श्रमिक वर्ग की दशा और सुधार के उपाय
अरविन्द विद्रोही
मेहनत मजदूरी करने वालों की स्थिति में सुधार अभी तक क्यों नहीं हो पाया, यह सवाल अभी भी सरकारों की चिन्ता में शामिल नहीं है। शारीरिक श्रम करने वालों चाहे वो छोटी जोत के किसान हों, दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर हों, विभिन्न कल-कारखानों में कार्य करने वाले मजदूर हों, विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी कार्यालयों में कार्य करने वाले पत्रवाहक, चैकीदार, खलासी, वाहन चालक आदि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हों, सारे का सारा श्रमिक वर्ग अपने परिवार के समुचित पालन पोषण में ही अपनी जिंदगी को व्यतीत कर देता है। भरपूर मेहनत के बावजूद अपने परिवार की जरूरतों को पूरा न कर पाने के कारण एक अजीब सी निराशा व घुटन में मेहनतकश तबका जी रहा है। वहीं दूसरी तरफ समाज में नेताओं, नौकरशाहों,अपराधियों, व्यापारियों, कालाबाजारियों आदि के पास अकूत सम्पत्ति एकत्र होना बदस्तूर जारी है। एक ही देश-समाज के नागरिकों के बीच पूंजी का आमदनी का घनघोर असंतुलन बड़ा ही कष्टकारी है।
समाजवादी चिंतक डा0 राम मनोहर लोहिया अगस्त 1963-64 में इलाहाबाद गये थे। धर्मवीर गोस्वामी, लक्ष्मीकान्त वर्मा, रजनीकान्त वर्मा तथा कुछ अन्य कार्यकर्ताओं के साथ डा0 लोहिया सोरांव के गांव में गाडी से गये। डा0 लोहिया ने दलित बस्ती का रास्ता पूछा और वहा पहुच गये। दलित बस्ती में पहुचते-पहुचते काफी भीड़ जमा हो गई। डा0 लोहिया ने हरिजनों के घर में जाकर औरतों से कहा कि हम तुम्हारी अनाज की हांड़ी देखना चाहते हैं। भौचक रह गई औरतों ने कुछ सोचने के बाद घर के भीतर अनाज की हांड़ी तक सभी को जाने दिया। पचासों झोपड़ियों की हाड़ियों में डा0 लोहिया ने हाथ डाल कर देखा। मात्र दो घरों की अनाज की हनडी में बमुश्किल आधा किलो आटा था। इन घरों के लोग कमाने निकले थे, कमा कर जब आयेंगें, तभी आटा आयेगा और परिवार के सदस्यों को खाना मिलेगा, यह वस्तुस्थिति थी। विचित्र प्रकार की पीड़ा से उद्विग्न हो चुके डा0 लोहिया के माथे पर शिकन आने के साथ-साथ चेहरा तनावग्रस्त हो गया। डा0 लोहिया चुप न रह सके, उन्होने कहा कि-दामों की लूट ने इनको रसातल में भेज दिया है। सामाजिक तौर पर जाति टूट भी जाये, आर्थिक स्तर पर ये जहा हैं वहा से भी नीचे जाति के घेरे में फंसे रहेंगें ।
डा0 लोहिया न्यूनतम आमदनी को बुनियादी सवाल मानते थे। डा0लोहिया का मानना था कि न्यूनतम आमदनी के हिसाब से अधिकतम आमदनी को तय करना चाहिए। उन्होंने उदाहरण स्वरूप् कहा था कि-तीन आना तय करता है कि कुल आमदनी पन्द्रह रूपये से ज्यादा न जाये।डा० लोहिया नकल करने की प्रवृत्ति को अभिशाप मानते थे। यूरोप व अमेरिका की नकल करते हुए भारतीयों द्वारा फैशन व विलाशिता में उस समय करीब १५ अरब रूपये खर्च करने की बात डा0लोहिया ने उस समय कही थी।आज तो फैशन व विलासिता का जहर भारतीय ग्राम्यांचलों में भी तेजी से घुलता जा रहा है। डा0लोहिया का मानना था कि मनुष्य की एक घण्टे की मेहनत का फल वह चाहे जहां हो प्रायःबराबर हो। दोगुने से ज्यादा यह अन्तर न हो यह स्पष्ट किया था डा0लोहिया ने। डा0लोहिया का मानना था कि-हमें कम से कम यह सिद्धान्त अपना लेना है कि मनुष्य की मेहनत का फल दुनिया में प्रायः समान होना चाहिए यानि पैदावार के हिसाब से। एक घण्टे में मेहनत करके जितनी दौलत पैदा करता है कोई आदमी, दुनिया के किसी कोने में, उतनी ही या प्रायः उतनी हर कोने में होनी चाहिए।
आजाद भारत में भारत के संविधान के दायरे रहकर विभिन्न मजदूर संगठन मजदूरों के अधिकारों के लिए आवाज उठाते हैं। ज्यादातर मजदूर संगठन राजनैतिक दलों और प्रबन्ध तंत्र पर निर्भर हो गये हैं तथा मजदूरों से, उनकी असल दिक्कतों को दूर करने के प्रयासों से दूर होते चले गये हैं। तमाम मजदूर संगठन होने के बावजूद संगठित क्षेत्र के मजदूरों का मात्र दस फीस दी हिस्सा ही मजदूर संगठनों से जुड़ा है। असंगठित क्षेत्र के करोड़ों मजदूरों के हितों के लिए सिर्फ छोटे स्तर पर कुछ ही स्वयं सेवी संस्थायें कार्यरत हैं। भारत में श्रमिकों के अधिकारों का पालन नहीं किया जा रहा है। समाजवाद के दबाव में श्रमिकों को जो विधिक अधिकार प्राप्त हैं, उनकी परवाह मिल मालिक और प्रबन्ध तंत्र तनिक भी नहीं करता। विकास का हर पत्थर मजदूरों के खून पसीने से सना होने के बावजूद मजदूरों का स्वयं का जीवन विकास से कोसो दूर हैं। मजदूरों की जिन्दगी दयनीय, अभाव-ग्रस्त तथा दर्द में लिपटी हुई है। मजदूरों की इसी पीड़ा को महसूस करते 8अप्रैल,1929 को कोर्ट में दिये अपने बयान में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने कहा था कि अंत में वह कानून अर्थात औद्योगिक विवाद विद्येयक, जिसे हम बर्बर और अमानवीय समझते हैं, देश के प्रतिनिधियों के सरों पर पटक दिया गया और इस प्रकार करोड़ों संघर्षरत् भूखे मजदूरों को प्राथमिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया और उनकी आर्थिक मुक्ति का एकमात्र हथियार भी छीन लिया गया। जिस किसी ने भी कमर तोड परिश्रम करने वाले मूक मेहनतकशों की हालत पर हमारी तरह सोचा है, वह शायद स्थिर मन से यह सब नहीं देख सकेगा। बलि के बकरों की भंाति शोषकों -और सबसे बड़ी शोषक स्वयं सरकार है-की बलिवेदी पर आये दिन होने वाली मजदूरों की इन मूक कुर्बानियों को देखकर जिस किसी का दिल रोता है वह अपनी आत्मा की चीत्कार की उपेक्षा नहीं कर सकता। मानवता के प्रति हार्दिक सद्भाव तथा अमिट प्रेम रखने के कारण उसे व्यथ्र के रक्तपात से बचाने के लिए हमने चेतावनी देने के इस उपाय का सहारा लिया है और उस आने वाले रक्तपात को हम ही नहीं, लाखो आदमी पहले से देख रहें हैं। क्रांति को स्पष्ट करते हुए अपने बयान में इन्होंने कहा कि क्रान्ति से हमारा अभिप्राय है-अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन। समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प् जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मुहताज हैं। दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढ़कने भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं। यह एक भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड की कगार पर चल रहे हैं।
क्रांतिकारियों के बौद्धिक नेता सरदार भगतसिंह और समाजवादी चिंतक डा0 राम मनोहर लोहिया मेहनत कशों की उपेक्षा को समाज के लिए भयावह मानते थे। इन मेहनतकशों के जीवन स्तर को बगैर अच्छा करे देश की तरक्की के दावे व बातें सिर्फ पूंजीवाद का भौंड़ा व घिनौना प्रलाप है।भारत की वास्तविक शक्ति किसान और मजदूर हैं, इनकी समृद्धि के बगैर देश में खुशहाली आ ही नहीं सकती। इसकी ईमानदार कोशिशें सरकारों को करनी चाहिए क्योंकि -जब तक भूखा इन्सान रहेगा धरती पर तूफान रहेगा।
विकास की अंधाधुंध दौड़ में मानव जाति अपने विनाश की आधारशिला पर एक के बाद एक पत्थर रखती जा रही है। पर्यावरणीय दृष्टिकोण से ग्राम्यांचलों की स्थिति अभी भी बेहतर है। कस्बे और शहर विकसित होने के साथ साथ जल, शुद्ध हवा और स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से जूझ रहें हैं। ग्राम्य अंचलों में जल के भूमिगत् श्रोतों में कमी एक बड़ी समस्या है। नदी-पोखरों का संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है। व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते जल के पारम्परिक श्रोतों को पाटने के चलन ने बड़ी विकट स्थिति पैदा कर दी है। ग्रामीण क्षेत्र आज भी शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार जैसी आवश्यक जन सुविधाओं से वंचित हैं। ग्राम्य विकास का धन भ्रष्टाचारियों के काकस के चलते व्यक्तिगत् तिजोरियों मे। भरा जा रहा है। गावों में आपसी रंजिश की बड़ी वजह पानी निकासी की समुचित व्यवस्था न होना, सम्पर्क मार्गो का व्यवस्थित न होना तथा भूमि सम्बन्धी मामलों में त्वरित निर्णय न होना है। भ्रष्टाचार का दानव विकास का धन किस प्रकार लीलता जा रहा है, यह सर्वविदित है। सरकारी योजनायें लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के कारण अपना जन कल्याणकारी स्वरूप पूर्ण नहीं कर पाती हैं। और लोकतंत्र में सरकारें बगैर जन सहयोग एवं जन दबाव के योजनायें बनाने के अलावा कर भी क्या सकती है।? सिर्फ शासन-प्रशासन को दोषी ठहराने से हमारे मुल्क को हम तरक्की के शीर्ष स्तर पर नहीं ले जा सकते।