विकास के दृढ़ संकल्प वाले,नेक इरादे रखने वाले,ईमानदार,जानकार व्यक्ति प्रधान पद पर निर्वाचित नहीं होंगें,विकास के धन की लूट व जनता की गाढ़ी कमाई का बन्दर-बांट होता रहेगा।

अधिकांश सीटों पर वर्तमान प्रधान स्वयं चुनाव लड़ रहें हैं या किसी को प्रत्यक्षतःचुनाव लड़वा रहे हैं।वर्तमान प्रधानों से जनता को पूछना चाहिए कि आप को हम दोबारा आखिर क्यों अपना मत देकर प्रधान निर्वाचित करें?हमने पिछले पंचायती चुनाव में अपना मत आपको दिया,अपने परिवार को समझाया,पूरे परिवार ने आपको अपना मत दिया।आपके वायदों से प्रभावित होकर,इस उम्मीद के साथ कि आप अपने-हमारे इस गांव के सर्वांगीण विकास को पूर्ण मनोयोग से करेंगें,हमने आपके समर्थन में प्रचार कर के मत भी मांगें।कुछ परिचित जो दूसरे प्रत्याशियों को चुनाव लड़वा रहे थे,वो नाराज भी हुए।लेकिन पूरे मनोयोग से हमने आपकी मदद की।आप हमारे क्षेत्र से ही भारी मत पाकर पिछले चुनाव में प्रधान पद पर निर्वाचित हुए,लेकिन आपने जो जो कारनामें अपने कार्यकाल में किया वो आशा,विश्वास व वायदों के बिल्कुल विपरीत था।आपने गांव की आबादी की सड़को का निर्माण न कराकर अपने खेत जाने के मार्ग को बनवा डाला।अपनी दुकानों तक जाने का मार्ग तथा नई बस रही आबादी यानि नई प्लाटिंग क्षेत्र में सड़क,नाली का निर्माण करवाया।गांव में बगैर सड़क निर्माण कराये आपके द्वारा घटिया सामग्री से नालियां बनवा दी गईं।अब रास्ते पर पानी भरा रहता है क्योंकि नालियां टूट चुकी हैं तथा सफाई कर्मी सिर्फ आपके निवास की सफाई को ही अपनी ड्यूटी मानते हैं।पूरे गांव में व्याप्त गन्दगी की सफाई करने में न तो सफाई कर्मी की न तो रूचि है और न आपको प्रधान पद का कत्र्तवय बोध ग्राम्य समाज की भूमि का कोई पुरसाहाल नहीं है।एक धारणा है कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं,वह भी आपने अपने कदाचरण से मिथ्या साबित कर दिया है।गांव के प्राथमिक विद्यालय के निर्माण से लेकर नौनिहालों के लिए बनी मध्यान्ह भोजन योजना तक में आपने शिक्षक से मिलीभगत करके धनराशि डकार ली।आपने अपने ही गांव के गरीब बच्चों के मुहँ का निवाला तक खा लिया और आपको अपने इस घृणित कृत्य पर तनिक भी शर्म न आई।समस्त योजनाओं में सरकारी कर्मचारियों के साथ मिल कर आपने अपना आर्थिक विकास करने के सिवाय कुछ किया हो तो बताइये?

दरअसल अपने कर्मों के कारण प्रधान यह जानते हैं कि गांव की जनता का विश्वास उन से उठ चुका है।जनता का मन भांप चुके प्रधान ने गांव की मतदाता सूची में सैकड़ों फर्जी नाम बढ़वा लिए।यह सर्वविदित है कि ज्यादातर बढ़े हुए मतदाता गांव के निवासी ही नहीं हैं।प्रधान ने आस-पास रहने वाले रिश्तेदारों,जानने वालों,भाई,बान्धवों के सहकर्मियों के सपरिवार नाम गांव की मतदाता सूची में बढवा कर यह सुनिश्चित कर लिया है कि गांव की आम जनता अपना मत दे या न दे,अपने द्वारा बढ़वाये हुए फर्जी मतदाताओं के ही मतों से हम दोबारा चुनाव जीत लेंगें।

वास्तव में ये सारे प्रश्न,संवाद,चित्रण यथार्थ हैं-आज की पंचायती चुनाव की कुव्यवस्था का।आज लोकतंत्र भीड़तंत्र में तब्दील होकर भ्रष्टाचारियों का सबसे बड़ा आश्रय गृह बन चुका है।यह जनता ही है जो अपने अधिकारों की बहाली के लिए जागरूक हो कर,अपने मत का प्रयोग योग्य प्रतिनिधि चुन कर इन नाकारा व समाज द्रोही भ्रष्ट लोगों को रोक सकती है।

Wednesday, October 27, 2010

गणेश शंकर विद्यार्थी

अरविन्द विद्रोही

हिन्दी की राष्टीय पत्रकारिता के जनक गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्तूबर,1890 को अपनी ननिहाल अतरसुइया-इलाहाबाद,उ0प्र0 में हुआ था।आपके पिता श्री जयनारायण ग्वालियर रियासत में शिक्षक थे।विद्यार्थी जी की प्रारम्भिक शिक्षा मुंगावली व विदिशा में हुई।मिडिल पास करने के पश्चात विद्यार्थी जी कानपुर काम करने के उद्देश्य से आ गये।उनके चाचा शिवव्रत नारायण ने पढ़ाई करने के लिए समझाया।चाचा के समझाने पर वे पुनः विदिशा लौटे और मैटिक की परीक्षा 1907 में व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में उत्तीर्ण की।आगे की पढ़ाई कायस्थ पाठशाला इलाहाबाद में की।विदिशा में आपने ‘‘हमारी आत्मोत्सर्गता‘‘ नामक किताब लिखी।विद्यार्थी जी की साहित्यिक प्रतिभा को प्रेरणा इलाहाबाद में पण्डित सुन्दरलाल जी से मिली।

जीविकोपार्जन के लिए विद्यार्थी जी ने कानपुर के करेंसी आफिस में नौकरी की।04जून,1909 को आपका विवाह चंद्रप्रकाशवती से हुआ।1910 तक आपने वहीं नौकरी की।फिर स्कूल में अध्यापकी,हिन्दुस्तान इन्श्योरेन्स कम्पनी में काम करके,होम्योपैथी डाक्टर के रूप में जीविका चलाई।साथ ही साथ आपकी साहित्यिक अभिरूचि निखरती रही।आपकी रचनायें सरस्वती,कर्मयोगी,स्वराज्य,हितवार्ता में छपती रहीं।आपने ‘सरस्वती‘ में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में काम किया।हिन्दी में ‘शेखचिल्ली की कहानियां’ आपकी देन है।‘‘अभ्युदय‘‘ नामक पत्र जो कि इलाहाबाद से निकलता था,से भी विद्यार्थी जी जुड़े।गणेश शंकर विद्यार्थी ने अंततोगत्वा कानपुर लौटकर ‘‘प्रताप‘‘ अखबार की शुरूआत की।‘‘प्रताप‘‘ भारत की आजादी की लड़ाई का मुख-पत्र साबित हुआ।कानपुर का साहित्य समाज ‘‘प्रताप‘‘ से जुड़ गया।क्रान्तिकारी विचारों व भारत की स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया था-प्रताप।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रेरित गणेश शंकर विद्यार्थी जंग-ए-आजादी के एक निष्ठावान सिपाही थे।महात्मा गाॅंधी उनके नेता और वे क्रान्तिकारियों के सहयोगी थे।सरदार भगत सिंह को ‘‘प्रताप‘‘ से विद्यार्थी जी ने ही जोड़ा था।विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा प्रताप में छापी,क्रान्तिकारियों के विचार व लेख प्रताप में निरन्तर छपते रहते।

गणेष शंकर विद्यार्थी का सपना उन्नत व समृद्ध आजाद भारत का था।अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए ‘‘प्रताप‘‘ को माध्यम बनाकर,निर्भीक अभिव्यक्ति के साथ-साथ विद्यार्थी जी ने काकोरी के अमर शहीद अशफ़ाक उल्ला खां व अनेको क्रान्तिकारियों की आर्थिक सहायता भी प्रदत्त की।कानपुर में मजदूरों का संगठन तैयार करने के साथ ही कवियों-लेखकों-पत्रकारों को एकजुट कर चुके विद्यार्थी जी को देशभक्ति की भावना को बलवती बनाने के अपराध में ‘‘प्रताप‘‘ पर अनवरत् छापे,पाबन्दी और बार-बार जमानत जब्त होने को झेलना पड़ा।अपने जीवन काल में पांच बार जेल गये विद्यार्थी जी ने उत्कृष्ट व निर्भीक पत्रकारिता ब्रितानिया हुकूमत के शासन में,जिन कष्टों को सहकर की होगी,उसकी कल्पना मात्र से ह्दय द्रवित हो जाता है तथा शीश इस महापुरूष के सम्मान में झुक जाता है।हिन्दी उत्थान व ग्राम्य जीवन में सुधार,महिलाओं की तरक्की,भिक्षावृत्ति-वेश्यावृत्ति की समाप्ति,देश-प्रेम की भावना का विकास,सामाजिक बुराईयों का खात्मा व सामाजिक एकता गणेश शंकर विद्यार्थी के स्वप्न थे।दुर्भाग्यवश सरदार भगत सि।ह-राजगुरू-सुखदेव के शहादत दिवस 23मार्च,1931 के तुरन्त बाद कानपुर में ब्रितानिया हुक्मरानों की साजिश के फलस्वरूप उपजे हिन्दू-मुस्लिम दंगे में 25मार्च,1931 को ही विद्यार्थी जी एक मुस्लिम परिवार की जान बचाने में अपनी जान गवां बैठे। मानवता का यह पुजारी पाशविक वक्तियों का शिकार हो गया।साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखने की अपील करते हुए बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी गणेश शंकर विद्यार्थी असमय मौत का शिकार हो गए।

महात्मा गांधी ने विद्यार्थी जी की मृत्यु पर कहा था,-"व्यर्थ नहीं जायेगा बलिदान,विद्यार्थी का खून।वह हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए सीमेण्ट का कार्य करेगा।"

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पण्ड़ित जवाहर लाल नेहरू के अनुसार,-"यदि विद्यार्थी जी थोड़े दिनों तक और जीवित रहते तो आज भारत की दूसरी ही तस्वीर होती।"

गणेश शंकर विद्यार्थी जी की शहादत को यदि चिंतन-मनन व प्रचारित-प्रसारित किया जाये तो भारत दंगा मुक्त हो जायेगा।

देश के दीमक भ्रष्टाचारियों पर कड़ी कार्यवाही हो

ग्रामीण भारत ही असली भारत है। भारत की 80 प्रतिशत आबादी ग्रामीण अंचलों में निवास करती है तथा शेष 20 प्रतिशत आबादी भी अप्रत्यक्ष रूप से ग्राम्य जीवन से जुड़ी है। कृषि आधारित भारत के ग्राम्य विकास की महती जिम्मेदारी केन्द्रीय ग्रामीण मंत्रालय एवं प्रदेश स्तर पर ग्राम्य विकास विभाग की है। एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना निचले पायदान पर खड़े नागरिक के हितों की रक्षा व पूर्ति से होती है। ग्रामीण भारत के निवासियों के अधिकारों पर खुलेआम, निर्लज्जतापूर्वक डाली जा रही डकैतियों को और अधिक बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए तमाम महत्वाकांक्षी योजनायें भारत सरकार-प्रदेश सरकार संचालित कर रहीं है ।इन योजनाओं के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी ग्राम्य विकास विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों की होती है।पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद ग्राम्य विकास विभाग में बड़ी धनराशि,ग्राम्य जीवन स्तर को उच्च स्तर पर लाने की क्रान्तिकारी योजना के तहत् आवंटित होनी प्रारम्भ हुई।यह इस धरा का दुर्भाग्य है कि यहां के खेतों की मेंड़े ही खेत को चरने लगी हैं। आज दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में हमारा 5वां स्थान है और हमारे भ्रष्ट सरकारी कर्मियों-भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों को शर्म नहीं आ रही है।

विकास कार्यों के लिए आवंटित धनराशि में बड़े पैमाने पर घोटाले की बात स्व0राजीव गाँधी -पूर्व प्रधानमंत्री से लेकर डा0 मनमोहन सिंह- प्रधानमंत्री, भारत सरकार, द्वारा स्वीकार की जा चुकी है। अभी बीते लोकसभा चुनावों में विकास के धन की लूट का मुद्दा प्रमुखता से कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गाँधी ने उठाया। परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी जनता ने जमकर कांग्रेस के प्रत्याशियों को आर्शिवाद रूपी मत देकर अपने विकास कार्यों की निगरानी के लिए,अपने हितों के रक्षार्थ अपना संसद रूपी चैकीदार चयनित करके जनहित के कार्यों को करने के लिए सर्वोच्च संस्था संसद भवन में भेजा है ।उ0प्र0 की मुखिया सुश्री मायावती ’अध्यक्ष‘बहुजन समाज पार्टी की छवि कानून व्यवस्था को नियंत्रित रखने में सफल प्रशासक के रूप में बरकरार है। मनरेगा तथा केन्द्र सरकार द्वारा स्वीकृत अन्य योजनाओं में उ0प्र0 सरकार की शिथिलता का आरोप कंाग्रेस के राहुल गांधी अक्सर लगाते रहते हैं। शायद इन्ही आरोपों को ईमानदारी पूर्वक संज्ञान में लेते हुए उ0प्र0सरकार की मुखिया सुश्री मायावती ने कड़े आदेशों को जारी किया है। विश्वस्त्र सूत्रों के अनुसार सर्वजन हिताय- सर्वजन सुखाय को चरितार्थ करने के लिए मायावती ने उच्च अधिकारियों को समस्त विभागों में शिकायतों,गडबड़ियों पर तत्काल प्रभावी कार्यवाही के आदेश दियें हैं। शासनादेशों का पालन न करने वालों को जो चेतावनी,प्रतिकूल प्रविष्टि व निलम्बन की कार्यवाही झेलनी पड़ रही है,वह उ0प्र0 की मुखिया सुश्री मायावती के भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की हनक ही है। आज मनुष्य नैतिकता-सदाचरण की बातों को बकवास मानता है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि तमाम् धर्मस्थलों पर ये भ्रष्टाचारी-पापी माथा टेकने,अपने पाप धोने की लालसा में सबसे आगे खड़े रहते हैं। ये भ्रष्ट गण मनुष्य को ही नहीं,सर्वशक्तिमान को भी अपने मिथ्या आडम्बर से छलने का दुश्प्रयास करते रहते हैं। अपनी काली कमाई से धार्मिक स्थलों के निर्माण,धार्मिक आयोजनों में धनराशि व्यय करके ये भ्रष्टाचारी अपने को समाज में श्रेष्ठतम् रूप में स्थापित करते हैं।

विकास के धन की लूट को रोकने के लिए इसे मुद्दा बना कर जितना अच्छा कार्य राहुल गाँधी ने किया और इसका फायदा भी कांग्रेस को मिला, अब विकास के धन की लूट करने वालों को चिन्हित कर दण्डित करने की कार्यवाही से उ0प्र0 सरकार की मुखिया सुश्री मायावती को भी निःसन्देह फायदा मिलेगा।आम जनता जन सुविधाओं की प्राप्ति के लिए भीख मांगती है और उसके हक की लूट करने वाले मौज करते हैं। प्रशासनिक दृढ़ता और शासन की स्पष्ट नीति से वर्तमान समय में भ्रष्टाचार में लिप्त कर्मचारी-अधिकारी-जनप्रतिनिधि बौखला गयें हैं। कत्र्तव्य पालन करने में नाकाम – नाकारा व्यक्तियों का यह समूह नाना प्रकार के बहाने पेश कर रहा है। इनके भ्रमजाल व दबाव में आये बगैर प्रशासन-शासन को जनहित-राष्ट्हित के इस क्रान्तिकारी निर्णय को जारी रखना चाहिए। बेरोजगार,ईमानदार नवयुवकों की भारी संख्या इन भ्रष्ट कर्मियों के स्थान पर दायित्व निभाने के लिए तैयार खड़ी है।

भारतीय ग्राम्य व्यवस्था अरविन्द विद्रोही

राष्ट का गौरवशाली,समृद्धशाली इतिहास राष्ट के निवासियों को उर्जा प्रदान करता है।अनेकानेक कारणों से जनता राष्ट गौरव की गाथाओं,समृद्धशाली इतिहास,बलिदान गाथाओं और विभिन्न कालों में रहे सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की जानकारी से दूर होती जाती है।साहित्य ही वह माध्यम होता है जो जनता को समाज के सम्पूर्ण इतिहास-रूप से जोडता है।साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है।समाज की सोच क्या है,यह साहित्य से ही परिलक्षित होता है।

‘‘वसुधैव कुटुम्बकम‘‘ की भावना को आत्मसात करे हमारी मातृभूमि भारत वर्ष की संरचना ग्राम्य आधारित है।कृषि आधारित हमारा देश मुगलों-अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के पश्चात् लोकतान्त्रिक गणराज्य के रूप में एक पंथनिरपेक्ष राष्ट के रूप में स्थापित है।सरकारों का कत्र्तव्य जनहित की कल्याणकारी योजनाओं का निर्धारण और क्रियान्वयन करना है और हमारा कत्र्तव्य निश्चय ही इन जन कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में सहयोग करना और निगरानी रखना।आजाद भारत की सबसे बडी समस्या भ्रष्टाचार है।कोई भी क्षेत्र इस भ्रष्टाचार रूपी दानव के पंजे से बचा नहीं है।योजनाओं के लिए आवंटित धनराशि का नेता-अपराधी-नौकरशाह मिलकर एक समूह के रूप में बंदरबांट करते हैं और आम जन कोसने के अलावा कुछ नहीं कर पाता है।फिर भी राष्ट को समृद्ध बनाने के लिए राष्ट के उन्नति के बारे में मनन व प्रयास करने वाले मतवालों का संघर्ष जारी रहता है और जारी है।

भारतीय ग्राम्य समाज का स्वरूप तमाम राजनैतिक परिवर्तनों,युद्धों,विदेशी आक्रमण को झेलते हुए भी कमोबेश वही बना रहा है।भारत की आत्मनिर्भर ग्राम्य समाज व्यवस्था के बारे में 1835 में भारत के गवर्नर रहे सर चाल्र्स मेटकाफ के अनुसारःग्राम समाज छोटे-छोटे गणतंत्र हैं।अपनी जरूरत की सारी चीजें इन्हें अपने यहां प्राप्त हैं और विदेशी सम्बन्धों से ये मुक्त हैं।जहां कुछ भी स्थायी नहीं,वहां ये जैसे अकेले अमर हैं।राजकुल लुढ़कते रहे,का्रंतियां होती रहीं,हिंदू,पठान,मुगल,मराठा,सिख,अंग्रेज क्रमशःमालिक बनते रहे,लेकिन ग्राम समाज यथापूर्व बने रहे।

माक्र्स ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ पूंजी में भारत की ग्राम्य व्यवस्था के बारे में लिखाःहिन्दुस्तान के वे छोटे-छोटे तथा अत्यन्त प्राचीन ग्राम समुदाय अर्थात समाज,जिनमें से कुछ आज तक कायम हैं,जमीन पर सामूहिक स्वामित्व,खेती तथा दस्तकारी के मिलाप और एक एैसे श्रम विभाजन पर आधारित हैं जो कभी नहीं बदलता,और जो जब कभी एक नया ग्राम्य समुदाय आरम्भ किया जाता है तो पहले से बनी बनाई और तैयार योजना के रूप में काम आता है।सौ से लेकर कई हजार एकड़ तक के रकबे में फैले हुए इन ग्राम-समुदायों में से प्रत्येक एक गठी हुई इकाई होती है जो अपनी जरूरत की सभी चीजें पैदा कर लेती हैं।पैदावार का मुख्य भाग सीधे तौर पर समुदाय के ही उपयोग में आता है और वह माल का रूप् धारण नहीं करता।इसलिए यहां पर उत्पादन उस श्रम विभाजन से स्वतंत्र होता है जो माल के विनिमय ने मोटे तौर पर पूरे हिन्दुस्तानी समाज में चालू कर दिया है।केवल अतिरिक्त उत्पादन ही माल बनता है और यहां तक की उसका भी एक हिस्सा उस वक्त तक माल नहीं बनता जब तक वह राज्य के हाथों में नहीं पहुंच जाता।अत्यन्त प्राचीन काल से ही यह रीति चली आ रही है कि इस उत्पादन का एक निश्चित भाग सदा जिंस की शक्ल में दिए जाने वाले लगान के तौर पर राज्य के पास पहुॅंच जाता है।हिन्दुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में इन समुदायों का विधान अर्थात गठन अलग-अलग ढ़ंग का है।जिनका सबसे सरल विधान है,उन समुदायों में जमीन को सब मिलाकर जोतते हैं,और पैदावार सदस्यों के बीच बांट ली जाती है।इसके साथ-साथ हर कुटुम्ब में सहायक धंधों के रूप में कताई और बुनाई होती है।इस प्रकार,उन आम लोगों के साथ-साथ,जो सदा एक ही प्रकार के काम में लगे रहते हैं,एक मुखिया होता है जो जज,पुलिस और वसूलदार का काम एक साथ करता है।एक पटवारी होता है जो खेतीबारी का हिसाब रखता है और उसके बारे में हर बात अपने कागजों में दर्ज करता है।एक और कर्मचारी होता है जो अपराधियों पर मुकद्मा चलाता है,अजनबी मुसाफिरों की हिफाजत करता है और उनको अगले गाॅंव तक सकुशल पहुॅंचा जाता है।एक पहरेदार होता है जो पड़ोस के समुदायों से सरहद की रक्षा करता है,आबपाशी का हकीम होता है जो सिंचाई के लिए पंचायती तालाबों से पानी बांटता है,ब्राह्मण होता है जो बच्चों को बालू पर लिखना-पढ़ना सिखाता है,पंचाग वाला ब्राह्मण या ज्योतिषी होता है जो बुआई,कटाई और खेत के अन्य काम के लिए मुहूर्त विचारता है।एक लोहार और एक बढ़ई होते हैं जो खेती के तमाम औजार बनाते हैं और उनकी मरम्मत करते हैं,कुम्हार होता है जो सारे गांव के लिए बर्तन-भांडे तैयार करता है,नाई होता है,धोबी होता है जो कपड़े धोता है,सुनार होता है और कहीं-कहीं पर कवि भी होता है जो कुछ समुदायों में सुनार का,कुछ में पाठशाला के पंड़ित का स्थान ले लेता है।इन दर्जन व्यक्तियों की जीविका पूरे समुदाय अर्थात समाज के सहारे चलती है। अगर आबादी बढ़ जाती है तो खाली पड़ी जमीन पर पुराने समुदाय के ढ़ाचे के मुताबिक एक नये समुदाय की नींव डाल दी जाती है।पूरे ढ़ाचें से एक सुनियोजित श्रम विभाजन का प्रमाण मिलता है।इन आत्मनिर्भर ग्राम्य-समुदायों या समाजों में,जो लगातार एक ही रूप के समुदायों में पुनःप्रकट होते रहते हैं और जब अकस्मात बरबाद हो जाते हैं तो उसी स्थान और नाम से फिर खड़े हो जाते हैं,उत्पादन का संगठन बहुत ही सरल ढंग का होता है और उसकी यह सरलता ही एशियाई समाजों की अपरिवर्तनशीलता की कुंजी है,उस अपरिवर्तनशीलता की जिसके बिल्कुल विपरीत एशियाई राज्य सदा बिगड़ते और बनते रहते हैं और राजवंशों में होने वाले परिवर्तन तो मानों कभी रूकते ही नहीं।राजनीति के आकाश में जो तूफानी बादल उठते हैं,वे समाज के आर्थिक तत्वों के ढ़ाचें को नहीं छू पाते।

भारतीय ग्राम्य व्यवस्था में उद्योग धंधे और पूॅंजी का बेहतर विकास होता था।भारतीय उद्योग के महत्व को वी0एफ0कैलबर्टन ने दि अवेकनिंग आॅफ अमरीका 1939 में लिखाःतीव्र बुद्धि,सूक्ष्म योग्यता और सृजनात्मक प्रतिभा के फलस्वरूप भारतीय उद्योग पाश्चात्य देशों से अपेक्षाकृत आगे बढ़े हुए थे।शुरू की उन सदियों में,जब पाश्चात्य नौपरिवहन सर्वथा अविकसित था,भारत ने भारी बोझ ढ़ोने वाले समुद्री जहाज बनाये थे……………..वस्त्र निर्माण हिन्दुस्तान का प्रमुख उद्योग था,और यहां के सूती और रेशमी कपड़ों की सारी दुनिया में तारीफ और मांग थी।तेरहवीं,चैदहवीं और पन्द्रहवीं सदियों में धातुकार्य,प्रस्तर शिल्प,शक्कर,नील और कागज के भी उद्योग विकसित थे।कुछ भागों में काष्ठ-कर्म,मृत्तिका-पात्र और चर्मकार्य आदि उद्योग भी पल्लिवित हुए।………..देश के कई हिस्सों में रंगाई प्रमुख उद्योग था,कुछ भागों में जरी का काम और कसीदाकारी का काम पूर्णता के चरम बिंदु तक विकसित था।खानों से रांगा,पारा और कुछ हद तक लोहा निकालने और शीशे के निर्माण कार्य भी महत्वपूर्ण और विकसित उद्योग थे।बहुत सारे यात्रियों ने भारत में निर्मित लोहे और यहां के रासायनिक उद्योग की प्रशंसा की है।चीन की तरह भारत में भी चीनी मिट्टी के बर्तनों का उद्योग काफी विकसित था।गजदंत से कंगन,अंगूठी,पांसा,मनका,पलंग और अन्य अनेक चीजें बनती थी और सारी दुनिया में,खासकर यूरोप में इनकी बड़ी मांग थी।बेशकीमती पत्थरों पर किए गये काम में भी बड़ी कुशलता का परिचय मिलता है।

अंग्रेजों और अन्य यूरोपियों के भारत आने से पहले यहां उद्योगों का विकास काफी हद तक हो चुका था।ये उद्योग प्रधानतःघरेलू थे और कृषि सम्बन्धी थे।भारत में दस्तकारी का उच्च कोटि का काम सदियों से था।कलात्मकता अनूठी और आकर्षक थी।ख्याति सर्वत्र फैली होने के कारण भारतीय उद्योगों का माल दुनिया के बाजारों में छाया था।कैलबर्टन के अनुसारः-प्राचीन काल में जब रोम के निजी और सार्वजनिक भवनों में भारतीय कपड़ों,दीवार दरी,ताम चीनी,मोजेक,हीरे-जवाहरात आदि का उपयोग होता था,उस वक्त से औद्योगिक क्रंाति के प्रारम्भ तक,आकर्षक और उद्दीपक वस्तुओं के लिए सारा संसार भारत का मोहताज रहा।

कृष्णराव शिवराव शेलवांकर ने दि प्राब्लम आॅफ इण्ड़िया-1940 में लिखाः-घरेलू उद्योग और कृषि के प्रत्यक्ष संयुक्तीकरण,जिसका वह ग्राम्य समाज प्रतिनिधित्व करता था,और तज्जनित अर्थव्यवस्था की बदौलत,ग्राम्य अपना संतुलन बनाए रखने तथा विघटनकारी प्रभावों का शक्तिशाली मुकाबला करने में समर्थ था।……..ग्राम्य का,जिसमें साधरणतःअर्धदासता या बैरनों अर्थात सामंत सरदारों के शोषण के लिए स्थान न था,आंतरिक गठन बहुत ही दृढ़ था और इसलिए वह सफल हुआ,जबकि मैनोर अर्थात यूरोप के जमींदारों की जमींदारी अपना अलग गठन बनाये रखने में असफल रहा।जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि वह उन्न्ीसवीं सदी में मानव-निर्मित माल के आक्रमण के सामने डटा रहा और अंत में राजनीतिक तथा आर्थिक परिवर्तनों के सम्मिलित दबाव से चरमरा कर बैठ गया तो हमें उसकी अब तक प्रदर्शित दृढ़ता पर आश्चर्य न होगा।

भारतीय समाज के स्वाभाविक विकास की दशा में यहां का पूॅंजीपति वर्ग सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से सशक्त होकर राज्य पर अधिकार कर लेता तथा सामंती राज्यों के स्थान् पर पूॅंजीपति राज्य की स्थापना करता परन्तु फ्रंासीसी,ब्रिटिश तथा अन्य यूरोपीय सशस्त्र शक्तिशाली पूॅंजीपतियों का समूह भारत आ गया।इनके और भारतीय पूॅंजीपतियों के मध्य आर्थिक और राजनैतिक प्रभुत्व के संघर्ष में ब्रिटिश पूॅंजीपति विजयी हुए।ब्रिटिश पूॅंजीवाद वह दानव है जो भारतीय समाज की व्यवस्था की छाती पर सवार हो गया और उसे तहस-नहस कर दिया।इतिहास साक्षी है कि गुलामी का अभिशाप झेल रहे भारत के पठान या मुगल विजेता जो सामंत व्यवस्था के प्रतिनिधि थे,ने भारत की ग्राम्य समाज व्यवस्था को ही अपना आधार बना लिया था।कालांतर में ब्रिटिश विजेता तो पूॅंजीवादी थे।ब्रिटिश विजेताओं के मुक्त व्यापार व्यवस्था,आधुनिकीकरण,अविष्कार और भाप के इंजन ने संयुक्त रूप से भारत के ग्राम्य व्यवस्था के मुख्य आधार चरखे और करघे को तोड़ डाला।

सन्1813 में ब्रिटिश औद्योगिक पूॅंजी ने भारत की अर्थव्यवस्था को लूटना प्रारम्भ कर दिया था।ब्रिटिश कल-कारखानों में बने माल की खपत मण्डी के रूप में भारत का इस्तेमाल प्रारम्भ हो चुका था।कार्ल माक्र्स के अनुसार,ः-1818 और 1836 के बीच ग्रेट ब्रिटेन से हिन्दुस्तान भेजे जाने वाले सूत का परिमाण 5,200गुना बढ़ गया।1824 में अंगरेजी मलमल का हिन्दुसतान को निर्यात ज्यादा से ज्यादा दस लाख गज ीहा होगा पर 1837में यह बढ़कर 6करोड़40लाख गज से भी ज्यादा हो गया।साथ ही ढ़ाका की आबादी 1,50,000से कम होकर 20,000 रह गई।ब्रिटिश शासन का सबसे बुरा परिणाम यही नहीं था कि हिन्दुस्तान के ऐसे नगर,जो कपड़े के उद्योग के लिए प्रसिद्ध थे,तबाह हो गए,ब्रिटिश भाप और विज्ञान ने हिन्दुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक कृषि उत्पादन तथा हस्त उद्योग के समागम को जड़ से उखाड़ फेंका।

ध्यान रहे कि ब्रिटिश काल के पूर्व भारत में ग्राम्य व्यवस्था में भूमि व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी।अंगरेजों ने भारत में ब्रिटेन के ढ़ंग की सामंती व्यवस्था लादी।उत्तर-भारत में जमींदारों का एक नया वर्ग बनाकर उन्हें जमीन का मालिक बना दिया।दक्षिण भारत में रैयतवारी प्रथा को लागू कर किसान को जमीन का मालिक बना दिया।इस प्रकार जमीन को व्यक्तिगत सम्पत्ति बना दिया गया जिसकी बाजार में खरीद फरोख्त हो सकती थी।विभिन्न कानूनों को लागू करके ब्रिटिश शासकों ने ग्राम्य समाज व्यवस्था जो कि स्वायत्तशासित समाज था,के स्वरूप को छिन्न-भिन्न करके केन्द्रीयभूत राज्य की प्रशासकीय इकाई बना डाला।महात्मा गाॅंधी भारत के इसी भारतीय ग्राम्य समाज व्यवस्था की पुनःस्थापना को चाहते थे।स्वदेशी-स्वावलम्बन-कुटीर उद्योग आदि का महत्व वे बखूबी समझते थे।ब्रिटिश शासकों के पूॅंजीवादी व्यवस्था का प्रतिकार व स्वदेशी की बुलन्द आवाज लार्ड कर्जन द्वारा 16अक्तूबर,1905 को बंग-भंग योजना लागू करने के पश्चात् हुई।ढ़ाका,चटगाॅंव और राजशाही डिवीजनों को बंगाल से अलग करके असम के साथ मिला कर पूर्व बंगाल और असम नामक नये प्रंात बनाये गये,राजधानी ढ़ाका बनी।बाकी हिस्सा बंगाल और राजधानी कोलकाता।बंगाल सारे देश में राजनैतिक आंदोलन का केन्द्र था।कर्जन जैसे साम्राज्यवादी शासक ने फूट डालो और राज्य करो के तहत मुसलिम प्रधान पूर्व बंगाल को अलग कर उसे हिन्दू प्रधान शेष बंगाल के खिलाफ खड़ा करने की नाकाम कोशिश की।पूरे बंगाल में विदेशी वस्तुओं का बायकाट घोषित किया गया।बायकाट आंदोलन में चार सूत्रीय कार्यक्रमों को अपनाया गया-ब्रिटेन के कपड़े,नमक,चीनी आदि का बहिष्कार,अंग्रेजी में बोलना बन्द,सरकार के मातहत अवैतनिक पदों और कौंसिलों से इस्तीफा,विदेशी वस्तुओं को खरीदने वालों का सामाजिक बहिष्कार।सामाजिक बहिष्कार के सम्बन्ध में तय किया गया कि-उनके साथ कोई भी खान-पान न करेगा,उनके साथ कोई भी वैवाहिक संबंध न करेगा,उनसे कोई भी खरीद फरोख्त न करेगा,नाई उनका कोई काम न करेंगें,लड़कों और लड़कियों को हिदायत दी जानी चाहिए कि वे उनके बच्चों के साथ न खेलें।तत्कालीन खुफिया रिपोर्ट से पता चलता है कि कैसे जंग-ए-आजादी में भारत की ग्रामीण आम जनता ने शिरकत की,-सिर्फ जमींदारों और वकीलों ने ही नहीं,विद्यार्थियों और नौजवानों ने,किसानों और दुकानदारों ने,यहां तक कि डाक्टरों और देशी सेना ने,ब्राह्म्णों और पुरोहितों,नाइयों और घोबियों ने बायकाट और स्वदेशी आन्दोलन के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।खबर है कि बैरकपुर और फोर्ट विलियम,कलकत्ता के सिपाहियों की तीन रेजीमेण्टों ने जब विदेशी कपड़ों की बनी वर्दी पहनने से इंकार कर दिया तो उन्हें निरस्त्र कर दिया गया और पश्चिमोत्तर भारत की सुदूर छावनियों में भेज दिया गया।

दरअसल ब्रितानिया हुकूमत में भारत की आम जनता का उत्पीड़न अपने चरम पर था,आम जन भयाक्रांत था।शासन जन भावनाओं को पुलिसिया बूटों तले कुचल डालता था,आजिज आकर भारत की जनता ने आजादी की जंग लड़ी और ब्रितानिया हुकूमत से मुक्ति मिली।परन्तु विचारणीय प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।हमारा ग्राम्य समाज आज विकास के किस पायदान पर खड़ा है?भूमि अधिग्रहण के मामलों ने किसानों से उनका हक छीन लिया है।1894 में ब्रितानिया हुकूमत द्वारा बनाये गये भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 ने किसानों और कृषि भूमि दोनों को संकट में डाल दिया है।आम जन की दशा अत्यन्त शोचनीय है।आजाद भारत में भी सरकारों का निरंकुश,गैरजिम्मेदाराना रवैया ब्रितानिया हुकूमत द्वारा दिये गये जख्मों की ही तरह दर्द देते हैं।फर्क सिर्फ इतना ही है कि ये सरकारी तंत्र हमारी ही धरा के चन्द लोगों के हाथों में कैद है।ब्रितानिया पुलिस द्वारा निरपराधों की हत्या व बलात्कार,उत्पीड़न,शोषण का बदला तो चाफेकर बंधुओं,खुदीराम बोस,उधम सिंह,हरिकिशन,भगतसिह,राजगुरू,सुखदेव,आजाद आदि क्रंातिवीरों ने जुल्मी अंग्रेज हुक्मरानों को मौत के घाट उतार कर ले लिया था परन्तु आजाद भारत में इसी धरा के हुक्मरानों और उनके नुमाइंदों,पुलिस बल द्वारा किये जाने वाले पापाचार,उत्पीड़न,शोषण और भ्रष्टाचार की सजा दिलाने के लिए उठने वाली लोकतांत्रिक आवाजों को अनसुना करने का दुःसाहस करने वालों को कौन सजा देगा?विधायिका,कार्यपालिका,न्यायपालिका,मीडिया और हमस ब अपनी जिम्मेदारियों से आखिर कब तक मुॅंह मोडे रहेंगें।न्याय में देरी पीड़ित के दर्द को बढ़ावा देती है।पुलिस हिरासत में नागरिकों की मौतों ने ब्रितानिया हुकूमत के जुल्म को मात दे दी है।आज वही स्थिति है जिसके बारे में 23मार्च,1976 को उ0प्र0 विधानसभा में चैधरी चरण सिंह ने चेतावनी देते हुए कहा था,-‘‘आप समझते हैं कि स्टीम इकठ्ठी होती रहे और बाॅयलर में कहीं कुछ नहीं होगा?होगा,अवश्य होगा,एक विस्फोट होगा,एण्ड दि कण्टरी विल बी डूम्ड इन फलेम्स….और देश लपटों में घिर जायेगा।

कहावत भी है-जबरा मारै,रौवे न देय।इतिहास साक्षी है एैसी घटनाओं की प्रतिक्रिया अवश्यंभावी है।न्याय का गला नहीं घोटना चाहिए,जन आवाज को सुनना चाहिए उसको कुचलना नहीं चाहिए।यह दबती नहीं है वरन् ब्रितानिया हुकूमत के अल्फाजों में देशद्रोही,उपद्रवी,अराजक तत्व,अपराधी कहलाती है परन्तु इतिहास के सुनहरे पन्नों में ये क्रांतिकारी,देशभक्त,मानवता के पुजारी,वीर,शहीद,बलिदानी,माँ के सच्चे सपूत,जनसेवक के रूप में युगों-युगों तक पूजे जाते हैं।

हिन्दी का महत्व व विड़म्बनायें

सिर्फ मातम-पुर्सी से काम नहीं चलने वाला है।हिन्दी भारत वर्ष में राज-काज की भाषा है,हमारे सम्मान की प्रतीक है,तो सभी प्रांतीय व स्थानीय भाषायें हिन्दी की बहनें।भारत-वर्ष में बोली जाने वाली समस्त स्थानीय भाषाओं का एक समान आदर व सम्मान हमारा राष्ट धर्म होना चाहिए।डा0राममनोहर लोहिया ने प्रत्येक हिन्दी भाषी क्षेत्र के निवासी को सलाह दी थी कि वो कम से कम जहां जिस क्षेत्र या प्रदेश में रह रहे हों,वहां की स्थानीय भाषा को भी सीखें,उसका आदर करें,उसी स्थानीय भाषा को वहां पर बोल-चाल में अपनायें।इसी के साथ समूचे भारत के लोगों को हिन्दी अवश्य सीखने की सलाह भी डा0 लोहिया ने दी थी।

आज हिन्दी अपने उस मुकाम पर नहीं है जहां उसको होना चाहिए था।हिन्दी भाषी क्षेत्रों के शहरी इलाकों में रहने वाले लोग हिन्दी की जगह अंग्रेजी व पाश्चात्य सभ्यता को जाने-अनजाने बढ़ावा देते चले आ रहे हैं।हिन्दी समूचे राष्ट के लिए सम्मान की प्रतीक होनी चाहिए परन्तु एैसा हो नहीं पा रहा है।अंग्रेजों के जाने के पश्चात् भी अंग्रेज परस्त लोगों की गुलाम मानसिकता के कारण आजाद भारत में आज भी निज भाषा गौरव का बोध परवान नहीं चढ़ पा रहा है।जगह-जगह हर शहर,कस्बों में अंग्रेजी माध्यम का बोर्ड लगा देखकर इस भाषाई पराधीनता की वस्तुस्थिति को समझा जा सकता है।आज की शिक्षा बच्चों के लिए बोझ सदृश्य हो गई है।वर्तमान शिक्षा में अंग्रेजी के अनावश्यक महत्व ने आम जन व गरीबों के बच्चों के विकास को बाधित कर रखा है।जो गरीब का बच्चा,आम आदमी का बच्चा हिन्दी या अपनी किसी अन्य मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करता है,उस बालक को अपने-आप शैक्षिक रूप से पिछडा़ मान लिया जाता है।अंग्रेजी भाषा का झुनझुना उसके हाथों में पकड़ा कर उसके बोल उसके कानों में जबरन डाले जाते हैं।वो बेबस बालक दोहरी पढ़ाई करता है यानि कि एक तो शिक्षा ग्रहण करना और दूसरी पराई भाषा को भी पढ़ना।उस पर अंग्रेज परस्त लोगों का यह कहना कि अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा है,इसका महत्व किसी भी स्थानीय भाषा के महत्व से ज्यादा है,भारत में व्याप्त अभी भी गुलाम मानसिकता का द्योतक है।इन गुलाम मानसिकता के अंग्रेज-परस्त लोगों ने अंग्रेजी भाषा को आज प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है।जबकि सत्य यह है कि आज लोग इस भ्रम में कि अपने बच्चों को अंग्रेजी की शिक्षा दिलाना चाहते हैं कि अंग्रेजी सीखने के बाद जीविका के तमाम अवसर मिल जायेंगें।दरअसल किसी भी भाषा के बढ़ने के कारकों में सर्वाघिक महत्व-पूर्ण बात यह हो गई है कि उस भाषा का प्रत्यक्ष लाभ आदमी को रोजी-रोटी कमाने में मिले।जिस भाषा से ज्ञान और शिक्षा को संगठित करके रोजगार परक बना दिया जाता है,वह भाषा आम जन के मध्य लोकप्रिय होती जाती है।आज भारत की भाषाओं पर एक सोची-समझी रणनीति के पहत् अंगेजी थोप दी गई है।जीविका को अंग्रेजी भाषा के आश्रित बनाकर भारत के लोगों को मानसिक तौर पर गुलाम बना लिया गया है।आज पूरे विश्व में भारत ही एकमात्र एैसा देश है जहां के निवासियों को अपनी भाषा में बात-चीत करने या लिखने पढ़ने में भी शर्म आने लगी है।भारत के मूल निवासी मानसिक गुलाम अधकचरी अंग्रेजी बोलने में मस्तक उॅंचा करके गर्व महसूस करते हैं।

हम अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को कदई गलत नहीं मानते,किसी भी भाषा का ज्ञान व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास व योग्यता के लिए बहुत आवश्यक होता है।लेकिन जब किसी भाषा को किसी देश की मातृभाषा,स्थानीय भाषा के उपर थोपा जाता है तब कष्ट होता है।भारत के लोगों को भी चीन,जापान,रूस,फ्रांस,स्पेन आदि देशों के लोगों की ही तरह अंग्रेजी को सिर्फ एक साधारण भाषा के तौर पर ही लेना चाहिए।भाषा ज्ञान का पर्यायवाची नहीं होती है।कोई भी राष्ट अपनी भाषा में तरक्की के बेमिसाल मापदण्ड़ स्थापित कर सकता है इसके जीवन्त उदाहरण जापान,अमेरिका,चीन आदि देश हैं।

विद्यार्थियों की माँ नवदुर्गा से प्रार्थना

हे पूज्य गुरुदेवों सादर चरण स्पर्श ।

हे बृहस्पति गुरु,हे शुक्राचार्य, हे द्रोणाचार्य आदि गुरुओं की परम्परा के वाहक गुरुजन अपनी गौरवमयी परम्परा को याद करें ।यह हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि समाज को शिक्षित करके सत्मार्ग पर ले जाने वाले आप समाज के शिक्षक गण अपनी राह से भटक ही नहीं गये हैं वरन पथभ्रष्ट हो गये हैं ।यह वेदना है एक शिष्य की ……..पीडा है आपके शिष्य के अंर्तमन की ।जिसका शीश किसी भी गुरुकुल के शिक्षक के सम्मान में झुक जाता था, वो शीश आज शिक्षकों के नित नये अनैतिक कारनामों के उजागर होने से शर्म व ग्लानि से धसां जा रहा है ।हे गुरुदेवों ….अपना पुर्न उत्थान करें ।अपनी ज्ञान उर्जा को शिक्षा जगत में , समाज को शिक्षित करने में लगाने का प्रयास करें ।

आप माँ शारदे के पुत्र ,आपको यह सांसारिक लोभ लालच भ्रष्टाचार ने कैसे अपने बंधनो में जकड लिया है ।हे गुरुश्रेष्ठ -जागृत हो,मोह-लोभ की बेडियों को तोड दीजिए ।छोड दीजिए-ठेकेदारी का लालच ।मत मोड़िए ,अपनी शैक्षिक छवि को ,ज्ञान पुंज को-लोभ के दरिया में।व्यभिचार के कुंभ में बदलते अपने स्वरूप को तत्काल रोकें-गुरूदेवों ।हम महादेव के सामने सिर पटक चुके हैं कि हे महादेव-हमारे गुरूओं को सत्मार्ग पर लायें ।हम माँ सरस्वती से विनयावत हो चुके हैं कि हे माते अपने पुत्रों को सहेजें ।हमने अपने छात्र जीवन की उन घटनाओं को याद किया है ,जब हे गुरूश्रेष्ठ-आप हमें सिर्फ असत्य बोल देने पर कक्षा में दण्डित करते थे ।आज आप ही के द्वारा दण्डित ,सत्मार्ग पर आपके ही द्व्रारा चलाये गये विधार्थी आपके सम्मुख चरण वन्दना को प्रस्तुत हैं-हे गुरूवर ,हे परशुराम ,हे वशिष्ठ आदि ऋषियों मुनियों की भाॅंति हमें युगों-युगों से शिक्षित कर रहे शिक्षा के पुजारियों ,आप माँ लक्ष्मी के पुजारी क्यों बन रहें हैं? आप अपना स्वरूप क्यों बिगाड रहें हैं? विद्या ददाति विनयम् आपने हमें पढाया था। आपकी उदारता ,आपका कत्र्तव्यबोघ ,समाज के प्रति आपका अनुराग कब ,कैसे ,क्यों और कहाँ लुप्त हो गया? हम चिंतातुर हैं मुनिवर् ।हम व्याकुल हैं ,आघुनिक भारत के शिक्षा गुरूओं-हम व्यथित हैं। हे जगतजननी माँ ,आप ही दया करो। आने वाली अपनी औलादों के लिए हमारे गुरूओं की सदबुद्धि वापस कर दो –माँ , हम अपने लिए नहीं वरन् अपने गुरूओं और अपनी संतानों और समाज के लिए आपसे गुरूओं को सत्मार्ग पर लाने की भिक्षा माँगते। हैं।

हे भारतमाता। आप ही समझाओं इन गुरूश्रेष्ठों को। हे दुर्गा माँ -आपसे तो असुर भी भय खाते थे ,क्या हमारे गुरू आपसे नहीं डरते?हे सनातन धर्म के कोटि2 देवताओं ,हे समस्त धर्मो के श्रध्देयों-हमारी ,विद्यार्थियों की विनती पर भी ध्यान दें ।हमारे शिक्षकों को माॅं सरस्वती का ही पुत्र रहने दें ।हमारे शिक्षकों को भ्रष्टाचार के दलदल से निकालो-कृष्ण ।हे वासुदेव कृष्ण-तुमने तो अधर्म के नाश के लिए चचेरे भाईयों में महाभारत कराकर धर्म की स्थापना की थी। हे मधुसूदन-अपने मामा कंस का वध आपने ही अत्याचार ,आतंक खत्म करने के लिए किया था ।अवतार ले लो हे चक्रधारी ।

हे सर्वशक्तिमान-सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता ।आप जिस भी रूप में हों, आपकी नजर तो सब पर है ।हम आपको नहीं देख पाते ,आपका डाक पता भी नहीं है ,इसलिए हम इस लेख के माध्यम से आप देवगणों से निवेदन करते हैं कि हमें सत्मार्ग दिखाते आ रहे हमारे गुरूओं ने अपना मार्ग बदल दिया है ,इन्हें राह पर लाने का कोई तो जुगाड. करो प्रभु ।हे सृष्टि रचयिता ब्रहमाजी-आपने कहाॅं चूक कर दी?हे पालनहार विष्णु जी-आपने पालन में क्या असमानता कर दी?हे महादेव-क्या आपके त्रिनेत्र खोलने का समय आ गया है?नहीं2 महादेव नहीं , हम अपने गुरूदेवों की तरफ से क्षमाप्रार्थी हैं ।आपने तो समस्त दोषियों को अपनी गलती सुधारने का मौका दिया है ,उन्हें सचेत किया है ।फिर हमारे मार्गदर्शकों ,हमारे पूज्यनीयों के साथ यह भेदभाव क्यों?गुरूओं को अवसर दें प्रभु ।उन्हे सत्मार्ग पर लाने के लिए माॅं से बोलिए प्रभु ।अपने कर्मो से स्वयं अपना अपमान करा रहे गुरूवरों को दण्डित करने के बारे में अभी मत सोचें-महादेव ।भ्रष्टाचार के घनघोर बियावान में भटक रहे गुरूजनों को अपने ज्ञानपुंज से सदाचरण की राह पर लाओ माँ ।।।।।।।।।।।

इसी आशा और विश्वास के साथ कि हमारी मनोकामना अतिशीघ्र पूरी होगी।

अपने मन के रावण को मारें,मन का अंधेरा मिटायें-दीप पर्व मनायें

फिर इस वर्ष भी हमने,हम सबने लंकेश रावण के पुतले का दहन कर डाला।नव दुर्गा का उपवास रखा,शक्ति रूपों की पूजा की,माँ-स्वरूप् कन्याओं को भरपूर भोजन कराया,उन्हें भेटें दी।अब हम सभी को दीपावली की तैयारी में लगना है।सुख,समृद्धि,खुशियों के त्यौहार,मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र जी के लंका विजय व वनवास पूरा करने के पश्चात् अयोध्या वापस आने की प्रसन्नता में मनाया जाने वाला दीप पर्व भी हमें मनाना है।अंधकार भगाने के प्रतीक स्वरूप दीपावली का यह पुनीत पर्व सम्पूर्ण परिवार तथा समाज को बहुप्रतीक्षित सदैव रहा है।साथ ही साथ धनतेरस,नरक चैदस,गोवर्धन पूजा,भैया दूज,कलम दवात आदि पर्व हम श्रद्धा-भक्ति व धूमधाम से मनायेंगें।सदियों से इन त्यौहारों को मनाने की परम्परा है और निःसन्देह सदैव रहेगी।

प्रत्येक त्यौहार-परम्परा का एक विशेष महत्व होता है।उसके मूल में एक सन्देश-भाव छिपा रहता है।महापराक्रमी विद्वान दशानन लंकेश रावण पर अयोध्या के राजकुमार-वनवासी राम की विजय सिर्फ एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति पर विजय नहीं थी।न ही यह विजय राक्षसों की सेना पर वानरों,भील आदि रामभक्तों की सेना की विजय मात्र थी।वस्तुतःयह विजय थी-सत्ता के मद में चूर महापराक्रमी रावण के द्वारा स्त्री के अपमान के फलस्वरूप् उत्पन्न परिस्थितियों एवं असत्य के राही एवं मदमस्त रावण पर मर्यादा की स्थापना हेतु पिता के आज्ञा पालन हेतु अयोध्या छोड़कर वन में विचरण करने वाले सत्य के राही राम की।यह विजय थी-असत्य पर सत्य की।

सत्यमेव जयते।सत्य की विजय हो।कैसे?कभी सोचा हमने? आज तो जन-मन-गण की सोच ही थक चुकी है या साफ-साफ कहें तो सोच निस्प्राण होकर विकृत अवस्था को प्राप्त हो चुकी है। जहाँ जिस धरा पर आदिकाल से वसुधैव-कुटुम्बकम् की अवधारणा स्थापित रही हो, वहां पाश्चात्य सभ्यता व पूंजीवाद इतना प्रभावी हो गया है कि पैसों के लिए परिवार भी विखण्डित हो रहे हैं।पारिवारिक विखण्डन अब व्यक्ति के आंतरिक टूटन की वजह बन गई है।अंधाधुंध आर्थिक उन्नति की मंजिलें तय करते-करते मनुष्य मानसिक-सामाजिक-चारित्रिक रूप से बिखरता जा रहा है।इन नैतिक मूल्यों का हनन व्यक्ति-परिवार-समाज सभी को हानि के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे रहा है।

हाँ, तो बात फिर से दीपावली पर्व के सन्दर्भ में।दीप पर्व की हमारे वर्तमान जीवन में उपयोगिता की,असत्य पर विजय प्राप्त कर के अयोध्या वापस लौटे मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम चन्द्र जी के सम्मान व स्वागत में आयोजित हुए इस दीप पर्व के आज हमारे द्वारा परम्परागत रूप से मनाये जाने की प्रासंगिकता पर।माँ कैकेयी द्वारा मांगे गये पिता से वरदान की लाज रखने हेतु,पिता के वचनों की,राजधर्म की मर्यादा की रक्षा के लिए पत्नी-भाई समेत वन जाने जैसा आचरण क्या आज हमारे समाज में करने की कोई सोच भी सकता है?आज तो हालात यह हो गई है कि पुत्र के विवाहोपरान्त बेचारे माॅं-बाप ही घर से कब निकाल दिये जायें,इसका ही ठिकाना नहीं है।रिश्तों को भौतिकता रूपी दीमक चाट चुका है।लालच का बिच्छू अपना जहर लोगों के नसों में उतार चुका है।मिथ्याचरण मनुष्य के आभूषण रूप में सुशोभित हो रहा है।सदाचार मानव स्वभाव से विलुप्त हो चुका है और व्यभिचार आम जीवन शैली का अनिवार्य हिस्सा बना हुआ है।आज कहाँ हैं राम जैसा आज्ञाकारी पुत्र कहाँ है भरत-शत्रुध्न और लक्ष्मन जैसे भाई?क्या कोई स्त्री सीता जैसा कष्ट सहने का,पति के साथ दुःखमय जीवन जीने का निर्णय ले सकती है?त्याग की भावना की जगह वासना-पूर्ति की अभिलाषा अपना साम्राज्य स्थापित कर चुका है।तो क्या हमें अपने अन्दर के राक्षस रूपी इन विकारों को,आसुरी प्रवृत्तियों को खत्म करने का प्रयास नहीं करना चाहिए?क्या परम्परागत रूप से महाविद्वान पुलस्त्य ऋषि के नाती,महापराक्रमी,बलवान,ज्ञानी,शिवभक्त परन्तु अहंकारी,सत्ता मद में चूर,राक्षसी प्रवृत्ति के,स्त्री उत्पीड़क लंकेश रावण के पुतले का दहन कर के ही हम दशहरा मनाते रहेंगें?सिर्फ परम्परा के निर्वाहन हेतु दीप पर्व मनायेंगें?

आइये……समाज के हितार्थ स्वयं की आन्तरिक आसुरी शक्तियों के खिलाफ धर्मयुद्ध की शुरूआत करें।अन्र्तद्वन्द छेड़े।चेतना को नया आयाम दें।नया सबेरा लाने की दिशा में कदम बढ़ायें।अपने मन के लंकेश को सदाचार रूपी बाणों से नाभि प्रहार यानि दुराचरण का खात्मा करके आसुरी शक्ति को परास्त कर परिवार-समाज की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करें।यदि मानव एैसा करे तो श्री रामचन्द्र जी के लंका विजय के उल्लास में,अयोध्या वापसी की प्रसन्नता में आज तक मनाये जा रहे इन पर्वों की,दीप पर्व की प्रासंगिकता हमारे वर्तमान में है अन्यथा सिर्फ अवकाश,थोड़ा सैर-सपाटा,मन बहलाव व ईश्वर भक्ति के ढ़ोंग के लिए दीपावली मनाना कोई मायने नहीं रखता।

Thursday, October 21, 2010

श्रमिक वर्ग की दशा और सुधार के उपाय

अरविन्द विद्रोही

मेहनत मजदूरी करने वालों की स्थिति में सुधार अभी तक क्यों नहीं हो पाया, यह सवाल अभी भी सरकारों की चिन्ता में शामिल नहीं है। शारीरिक श्रम करने वालों चाहे वो छोटी जोत के किसान हों, दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर हों, विभिन्न कल-कारखानों में कार्य करने वाले मजदूर हों, विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी कार्यालयों में कार्य करने वाले पत्रवाहक, चैकीदार, खलासी, वाहन चालक आदि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हों, सारे का सारा श्रमिक वर्ग अपने परिवार के समुचित पालन पोषण में ही अपनी जिंदगी को व्यतीत कर देता है। भरपूर मेहनत के बावजूद अपने परिवार की जरूरतों को पूरा न कर पाने के कारण एक अजीब सी निराशा व घुटन में मेहनतकश तबका जी रहा है। वहीं दूसरी तरफ समाज में नेताओं, नौकरशाहों,अपराधियों, व्यापारियों, कालाबाजारियों आदि के पास अकूत सम्पत्ति एकत्र होना बदस्तूर जारी है। एक ही देश-समाज के नागरिकों के बीच पूंजी का आमदनी का घनघोर असंतुलन बड़ा ही कष्टकारी है।

समाजवादी चिंतक डा0 राम मनोहर लोहिया अगस्त 1963-64 में इलाहाबाद गये थे। धर्मवीर गोस्वामी, लक्ष्मीकान्त वर्मा, रजनीकान्त वर्मा तथा कुछ अन्य कार्यकर्ताओं के साथ डा0 लोहिया सोरांव के गांव में गाडी से गये। डा0 लोहिया ने दलित बस्ती का रास्ता पूछा और वहा पहुच गये। दलित बस्ती में पहुचते-पहुचते काफी भीड़ जमा हो गई। डा0 लोहिया ने हरिजनों के घर में जाकर औरतों से कहा कि हम तुम्हारी अनाज की हांड़ी देखना चाहते हैं। भौचक रह गई औरतों ने कुछ सोचने के बाद घर के भीतर अनाज की हांड़ी तक सभी को जाने दिया। पचासों झोपड़ियों की हाड़ियों में डा0 लोहिया ने हाथ डाल कर देखा। मात्र दो घरों की अनाज की हनडी में बमुश्किल आधा किलो आटा था। इन घरों के लोग कमाने निकले थे, कमा कर जब आयेंगें, तभी आटा आयेगा और परिवार के सदस्यों को खाना मिलेगा, यह वस्तुस्थिति थी। विचित्र प्रकार की पीड़ा से उद्विग्न हो चुके डा0 लोहिया के माथे पर शिकन आने के साथ-साथ चेहरा तनावग्रस्त हो गया। डा0 लोहिया चुप न रह सके, उन्होने कहा कि-दामों की लूट ने इनको रसातल में भेज दिया है। सामाजिक तौर पर जाति टूट भी जाये, आर्थिक स्तर पर ये जहा हैं वहा से भी नीचे जाति के घेरे में फंसे रहेंगें ।

डा0 लोहिया न्यूनतम आमदनी को बुनियादी सवाल मानते थे। डा0लोहिया का मानना था कि न्यूनतम आमदनी के हिसाब से अधिकतम आमदनी को तय करना चाहिए। उन्होंने उदाहरण स्वरूप् कहा था कि-तीन आना तय करता है कि कुल आमदनी पन्द्रह रूपये से ज्यादा न जाये।डा० लोहिया नकल करने की प्रवृत्ति को अभिशाप मानते थे। यूरोप व अमेरिका की नकल करते हुए भारतीयों द्वारा फैशन व विलाशिता में उस समय करीब १५ अरब रूपये खर्च करने की बात डा0लोहिया ने उस समय कही थी।आज तो फैशन व विलासिता का जहर भारतीय ग्राम्यांचलों में भी तेजी से घुलता जा रहा है। डा0लोहिया का मानना था कि मनुष्य की एक घण्टे की मेहनत का फल वह चाहे जहां हो प्रायःबराबर हो। दोगुने से ज्यादा यह अन्तर न हो यह स्पष्ट किया था डा0लोहिया ने। डा0लोहिया का मानना था कि-हमें कम से कम यह सिद्धान्त अपना लेना है कि मनुष्य की मेहनत का फल दुनिया में प्रायः समान होना चाहिए यानि पैदावार के हिसाब से। एक घण्टे में मेहनत करके जितनी दौलत पैदा करता है कोई आदमी, दुनिया के किसी कोने में, उतनी ही या प्रायः उतनी हर कोने में होनी चाहिए।

आजाद भारत में भारत के संविधान के दायरे रहकर विभिन्न मजदूर संगठन मजदूरों के अधिकारों के लिए आवाज उठाते हैं। ज्यादातर मजदूर संगठन राजनैतिक दलों और प्रबन्ध तंत्र पर निर्भर हो गये हैं तथा मजदूरों से, उनकी असल दिक्कतों को दूर करने के प्रयासों से दूर होते चले गये हैं। तमाम मजदूर संगठन होने के बावजूद संगठित क्षेत्र के मजदूरों का मात्र दस फीस दी हिस्सा ही मजदूर संगठनों से जुड़ा है। असंगठित क्षेत्र के करोड़ों मजदूरों के हितों के लिए सिर्फ छोटे स्तर पर कुछ ही स्वयं सेवी संस्थायें कार्यरत हैं। भारत में श्रमिकों के अधिकारों का पालन नहीं किया जा रहा है। समाजवाद के दबाव में श्रमिकों को जो विधिक अधिकार प्राप्त हैं, उनकी परवाह मिल मालिक और प्रबन्ध तंत्र तनिक भी नहीं करता। विकास का हर पत्थर मजदूरों के खून पसीने से सना होने के बावजूद मजदूरों का स्वयं का जीवन विकास से कोसो दूर हैं। मजदूरों की जिन्दगी दयनीय, अभाव-ग्रस्त तथा दर्द में लिपटी हुई है। मजदूरों की इसी पीड़ा को महसूस करते 8अप्रैल,1929 को कोर्ट में दिये अपने बयान में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने कहा था कि अंत में वह कानून अर्थात औद्योगिक विवाद विद्येयक, जिसे हम बर्बर और अमानवीय समझते हैं, देश के प्रतिनिधियों के सरों पर पटक दिया गया और इस प्रकार करोड़ों संघर्षरत् भूखे मजदूरों को प्राथमिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया और उनकी आर्थिक मुक्ति का एकमात्र हथियार भी छीन लिया गया। जिस किसी ने भी कमर तोड परिश्रम करने वाले मूक मेहनतकशों की हालत पर हमारी तरह सोचा है, वह शायद स्थिर मन से यह सब नहीं देख सकेगा। बलि के बकरों की भंाति शोषकों -और सबसे बड़ी शोषक स्वयं सरकार है-की बलिवेदी पर आये दिन होने वाली मजदूरों की इन मूक कुर्बानियों को देखकर जिस किसी का दिल रोता है वह अपनी आत्मा की चीत्कार की उपेक्षा नहीं कर सकता। मानवता के प्रति हार्दिक सद्भाव तथा अमिट प्रेम रखने के कारण उसे व्यथ्र के रक्तपात से बचाने के लिए हमने चेतावनी देने के इस उपाय का सहारा लिया है और उस आने वाले रक्तपात को हम ही नहीं, लाखो आदमी पहले से देख रहें हैं। क्रांति को स्पष्ट करते हुए अपने बयान में इन्होंने कहा कि क्रान्ति से हमारा अभिप्राय है-अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन। समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प् जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मुहताज हैं। दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढ़कने भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं। यह एक भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड की कगार पर चल रहे हैं।

क्रांतिकारियों के बौद्धिक नेता सरदार भगतसिंह और समाजवादी चिंतक डा0 राम मनोहर लोहिया मेहनत कशों की उपेक्षा को समाज के लिए भयावह मानते थे। इन मेहनतकशों के जीवन स्तर को बगैर अच्छा करे देश की तरक्की के दावे व बातें सिर्फ पूंजीवाद का भौंड़ा व घिनौना प्रलाप है।भारत की वास्तविक शक्ति किसान और मजदूर हैं, इनकी समृद्धि के बगैर देश में खुशहाली आ ही नहीं सकती। इसकी ईमानदार कोशिशें सरकारों को करनी चाहिए क्योंकि -जब तक भूखा इन्सान रहेगा धरती पर तूफान रहेगा।

जनविरोधी विनाशोन्मुखी अनियंत्रित विकास के परिणाम

विकास की अंधाधुंध दौड़ में मानव जाति अपने विनाश की आधारशिला पर एक के बाद एक पत्थर रखती जा रही है। पर्यावरणीय दृष्टिकोण से ग्राम्यांचलों की स्थिति अभी भी बेहतर है। कस्बे और शहर विकसित होने के साथ साथ जल, शुद्ध हवा और स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से जूझ रहें हैं। ग्राम्य अंचलों में जल के भूमिगत् श्रोतों में कमी एक बड़ी समस्या है। नदी-पोखरों का संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है। व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते जल के पारम्परिक श्रोतों को पाटने के चलन ने बड़ी विकट स्थिति पैदा कर दी है। ग्रामीण क्षेत्र आज भी शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार जैसी आवश्यक जन सुविधाओं से वंचित हैं। ग्राम्य विकास का धन भ्रष्टाचारियों के काकस के चलते व्यक्तिगत् तिजोरियों मे। भरा जा रहा है। गावों में आपसी रंजिश की बड़ी वजह पानी निकासी की समुचित व्यवस्था न होना, सम्पर्क मार्गो का व्यवस्थित न होना तथा भूमि सम्बन्धी मामलों में त्वरित निर्णय न होना है। भ्रष्टाचार का दानव विकास का धन किस प्रकार लीलता जा रहा है, यह सर्वविदित है। सरकारी योजनायें लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के कारण अपना जन कल्याणकारी स्वरूप पूर्ण नहीं कर पाती हैं। और लोकतंत्र में सरकारें बगैर जन सहयोग एवं जन दबाव के योजनायें बनाने के अलावा कर भी क्या सकती है।? सिर्फ शासन-प्रशासन को दोषी ठहराने से हमारे मुल्क को हम तरक्की के शीर्ष स्तर पर नहीं ले जा सकते।

जरा आइये, शहरी क्षेत्रों के विकास की योजनाओं की वस्तु-स्थिति की बात करें। शहरी आवासीय व्यवस्था के तहत सड़क-पार्क-सार्वजनिक उपभोग की भूमि-सभागार आदि सुविधाओं की व्यवस्था होती है या जगह छूटी होती है। सुगम आवागमन के लिए प्रत्येक आवास को सड़क से जोडा जाता है। पार्कों की अवस्थापना बच्चों, बुजुर्गों, स्थानीय जनता के टहलने, विश्राम करने और शुद्ध वायु के उत्सर्जन के उद्देश्यों हेतु किया जाता है। नगरीय क्षेत्रों में सामाजिक, वैवाहिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन हेतु सार्वजनिक उपभोग की भूमि या सभागार होते हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि-शासन द्वारा चिन्हित एवं स्वीकृत हमारे लिए स्वीकृत एवं निर्धारित इन जन-सुविधाओं पर डाका कौन और कैसे डालता है? यह जन-उपयोगी सुविधायें नागरिकों के लिए ही उपलब्ध कराई जाती हैं या निर्धारित होती हैं। फिर ऐसा क्यों होता है कि तंग सड़के, फुटपाथों पर अतिक्रमित दुकानें, सड़कों पर अवैध निर्माण व कब्जे, पार्कों की भूमि पर अवैध कब्जे, पार्कों के सौन्दर्यीकरण एवं रख-रखाव के प्रति अरूचि, गन्दी नालिया दिखती हैं।

शहरी नागरिक भी अपनी मूलभूत सुविधाओं को स्वयं क्षरित भी करता है तथा किंकर्तव्य-विमूढ़ होकर इन्ही सुविधाओं को लुटता हुआ देखता भी, और मौका पाते ही लूटता भी है। उसके देखते ही देखते उसके लिए बनाई गई सुविधायें लुटती रहती है और वो खामोशी अख्तियार किये रहता है।भ्रष्टाचारियों, अपराधियों, माफियाओं, मानवता के दुश्मनों एवं पूंजी के पुजारियों के आगे बेबस जन साधारण घुटता रहता है। यदि कोई हिम्मत करके इन समाज विरोधियों के क्रिया-कलापों की शिकायत प्रशासन से करता है तो अधिकतर मामलों में शिकायत कर्ता को धमकी-प्रलोभन के दौर से गुजरना पड़ता है। शिकायत तो साधारणतया दूर नहीं होती, हां शिकायत कर्ता को परेशानिया और जाँचकर्ता को बैठे-बिठाये मलाई जरूर मिल जाती है। रोटी-रोजी के चक्कर में फंसा नागरिक जनसुविधाओं के लिए संघर्ष की सोच भी नहीं पाता। असुविधाओं का ठीकरा सरकार के मत्थे फोड़ कर अपने दायित्व से मुंह चुराने का अभ्यस्त हो चुका आम नागरिक सिर्फ अपने-अपने परिवार के बारे में सोच रहा है। राजनैतिक दलों के द्वारा जनहित के कार्यों को अपनी प्राथमिकता में न रखने का कारण सिर्फ यही है कि जनता भी वोट देते समय किये गये कार्यों के स्थान पर जातिगत आधार पर एवं पूंजी के अंधाधुंध वितरण, प्रयोगकर्ता, बाहुबली को चयनित करती आ रही है। जातिगत आधार पर, बाहुबल के इस्तेमाल व प्रभाव से, धन के इस्तेमाल से चयनित जनप्रतिधि अपने मूल आधार को बढ़ाते हैं। यदि जनसमस्याओं के लिए लड़ने वाले लोग जनप्रतिनिधि निर्वाचित होने लगें तो वे स्वाभाविक रूप से जनहित के कार्यों को करते हुए अपना आधार व जनविश्वास बढ़ायेंगे । मॅंहगाई के खिलाफ जिस तरह से जनता ने अपना आक्रोश भारत बन्द को सफल बना कर प्रदर्शित किया है, उससे जनहित को नजरअंदाज करना सरकारों के लिए चेतावनी है। अब यह आक्रोश व्यवस्था परिर्वतन तक बना रहे यह अत्यन्त आवश्यक है। सरकार के रवैये ने जनाक्रोश की ज्वाला में घी डाल दिया है। अपने सत्ता के अहंकार में मदमस्त मंत्री का बढ़ी कीमतों की वापसी के विषय में इंकार जन भावनाओं को कुचलने सरीखा है। मॅंहगाई रोकने में नाकाम सरकार विकास के नाम पर मनमानी कर के जनता को ठेंगा दिखाती है। सरकारों का पूरा ध्यान नोट व वोट बटोरने की रणनीति बनाना व विपक्षी दलों को, जनता को धकियाने में लगा रहता है।