Sunday, November 28, 2010

सेनापति पांडुरंग महादेव बापट का जीवन संघर्ष

अरविन्द विद्रोही

किसी भी देश की पहचान उसके गौरवशाली,संघर्षमय इतिहास से होती है।हजारों वर्षों की दासता और दासता की बेड़ियों को तोड़ने में लगे मातृभूमि के लाड़लों की एक बृहद् समृद्धिशाली,त्यागमयी गौरवपूर्ण गाथा है,जो पीढ़ी दर पीढ़ी देश के युवाओं को प्रगति व आत्मसम्मान के पथ पर ले जाने हेतु पथ-प्रदर्शक का कार्य करती रहेगी।भारत-भूमि देवभूमि यूॅं ही नही कही जाती है।यह धरा अपना बचपन,अपनी जवानी,अपना सर्वस्व धरती माता के चरणों में,सेवा में,रक्षा में अर्पित कर देने वाले सपूतों की जन्मदात्री है।एैसे ही एक भारत के लाल पांडुरंग बापट का जन्म 12नवम्बर,1880 को महादेव व गंगाबाई के घर पारनेर-महाराष्ट में हुआ था।
प्रारम्भ में ही आपको बताते चलें कि इनके विषय में साने गुरू जी ने कहा था-सेनापति में मुझे छत्रपति शिवाजी महाराज,समर्थ गुरू रामदास तथा सन्त तुकाराम की त्रिमूर्ति दिखायी पड़ती है।साने गुरू जी बापट को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक,महात्मा गॉंधी तथा वीर सावरकर का अपूर्व व मधुर मिश्रण भी कहते थे।बापट को भक्ति,ज्ञान व सेवा की निर्मल गायत्री की संज्ञा देते थे-साने गुरू जी।बापट ने पारनेर में प्राथमिक शिक्षा के बाद बारह वर्ष की अवस्था में न्यू इंग्लिश हाईस्कूल-पूणे में शिक्षा ग्रहण की।पूणे में फैले प्लेग के कारण बापट को पारनेर वापस लौटना पड़ा।गृहस्थ जीवन में आपका प्रवेश 18वर्ष की आयु में हुआ।अपनी मौसी के घर अहमदनगर में मैटिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर आपने 5वॉं स्थान तथा जगन्नाथ सेठ की छात्रवृत्ति प्राप्त की।कचेहरी में दस्तावेज-नवीस का कार्य आपने इसी दौरान किया।उस समय 12रू प्रति माह की छात्रवृत्ति आपने संस्कृत विषय में हासिल की।उच्च शिक्षा हेतु 3जनवरी,1900 को 20वर्ष की उम्र में डेक्कन कॉलेज,पूणे में दाखिला लिया।छात्रावास में टोपी लगाकर बाहर जाने के नियम का असावधानी पूर्वक उल्लंघन करने के कारण आपको 6महीने छात्रावास से बाहर रहने का दण्ड़ मिला।इस अवसर पर सतारा के नाना साहब मुतालिक ने बापट को अपने कमरे में रख कर सहारा दिया।अपनी उच्च शिक्षा को जारी रखने के उद्देश्य से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् बापट ने बम्बई पहुॅंच कर स्कूल में अस्थायी अध्यापन का कार्य प्रारम्भ किया।सौभाग्य से बापट को मंगलदास नाथूभाई की छात्रवृत्ति मिल गई।अब बापट मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने स्काटलैण्ड पहुॅंच गये।यहां के कवीन्स रायफल क्लब में आपने निशानेबाजी सीखी।
भारतीय क्रान्ति के प्रेरणाश्रोत श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा,जिन्होंने लन्दन में क्रान्तिकारियों के लिए इण्डिया हाउस की स्थापना की थी,इण्डियन सोशलाजिस्ट नामक अखबार से क्रांति का प्रचार-प्रसार किया था,उस महान विभूति से यहीं पर पांडुरंग महादेव बापट की मुलाकात हुई।ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन भारत की परिस्थिति विषय शेफर्ड सभागृह में निबन्ध-वाचन के अवसर पर श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा उपलब्ध करायी गयी सामग्री के आधार पर आपने भाषण दिया,आपका निबन्ध छपा।तत्काल मुम्बई विद्यापीठ सिफारिश पर बापट की छात्रवृत्ति समाप्त हो गई।अपनी मातृभूमि की दशा को बखान करने की कीमत चुकायी बापट ने।अब बापट ने क्रान्ति की शिक्षा ग्रहण करना प्रारम्भ कर दिया।इण्डिया हाउस में रहने के दौरान बापट,वीर सावरकर के सम्पर्क में आये।आपको पेरिस बम कौशल सीखने भेजा गया।अपनी विद्वता का इस्तेमाल आपने अपने देश की सेवा व लेखन में किया।दादा भाई नौरोजी की अध्यक्षता में होने वाले 1906 के कांग्रेस अधिवेशन में वॉट शैल अवर कांग्रेस डू तथा 1907 में सौ वर्ष बाद का भारत आपके कालजयी लेख हैं।
मजदूरों-मेहनतकशों-आम जनों को एकता के सूत्र में बांघने तथा क्रांति की ज्वाला को तेज करने के उद्देश्य से श्यामजी कृष्ण वर्मा व सावरकर की सलाह पर बापट भारत वापस आये।शीव बन्दरगाह पर उतरने के पश्चात् धुले-भुसावल होते हुए कलकत्ता के हेमचन्द्र दास के घर माणिकतल्ला में पहुॅंचे।यहां कई क्रांतिकारियों के साथ आपकी बैठक हुई।इन्ही क्रान्तिकारियों में से एक क्रान्तिकारी बम प्रकरण में दो माह बाद गिरफतार हो गया,जो मुखबिर बन गया।बापट की भी तलाश प्रारम्भ हो गई।साढ़े चार वर्ष बाद इन्दौर में पुलिस के हाथों बापट की गिारफतारी हुई।इसी बीच मुखबिर बने नरेन्द्र गोस्वामी को क्रान्तिकारी चारू चन्द्र गुहा ने मार गिराया फलतःबापट पर कोई अभियोग सिद्ध नहीं हो सका।पांच हजार की जमानत पर छूटकर बापट पारनेर घर आकर सामाजिक सेवा,स्वच्छता जागरूकता,महारों के बच्चों की शिक्षा,धार्मिक प्रवचन आदि कार्यों में जुट गये।पुलिस व गुप्तचर बापट के पीछे पड़े रहे।1नवम्बर,1914 को पुत्र रत्न की प्राप्ति के पश्चात् नामकरण के अवसर पर प्रथम भोजन हरिजनों को कराने का साहसिक कार्य किया था-बापट ने।अप्रैल1915 में पूना के वासु काका जोशी के चित्रमय जगत नामक अखबार में फिर 5माह बाद तिलक के मराठी पत्र में बापट ने कार्य किया।पूणे में भी सामाजिक कार्य व रास्ते की साफ-सफाई करते रहते थे-बापट।बापट ने मराठा पत्र छोड़ने के बाद पराड़कर के लोक-संग्रह दैनिक में विदेश राजनीति पर लेखन करने के साथ-साथ डॉ0श्रीधर व्यंकटेश केलकर के ज्ञानकोश कार्यालय में भी काम किया।आपकी पत्नी की मृत्यु 4अगस्त,1920 को हो गई।इस समय बापट 2अगस्त,1920 से चल रही श्रमिक मेहतरों की मुम्बई में चल रही हड़ताल का नेतृत्व कर रहे थे।झाडू-कामगार मित्रमण्डल का गठन कर सन्देश नामक समाचार पत्र में विवरण छपवाया।मानवता की शिक्षा देते हुए,मुम्बई वासियों को जागृत करने हेतु,गले में पट्टी लटका कर भजन करते हुए 1सितम्बर,1920 को आप चौपाटी पहॅंुचे।यह हड़ताल सफल हुई।
इसके पश्चात् अण्ड़मान में कालेपानी की सजा भोग रहे क्रान्तिकारियों की मुक्ति के लिए डा0नारायण दामोदर सावरकर के साथ मिलकर आपने हस्ताक्षर अभियान चलवाया,घर-घर भ्रमण किया,लेख लिखे,सभायें आयोजित की।बापट ने राजबन्दी मुक्ता मण्डल की भी स्थापना की।कालेपानी की कठोर यातना से इन्द्रभूषण सेन आत्महत्या कर चुके थे तथा उल्लासकर दत्त पागल हो गये थे।महाराष्ट में सह्याद्रि पर्वत की विभिन्न चोटियों पर बॉंध बॉंधने की योजना टाटा कम्पनी ने की।मुलशी के निकट मुला व निला नदियों के संगम पर प्रस्तावित बॉंध से 54गॉंव और खेती डूब रही थी।विनायक राव भुस्कुटे ने इस के विरोध में सत्याग्रह चला रखा था।1मई,1922 को दूसरे सत्याग्रह की शुरूआत होते ही बापट को गिरफतार कर 6माह के लिए येरवड़ा जेल भेज दिया गया।छूटने के बाद बापट मुलशी के विषय में घूम-घूम कर कविता पाठ करते,प्रचार फेरियां निकलवाते।नागपुर में बेलगॉंव तक भ्रमण किया बापट ने।अब बापट सभाओं में कहते,-अब गप्प मारने के दिन खत्म हुए,बम मारने के दिन आ गये हैं।मुलशी प्रकरण में 23अकतूबर,1923 को बापट तीसरी बार गिरफतार हो गये।रिहाई के बाद रेल पटरी पर गाड़ी रोकने के लिए पत्थर बिछाकर,हाथ में तलवार,कमर में हथियार और दूसरे हाथ में पिस्तौल लेकर बापट धोती की कॉंख बॉंधे अपने 5साथियों के साथ खड़े थे।इस रेल रोको आन्दोलन में गिरफतारी के बाद 7वर्ष तक सिंध प्रांत की हैदराबाद जेल में बापट अकेले कैद रहे।मुलसी आन्दोलन से ही बापट को सेनापति का खिताब मिला।रिहाई के बाद 28जून,1931को महाराष्ट कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये।विदेशी बहिष्कार का आन्दोलन चला।अपने भाषणों के कारण बापट फिर जेल पहुॅंच गये।सिर्फ 5माह बाद ही गिरफतार हुए बापट ने वकील करने से मना कर दिया।7वर्ष के काले पानी तथा 3वर्ष की दूसरे कारावास में रहने की दूसरी सजा मिली।जेल में रहने के ही दौरान बापट के माता-पिता की मृत्यु हो गई।बाहर कांग्रेस ने सार्वजनिक हड़ताल व सभायें की।येरवड़ा जेल में बन्द गॉंधी जी के अनशन के समर्थन में बापट ने जेल में ही अनशन किया।सूत कातने,कविता लिखने,साफ-सफाई करने में वे जेल में अपना समय बिताते।अनशन में स्वास्थ्य खराब होने पर उन्हें बेलगांव भेज दिया गया।23जुलाई,1937 को रिहा कर दिये गये सेनापति बापट के रिहाई के अवसर पर स्वागत हेतु बहुत विशाल सभा हुई।
सुभाष चन्द्र बोस के द्वारा फारवर्ड ब्लाक की स्थापना करने पर बापट को महाराष्ट शाखा का अध्यक्ष बनाया गया।द्वितीय विश्व युद्ध में भारत को शामिल करने का किया -फारवर्ड ब्लाक ने।भाषण दिये गये।कोल्हापुर रियासत में धारा144 लागू थी,वहॉं भाषण देने के कारण आपको गिरफतार की कराड़ लाकर छोड़ दिया गया।आपने फिर कोल्हापुर में सभा कर विचार रखे।5अप्रैल,1940 को मुम्बई स्टेशन पर आपको गिरफतार कर कल्याण छोड़ा गया तथा मुम्बई प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।नजरबन्दी के बावजूद आपने चौपाटी में पुलिस कमिशनर स्मिथ की मौजूदगी में उर्दू में भाषण दिया,इस अवसर पर अंग्रेज का पुतला तथा यूनियन जैक भी जलाया गया।बापट को गिरफतार कर नासिक जेल में रखा गया।यहां पर बापट का वीर पुत्र वामनराव भी द्वितीय विश्व युद्ध के विरोध की सजा में बन्द थे।20मई,1944को आपकी पुत्री का देहान्त हो गया तथा सात माह की नातिन की जिम्मेदारी भी आप पर आ गई।
नवम्बर,1944 में विद्यार्थी परिषद का आयोजन हुआ।चन्द्रपुर,अकोला की सभाओं के बाद बापट अमरावती की सभा के पहले गिरफतार हो गये।एक वर्ष की सजा हो गई।1946 में दुर्भिक्ष पड़ा।इस अवसर पर मजदूरों का साथ दिया सेनापति बापट ने तथा सहायता निधि जमा करके मजदूरों की मदद की।मातृभूमि की सेवा करने की जो शपथ 1902 में छात्र जीवन में बापट ने ली थी,अक्षरशःपालन किया।देश के लिए पूरा जीवन व्यतीत कर देने वाले इस सेनापति का अधिकांश समय जेल में ही बीता।संयुक्त महाराष्ट की स्थापना व गोवा मुक्ति आन्दोलन के योद्धा बापट सदैव हमारे मध्य सदैव प्रेरणा बन करके रहेंगे।आजादी के दिन 15अगस्त,1947 को बापट ने पुणे शहर में तिरंगा फहराने का गौरव हासिल किया।सेनापति बापट की देहावसान 28नवम्बर,1967 को हुआ था।पुणे-मुम्बई में सेनापति बापट के सम्मान में एक प्रसिद्ध सड़क का नामकरण किया गया है।

Saturday, November 27, 2010

छात्र संघ की बहाली लोकतान्त्रिक अधिकार

छात्र संघ की बहाली लोकतान्त्रिक अधिकार

अरविन्द विद्रोही
भारतीय राजनीति आज समाजसेवा का माध्यम न रहकर सत्ता प्राप्ति और सुनियोजित तरीके से जनता की मेहनत की कमाई को लूटने का जरिया बन गई है।लोकसभा चुनावों में,विधानसभा चुनावों में,पंचायती चुनावों में प्रत्याशियों के द्वारा चुनाव में विजयी होने के लिए अपनाये जाने वाले अनैतिक एवं असंवैधानिक कृत्यों को सभी जानते भी हैं और स्वीकारते भी हैं।समस्त राजनैतिक दल पूरे जोशो-खरोश से युवा वर्ग को आकर्षित करने के लिए नाना प्रकार के लोक-लुभावन वायदे करते नजर आते हैं।अधेड़ हो चुके अपने अनुभव हीन पुत्रों को तमाम राजनेता युवा नेता के रूप् में प्रस्तुत करके किसी साज-सज्जा की,उपभोग की वस्तु की तरह प्रचारित-प्रसारित करने में करोड़ों रूपया खर्च कर चुके हैं।आज 18वर्ष की उम्र का कोई भी युवा अपना मत चुनावों में अपना जनप्रतिनिधि निर्वाचित करने में दे सकता है।
लोकतंत्र का दुर्भाग्य कहें या वंशानुगत राजनीति का प्रभाव कहें कि भारत में प्रधान से लेकर सांसद तक के निर्वाचन में अपना मत देने वाला युवा वर्ग अपने शिक्षण संस्थान में अपना छात्र-संघ का प्रतिनिधि नहीं निर्वाचित कर सकता है।कारण है छात्र संघों का निर्वाचन बन्द होना।छात्र राजनीति लोकतांत्रिक राजनीति की प्रयोगात्मक,शिक्षात्मक व प्राथमिक पाठशाला होती है और इस राजनीति पर प्रतिबन्ध लगाकर अपने क्षमता के बूते छात्र-छात्राओं के हितों के लिए संघर्ष करके राजनीति में आये गैर राजनैतिक पृष्ठभूमि के होनहारों को राजनीति में अपना स्थान बनाने से रोकने के लिए यह दुष्चक्र रचा गया है।यह दुष्चक्र युवा वर्ग ही तोडेगा,इसमें तनिक भी सन्देह की गुंजाइश नही है।क्या सिर्फ इस दौरान आम युवा वर्ग को राजनीति में आने से रोकने का दुष्चक्र रचा गया है?नहीं.....छात्र-संघ पर प्रतिबन्ध लगाना,युवा वर्ग राजनीति में प्रवेश न करे इसका प्रयास पूर्व में भी किया गया है।लेकिन घ्यान रखना चाहिए कि भारत ही नहीं समूचे विश्व के इतिहास में जब भी तरूणाई ने अव्यवस्था के खिलाफ अंगड़ाई मात्र ही ली तो परिणामस्वरूप बड़ी-बड़ी सल्तनतें धूल चाटने लगी।क्रांति व युद्ध का सेहरा सदैव नौजवानों के ही माथे रहा है।छात्र-संघ बहाली की लड़ाई ने अब जोर पकड़ना प्रारम्भ कर दिया है।केन्द्र सरकार की सर्वेसर्वा सोनिया गॉंधी को इलाहाबाद यात्रा के दौरान छात्रों विशेषकर समाजवादी पार्टी के युवाओं ने भ्रष्टाचार-महॅंगाई आदि मुद्दों पर अपने विरोध प्रदर्शन से लोहिया के अन्याय के खिलाफ संघर्ष के सिद्धान्त को कर्म में उतार कर खुद को साबित किया है।अब छात्र-छात्राओं,युवा वर्ग को अपने जनतांत्रिक अधिकार की लड़ाई लड़कर अधिकार हासिल करके खामोश नहीं बैठना है वरन् सतत् संघर्ष का रास्ता अख्तियार करके वंशानुगत राजनीति की यह जो विष बेल बड़ी तेजी से भारतीय लोकतंत्र में फैल रही है,इसकी जड़ में मठ्ठा डालने का काम भी करना है।छात्र-संघों का चुनाव न कराना एक बड़ा ही सुनियोजित षड़यंत्र है-आम जन के युवाओं को राजनीति में संघर्ष के रास्ते से आने की।
इसी प्रकार से जंग-ए-आजादी के दौरान तमाम् नेता विद्यार्थियों को राजनीति में,क्रंाति के कामों में हिस्सा न लेने की सलाहें देते थे,जिसके जवाब में क्रांतिकारियों के बौद्धिक नेता भगत सिेह ने किरती के जुलाई,1928 के अंक में सम्पादकीय विचार में एक लेख लिखा था।इस लेख में भगत सिंह ने लिखा था,-‘‘दूसरी बात यह है कि व्यावहारिक राजनीति क्या होती है?महात्मा गॉंधी,जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यावहारिक राजनीति,पर कमीशन या वाइसराय का स्वागत करना क्या हुआ?क्या वह पोलिटिक्स का दूसरा पहलू नहीं?सरकारों और देशों के प्रबन्ध से सम्बन्धित कोई भी बात पोलिटिक्स के मैदान में ही गिनी जायेगी,तो फिर यह भी पोलिटिक्स हुई कि नहीं?कहा जायेगा कि इससे सरकार खुश होती है और दूसरी से नाराज?फिर सवाल तो सरकार की खुशी या नाराजगी का हुआ।क्या विद्यार्थियों को जन्मते ही खुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए?हम तो समझते हैं कि जब तक हिन्दुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे हैं तब तक वफादारी करने वाले वफादार नहीं,बल्कि गद्दार हैं,इन्सान नहीं,पशु हैं,पेट के गुलाम हैं।तो हम किस तरह कहें कि विद्यार्थी वफादारी का पाठ पढ़ें।‘‘
आज भगत सिंह के इस लेख के 82 वर्ष एवं भारत की ब्रितानिया दासता से मुक्ति के 63वर्ष बाद भी युवा वर्ग को मानसिक गुलामी का पाठ पढ़ाने का,वंशानुगत राजनैतिक चाकरी करवाने का दुष्चक्र रचा गया है।छात्र-संघ को बहाल न करना तथा अपने दल में छात्र व युवा संगठन रखना राजनैतिक दास बनाने के समान नहीं तो ओर क्या है?क्रंातिकारियों के बौद्धिक नेता भगत सिंह ने अपने इसी लेख में आगे लिखा,-‘‘सभी मानते हैं कि हिन्दुस्तान को इस समय ऐसे देश-सेवकों की जरूरत है,जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आजादी के लिए न्यौछावर कर दें।लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे?क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटों में फॅंसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे?यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फॅंसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो।‘‘
आज आजाद भारत में छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हरण किया जा रहा है।सत्ताधारी दलों की निरंकुशता का चाबुक छात्र हितों व छात्र राजनीति पर बारम्बार प्रहार करके राजनीति के प्राथमिक स्तर को नष्ट करने पर आमादा है।इन छात्र-युवा जन विरोधी सरकारों को छात्र-संघ बहाली का ज्ञापन देना,इनसे अपने अधिकारों की बहाली की मांग करना अन्धे के आगे रोना,अपना दीदा खेाना के समान है।सन् 1960-62 में डा0राम मनोहर लोहिया ने नारा दिया था-देश गरमाओं।जिसका अर्थ है,-‘‘आदमी को अन्याय और अत्याचार पूर्ण रूतबे से लड़ने के लिए हमेशा तैयार करना।दरअसल अन्याय का विरोघ करने की अीदत बन जानी चाहिए।आज ऐसा नहीं है।आदमी लम्बे अर्से तक गद्दी की गुलामी और बहुत थोडें अर्से के लिए उससे नाराजगी के बीच एक अन्तर करता रहता है।‘‘वर्तमान समय में छात्र संघ की बहाली व छात्र हितों की आवाज उठाने वाले लोगों को शासन-सत्ता व भाड़े के गुलामों के दम पर कुचलने का प्रयास किया जा रहा है।छात्र संघ बहाली के लिए आंदोलित सभी छात्र-युवा संगठनों को एक साथ आकर अनवरत् सत्याग्रह व हर सम्भव संघर्ष का रास्ता अख्तियार करना चाहिए।

Wednesday, November 24, 2010

संघर्ष के रास्ते से समाजवादी राज्य की स्थापना

संघर्ष के रास्ते से समाजवादी राज्य की स्थापना

अरविन्द विद्रोही

समाजवाद और समाजवादी आन्दोलन ही किसानों,मजदूरों,छात्र-छात्राओं,महिलाओं एवं आम जनों के अधिकार बहाली का एकमात्र रास्ता है।पूँजीवाद का राक्षस समाज के प्रत्येक अंग को निगल चुका है। भ्रष्टाचारियों का काकस समाज व देश का रक्त चूसता ही चला जा रहा है।पूँजीवाद के राक्षस और भ्रष्टाचार के दानव का मुकाबला आम जन में सदाचरण, नैतिकता, सामूहिकता, सामाजिक एकता व देश-प्रेम के बीज रोपित,अंकुरित,पोषित व पल्लवित करके ही किये जा सकते हैं।शासन सत्ता के जिम्मेदार लोग भ्रष्टाचार में सराबोर होकर बेशर्मी का लबादा पहने हुए भारत के लोकतन्त्र को भीड़तन्त्र में तब्दील करके एक कुशल चरवाहे की तरह भारतीय जनमानस को जानवरों की मानिन्द हांक रहें हैं।

जनता के प्रतिनिधि आज अव्वल दर्जे के स्वार्थी हो गये हैं।राजनीति में सत्ता प्राप्ति और सत्ता प्राप्ति के पश्चात् जनता के द्वारा दिये गये विभिन्न राजस्व करों से अर्जित धन से बने विकास कार्यों के प्रचुर धन की लूट व बन्दर-बाँट ही इनकी राजनीति का प्रमुख उद्देश्य बन चुका है।आज महामानव महात्मा गाँधी के ग्राम्य स्वराज्य की कल्पना अनियंत्रित व अनियोजित औद्योगीकरण के चलते दम तोड़ चुकी है।क्रांतिकारियों के बौद्धिक नेता भगत सिंह के अनुसार-क्रांति की वास्तविक सेनायें किसान व मजदूर हैं,और आज भी भारत का किसान अपनी कृषि गत् समसयाओं से परेशान है,किसान अपनी कृषि योग्य बेशकीमती भूमि के मनमाने अधिग्रहण से भयाक्रांत है।किसान को खाद,बीज,सिंचाई,बिजली,शिक्षा,स्वास्थ्य परक सुविधा कुछ भी समय पर पूर्णतःमयस्सर नहीं है।मजदूर कल-कारखानों के मालिकान की शोषक नीति के शिकार हो कर दयनीय जीवन जीने को मजबूर हैं।

डा0राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि लोग मेरी बात सुनेंगें जरूर,लेकिन मेरे मरने के बात।डा0लोहिया की बातें मात्र 12वर्ष की उम्र में ही आत्मसात् कर चुके,आज 72वर्ष की उम्र के मुलायम सिंह यादव ने डा0लोहिया के विचारों व समाजवाद की अग्नि को प्रज्जवलित करे रहने का बहुत ही बड़ा, नेक,सराहनीय व अनुकरणीय काम किया है।संघर्षों की ज्वाला में तपकर व समाजवादी मूल्यों की बदौलत मुलायम सिंह यादव ने अपने राजनैतिक जीवन में अपना लोहा समस्त राजनैतिक दलों व नेताओं को मनवाया।मुलायम सिंह यादव की राजनैतिक-मानसिक दृढ़ता का कारण उनकी महात्मा गाँधी,भगत सिंह,डा0लोहिया,चैधरी चरण सिंह जैसी महीन विभूतियों के आदर्शों,विचारों पर पकड़ और अनवरत् चलते रहने का संकल्प ही है,एैसा मेरा अपना मानना है।अब समाजवादी आन्दोलन,लोहिया के लोगों,समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं,मुलायम सिंह यादव के अनुयायियों को समाजवाद के मायने व समाजवादी आन्दोलन व कार्यक्रम पुनःपढ़ना चाहिए।डा0लोहिया के द्वारा प्रदत्त कार्यक्रम समाजवादी विचारधारा व आन्दोलन के प्राण हैं।डा0लोहिया के कार्यक्रमों पर चले बगैर,जनता को साथ लिए बगैर,सामाजिक चेतना का काम किए बगैर कोई भी पक्का समाजवादी कार्यकर्ता नहीं हो सकता है।अपने को समाजवादी कहने मात्र से,किसी समाजवादी संगठन में पदाधिकारी हो जाने मात्र से कोई समाजवादी नही हो जाता है।समाजवादी तो वही है जिसने समाजवाद के सिद्धान्तों को आत्मसात् किया हो,उन सिद्धान्तों पर चला हो,अड़िग रहा हो,जिसके लिए राजनीति सत्ता साधन मात्र हो-साध्य नही।समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव समाजवाद की कसौटियों पर खरे साबित हो चुके हैं।13मार्च,2003 को समाजवादी पार्टी के विशेष राष्टीय सम्मेलन में मुलायम सिंह यादव ने कहा,‘‘क्या याद है,4-5नवम्बर1992 को जिस बेगम हजरत महल पार्क के ऐतिहासिक मैदान में फैसला लिया था,संकल्प किया था,क्या वह संकल्प याद है?क्या आप उस संकल्प पर चलने के लिए तैयार हैं?इसीलिए हम कहते हैं कि किस खेत की मूली है यह सरकार,चाहे वह दिल्ली की हो,चाहे उत्तर-प्रदेश की हो।हम लोग वे लोग हैं जो देश के गरीब लोगों के लिए इस देश के नौजवान विद्यार्थियों के लिए,इस देश के किसानों के लिए,झुग्गी-झोपड़ी वाले लोगों के लिए जिन्होंने 56साल की आजादी के बाद भी पक्की छत नहीं देखी,उनको छत दिलाने के लिए,नौजवानों को रोजगार दिलाने के लिए,किसानों की लूट बचाने के लिए,वैट द्वारा व्यापारियों को आतंकित करके उनका पूरा धंधा बर्बाद करने के खिलाफ,मँहगाई बढ़ाने के खिलाफ,इस देश के विकास के लिए,उत्तर प्रदेश के विकास के लिए,सारे हिन्दुस्तान के विकास के लिए,चाहे हम लोगों को खून नहीं,जीवन की आहुति भी देनी पड़ेगी तो देंगें,हम इस व्यवस्था को बदलेंगे।’’

और आज नवम्बर,2010 में,वर्तमान परिस्थितियों में समाजवादी आन्दोलन से जुड़े लोगों विशेषकर समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं,पदाधिकारियों को आम जनता के मुद्दों पर संघर्ष की तैयारी करके संगठन करना चाहिए।मुलायम सिंह यादव में यह क्षमता विद्यमान है कि वे जनता के हित के मुद्दों पर आन्दोलन खड़ा कर देते हैं।समाजवादी आन्दोलन को अब कर्म प्रधान कार्यकर्ताओं की पुनःआवश्यकता आन पड़ी है।देश की समस्याओं,जनता के बुनियादी अधिकार व समाज के प्रति कत्र्तव्यों पर मुखरित होकर ही समाजवादी आन्दोलन अपना विकास कर सकता है।राजनीति का व्यवसायीकरण व आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की राजनीति में प्रभावी कब्जेदारी के खिलाफ मोर्चा समाजवादियों को ही सम्भालना होगा।डा0लोहिया के कार्यक्रम क्रमशःसमान शिक्षा नीति,विशेष अवसर व समता के सिद्धान्त,चैखम्भा राज,पंचायती राज का अनुपालन,अल्पसंख्यकों की समस्याओं,न्यूनतम मजदूरी,कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण का विरोध,भारतीय संस्कृति का सर्व-धर्म समभाव प्रधान रूप,हिन्दी का प्रसार आदि वैचारिक क्रांति के रूप में हैं।इन कार्यक्रमों के जमीनी संचालन से एक लहर उत्पन्न होगी जो देश के समस्त समाजवादियों को जागृत करके देश को सशक्त-समृद्ध बनायेगी।प्रसिद्ध समाजवादी लेखक लक्ष्मीकांत वर्मा के कथनानुसार-कर्म और ज्ञान,बुद्धि और हाथ,चिन्तन और वाणी एक सजग प्रहरी के रूप में यदि समाजवादी आन्दोलन को दिशा देंगें और मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में निरन्तर धार पैदा होती रहेगी तो निश्चय ही समाजवादी आन्दोलन का भविष्य उज्जवल होगा।

समाजवादी आन्दोलन,डा0लोहिया की सोच,मुलायम सिंह यादव का समाजवादी राज्य स्थापना का प्रयास व संकल्प तभी साकार हो सकते हैं,जब समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता व पदाधिकारी कर्म के क्षेत्र में समाजवादी विचारों को आन्दोलन का स्वरूप प्रदान करें।

Sunday, November 21, 2010

समाजवादी आन्दोलन,संघर्ष और मुलायम सिंह यादव

समाजवादी आन्दोलन,संघर्ष और मुलायम सिंह यादव

अरविन्द विद्रोही

समाजवादी आन्दोलन की विरासत को संजोंये हुए धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री उ0प्र0शासन के पद पर रहते हुए 1995 में कहा था,-डा0लोहिया जरूर चले गये हैं दुनिया से लेकिन उनके विचारों को कोई मिटा नहीं सकता।उनके विचारों पर चलना पडे़गा।आज उसी पर चलने की हम लोग कोशिश कर रहें हैं।चाहे विशेष अवसर की नीति हो,चाहे भूमि सेना का गठन हो,चाहे अंग्रेजी हटाओ का आन्दोलन हो,उसका समर्थन हम आज कर रहे हैं,सरकार में रहकर भी कर रहे हैं।

भारत में समाजवाद की सोच,विचारधारा का जन्म भारत की ब्रितानिया हुकूमत से जंग-ए-आजादी के दौरान जेल के सींखचों,काल कोठरी में हुआ था।राजनैतिक आजादी व मूल्यों के साथ-साथ भारत में समाजवाद मूलतःनैतिक मूल्यों से भी जुड़ा हुआ है।समाजवादी आन्दोलन के पुरोधा आचार्य नरेन्द्र देव ने महात्मा गाँधी के जीवन दर्शन,व्यक्तित्व व जंग-ए-आजादी के आन्दोलन की जानकारी हासिल करके ही समाजवादी आन्दोलन को समझने पर जोर दिया था।लोकनायक जयप्रकाश नारायण अपने जीवन की अंतिम सांस तक समाजवाद,गाँधीवाद,सर्वोदय ओर सम्पूर्ण क्रंाति की अवधारणाओं के लिए जूझते रहे।जे0पी0 का भी सारा आन्दोलन गाँधी जी के सिद्धान्तों और समाजवाद के समीकरणों पर ही आधारित है।समाजवादी संगठन और समाजवादी नेता पूर्णरूपेण महात्मा गाँधी के विचारों से प्रभावित थे।दरअसल वास्तविकता ही है कि डा0लोहिया के देहावसान के पश्चात् समाजवादी आन्दोलन में बिखराव आ गया।जे0पी0 का व्यवस्था परिवर्तन के लिए खड़ा किया गया जनान्दोलन मात्र सत्ता परिवर्तन बन के रह गया।डा0लोहिया के बाद,1967 से लेकर 1992 तक के बीच समाजवादी आन्दोलन निरन्तर बिखरता और टूटता ही रहा।निरन्तर टूटन के बावजूद आज समाजवादी आन्दोलन की प्रासंगिकता बनी रहने के पीछे मुख्य बात यह है कि 1992 से जब से मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी की पुर्नस्थापना की और 4-5नवम्बर,1992 को बेगम हजरत महल पार्क लखनउ में सम्पन्न हुए समाजवादी पार्टी के स्थापना सम्मेलन में भारत के लगभग सभी प्रदेशों के प्रतिनिधि शामिल हुए।इस सम्मेलन से मुलायम सिंह यादव ने एक बार फिर डा0लोहिया के कार्यक्रम अन्याय के विरूद्ध सिविल नाफरमानी,सत्याग्रह,मारेंगें नहीं लेकिन मानेंगें नहीं,अहिंसा,लघु उद्योग,कुटीर उद्योग आदि मुद्दों को जीवित करने का सराहनीय कार्य किया।इस वक्त की चुनौतियों को स्वीकार करके मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी चरित्र के वास्तविक रूप को उभारा।डा0लोहिया के दामन को जिस इच्छा शक्ति के सहारे मुलायम सिंह यादव ने पकड़ा था,उसी इच्छा शक्ति को लोगों ने जिद्दीपन भी करार दिया।भारतीय राजनैतिक पार्टियों की कार्यशैली और संगठनात्मक प्रक्रिया में निरन्तर गिरावट जारी थी और आज भी जारी है।भीड़ का पैमाना ही राजनीति की सफलता आंकी जाती रही है।समाजवादी पार्टी के इस स्थापना सम्मेलन में सबसे अच्छी बात थी कि इसमें भीड़ की जगह तपे तपाये समाजवादी विचारों के वाहक गण थे।यह समाजवादी विचारों के लोग लोहिया के विचारों और समाजवाद की स्थापना के ध्येय से एकत्र हुए थे।इस समय तक समाजवादी डा0लोहिया द्वारा दिये गये सटीक मुहावरों व नारों को लगभग विस्मृत कर चुका था।डा0लोहिया के मुहावरे वैचारिक सोच को तीव्र करने के साथ-साथ कर्म करने के लिए भी प्रेरित करते हैं।अंग्रेजी हटाओ, जाति तोड़ो,दाम बांधो,हिमालय बचाओ इन सब आन्दोलनों में कर्म की प्रधानता के साथ-साथ प्रेरक शक्ति भी है।डा0लोहिया के विचारों और अनुशासन की छत्रछाया में मुलायम सिंह यादव ने कर्म और भाषा को एक साथ मिलाकर सकारात्मक रूप प्रदान करने की कार्यशैली को पुर्नजीवित किया।गाँव को आत्मनिर्भरता के प्रश्न पर मुलायम सिंह ने कहा था,‘‘हम चाहते है। कि हमारे गाँवों का विकास हो,प्राथमिकता गाँव के विकास की हो’’व्यवस्था के सवाल पर मुलायम सिंह ने कहा था,‘‘व्यवस्था परिवर्तन का मतलब है सामाजिक परिवर्तन,सामाजिक परिवर्तन का मतलब सामाजिक न्याय नहीं है। सामाजिक न्याय तो केवल एक अंग है सामाजिक परिवर्तन का।जहाँ पर पिछड़ों का बहुमत है,वे दबंग हैं और अगड़ी जाति के लोग कमजोर हैं,तो अगड़ी जाति के लोगों को भी वहाँ परेशान किया जाता है।गाँव में उनका पानी रोका जाता है,नाला रोका जाता है,ट्यूबवेल पर पानी नहीं लगाने देते।यह भी स्थिति आज है।इसलिए हम सम्पूर्ण व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं,व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं,सामाजिक परिवर्तन चाहते हैं जिसमें शोषण व अत्याचार समाज में किसी का भी न हो।चाहे गरीब हो,चाहे अमीर हो,चाहे अगड़ा हो,चाहे पिछड़ा हो।इस तरह का समाज हम चाहते हैं।हम समता चाहते हैं,सम्पन्नता चाहते हैं,परिवर्तन चाहते हैं,बख्शीश की राजनीति खत्म करना चाहते हैं,ताकि समाज में कोई किसी की कृपा पर न रहे।ऐसा समाज बनाने का हमारा सपना है।इसीलिए हम चाहते हैं कि हमारा देश स्वावलम्बी बने।देश स्वावलम्बी बनेगा तो हमारा स्वाभिमान जागेगा,हमारे देश का स्वाभिमान जाग जायेगा।हम अपने गौरव को,स्वाभिमान को कायम रखना चाहते है। और आगे बढ़ाना चाहते है।।यही हमारी नीति है।’’इस वचन पर मुलायम सिेह यादव ने कभी समझौता नही किया।

आज भी बहुत से पेशेवर और शौकिया राजनीति करने वाले यह समझते हैं कि समाजवादी आन्दोलन और समाजवादी पार्टी का गठन चुनाव और सत्ता पर काबिज होने के उद्देश्य मात्र के लिए मुलायम सिेह यादव ने किया है।डा0 लोहिया के व्यक्तित्व को आत्मसात् कर चुके मुलायम सिेह यादव जब डा0 लोहिया के ही अंदाज में मैं अकेले ही चलूगा का उद्घोष करते हैं तो लोग परेशान हो जाते हैं।मात्र 12वर्ष की उम्र में ही डा0राम मनोहर लोहिया के नहर आन्दोलन में जेल जाने वाले मुलायम सिंह यादव का राजनैतिक जीवन संघर्षों व त्याग-समर्पण की देन है।मुलायम सिंह यादव ने कई बार अपने भाषणों में कहा है कि,-देश की एकता और अखण्डता,आर्थिक शोषण से मुक्ति तथा दलितों और पिछडे वर्गों के हितों की रक्षा और अल्पसंख्यक मुसलमानों और हर प्रकार से पीड़ित नारी जाति की मुक्ति के लिए उन्होंने समाजवादी पार्टी का पुर्नगठन किया है।सत्ता साधन है,साध्य नहीं हो सकती है,उनकी समाजवादी पार्टी सत्ता में आये या न आये किन्तु उनकी नीतियों में परिवर्तन नहीं हो आयेगा।आज की तारीख में भी समाजवादी विचारधारा के लोग,आम जन को अगर किसी राजनैतिज्ञ से जनता के हित के लिए संघर्ष की आशा रखता है तो वह सिर्फ और सिर्फ समाजवादी पार्टी के अगुआ मुलायम सिंह यादव ही हैं।उ0प्र0 सहित समूचे देश में किसान बेहाल है,भूमि अधिग्रहण के मामलो ने किसानों को संकट में डाल दिया है।मंहगाई के दानव ने आम नागरिकों की दो वक्त की रोटी को भी निगल लिया है।मंहगाई के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन ने समाजवादी नेतृत्व के प्रति जनता में विश्वास जगाया है।

मुलायम सिंह यादव अपने संघर्ष व नेतृत्व क्षमता की बदौलत आज समाजवादी आन्दोलन के सबसे बड़े अगुआ व संगठनकर्ता हैं।मुलायम सिंह यादव की पार्टी समाजवादी पार्टी के पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं को समाजवादी आन्दोलन का पुनः अध्ययन करना चाहिए।तात्कालिक अन्याय का प्रतिरोध जिस बेबाकी से और बिना राजनैतिक नुकसान की परवाह किये मुलायम सिंह यादव करते हैं वह एक नजीर के रूप में सभी के सामने है।डा0 लोहिया के शिष्य मुलायम सिंह यादव ने तो अपने जीवन में अपने नेता लोहिया के सिद्धान्त व विचारों को आत्मसात् किया और उनको बखूबी निभाया भी।लेकिन अफसोस जनक बाद यह है कि समाजवादी पार्टी के लोग अपने नेता मुलायम सिंह यादव के संघर्ष-कत्र्तव्य पथ पर चलने की जगह सिर्फ सियासी गोष्ठियों और चुनावी तिकड़म में लगे रहते हैं।समाजवादी आन्दोलन व पार्टी की स्थापना सत्ता पाना ही नहीं है-यह तथ्य जब तक समाजवादी पार्टी के लोगों के द्वारा आत्मसात् नहीं किया जायेगा,तब तक कोई भी बड़ा संघर्ष व आन्दोलन नही खडा हो पायेगा।डा0 लोहिया के कार्यक्रम जो कि मुलायम सिंह यादव ने अपने जीवन के लक्ष्य बना लिए,उन लक्ष्यों को पूरा करने का जज्बा अब समाजवादियों में दिखाई पड़ना चाहिए।छात्रसंघ बहाली का आन्दोलन,मंहगाई के खिलाफ संघर्ष,भूमि अधिग्रहण के खिलाफ मोर्चा,नौकरशाही व भ्रष्टाचार के खिलाफ जन जागरण अभियान,हिन्दी आन्दोलन,बिजली की समस्या पर लगातार आन्दोलन,जन समस्याओं पर जेल भरो आन्दोलन लगातार चलाते रहना समाजवादी आनदोलन की मूल प्रवृत्ति है।जनता के लिए,जनता के मुद्दों पर संघर्ष तैयार करना समाजवादी आन्दोलन की पहचान है और इस पहचान को बनाये रखने में मुलायम सिंह यादव सदैव सफल रहे हैं।अब खुद को डा0 लोहिया,मुलायम सिंह यादव और समाजवादी आन्दोलन का सिपाही साबित करने की बारी समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की है।

Wednesday, November 17, 2010

बाघा यतीन्द्र नाथ मुखर्जी

बाघा यतीन्द्र नाथ मुखर्जी

8दिसम्बर,1879को काया ग्राम,जनपद नदिया-कुष्टिया,पश्चिम बंगााल में एक प्रतिभाशाली विद्वान श्री उमेश चन्द्र मुखर्जी के एवं उच्च कोटि की कवियत्री मांॅ शरत शशि देवी के पुत्र रत्न रूप में यतीन्द्र नाथ मुखर्जी का जन्म हुआ।मात्र 5वर्ष की उम्र में पिता का साया यतीन्द्र के सिर से उठ गया।1899 में फैले प्लेग की बीमारी के दौरान मरीजों की सेवा करते हुए यतीन्द्र की समाज सेवी माॅं शरत शशि देवी की रोग ग्रस्त हो जाने के कारण मृत्यु हो गयी।माॅं की मृत्यु के पश्चात् यतीन्द्र को अपनी बडी बहन श्रीमती विनोद बाला का ममत्व भरा संरक्षण मिला।बहन की देख-रेख में यतीन्द्र ने इण्टर-मीडियट तक की शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् शार्ट हैण्ड और टाइपिंग सीखी।यतीन्द्र ने जीविकोपार्जन हेतु बंगाल सचिवालय में स्टेनोग्राफर के पद पर नौकरी की।सचिवालय के गुलामी भरे वातावरण में यतीन्द्र के ह्दय में कोने में दबा हुआ क्रंातिकारी जाग गया।यतीन्द्र का एक बार रेल यात्रा के दौरान फौज के अंग्रेज सिपाहियों से झगड़ा हो गया।उन चार फौजियों को यतीन्द्र ने अकेले ही पीट डाला।उन्होंने यतीन्द्र के खिलाफ शिकायत दर्ज करायी तथा अभियोग भी चला,परन्तु यह मुकद्मा ही वापस लेना क्योंकि अदालत को यह विश्वास दिलाना उनके लिए असंभव हो गया कि एक व्यक्ति ने अकेले ही चार फौजियों को पीटा।लेकिन इस घटना के कारण यतीन्द्र नौकरी से निकाल दिये गये।माॅं समान बडी बहन विनोद बाला ने गृहस्थी का बोझ डालते हुए यतीन्द्र का विवाह अप्रैल,1900 में इन्दुबाला नामक युवती से करा दिया।यतीन्द्र को तीन संताने क्रमशःतेजेन,वीरेन और आशालता की प्राप्ति हुई।

यतीन्द्र गृहस्थ होकर भी गृहस्थ जीवन में लिप्त न हो पाये।हरिद्वार के प्रसिद्ध सन्त भोलानाथ गिरि के परम् शिष्य यतीन्द्र ने अपने विद्वान व देशभक्त गुरू भोलानाथ गिरि की प्रेरणा से गीता का पाठ कर गीता-प्रेमी बन गये।आत्मा की अमरता का सिद्धान्त गीता से आत्मसात् करके यतीन्द्र अब देश के प्रति कत्र्तव्य पथ के पथिक बन गये।पारिवारिक जीविका व क्रांतिकारी संगठन चलाने हेतु यतीन्द्र ठेकेदारी करने लगे।ठेकेदारी के काम में यतीप्द्र को भरपूर लाभ होने लगा।यतीन्द्र ने अपने साथ उत्साही एवं आस्थावान नवयुवकों को जोड़ना प्रारम्भ कर दिया।प्रत्येक नवयुवक का ख्याल रखते थे-यतीन्द्र एवं यदि किसी को आर्थिक मदद की जरूरत पडती तो आर्थिक मदद भी करते थे।उम्र एवं अनुभव में बडे होने के कारण ये सभी नवयुवक यतीन्द्र को जतीन दा कहते थे।चारूचन्द्र बोस,वीरेन्द्रनाथ दत्त,चित्तप्रिय रे ,भोलानाथ चटर्जी,मनोरंजन सेन गुप्त,वीरेन्द्र नाथ दास गुप्त,ज्योतिष चन्द्र पाल आदि नवयुवक अपने जतीन दा के इशारे पर किसी की भी जान ले सकते थे तथा उनके लिए कभी भी जन दे भी सकते थे।यतीन्द्र कोमलता,मानवता,देशप्रेम और क्रांति की प्रतिमूर्ति थे।सुन्दर और बलशाली यतीन्द्र ने 26वर्ष की उम्र में एक शाही बाघ से लड कर और उसको मारकर बाघा की उपाधि प्राप्त की थी।तभी से यतीन्द्र बाघा जतीन के नाम से प्रसिद्ध हुए थे।जतीन के व्यक्तित्व से रवीन्द्र नाथ टैगोर,योगी श्री अरविन्द घोष,स्वामी विवेकानन्द,श्राी जगदीश चन्द्र बसु,बहन निवेदिता आदि महान विभूतियां जतीन से बहुत प्रभावित थी।जतीन के शौर्य,देशभक्ति से अंग्रेज भयाक्रांत हो गये थे।

बाघा जतीन ने अपने साथियों के साथ मिल कर बंगाल में दर्जनों राजनैतिक डकैतियां डाली।अंग्रेजों के संस्थानों में दिन-दहाडे़ डकैतियां डाली गईं तथा अनेकों कत्ल किये गये।अंग्रेज बाघा जतीन से बहुत भयभीत होकर शहर बहुत कम निकलते थे।क्रांतिकारी मौत बनकर अंग्रेजों के मनो-मस्तिष्क में छा गये थे।बाघा जतीन को पुलिस ने हावडा षड़यंत्र केस में सन्1910-11 में दो बार हिरासत में लिए गये,किन्तु कुछ माह कारागार में रहने के पश्चात् सबूतों के अभाव में यतीन्द्र रिहा हो गये।बलिया घाट तथा गार्डन रीच की डकैतियां भी बाघा जतीन के द्वारा की गई थी।जेल से रिहा होने के बाद अनुशीलन समिति के सक्रिय सदस्य बने बाघा जतीन ने युगान्तर का भी कार्य संभाला।बाघा जतीन ने एक लेख में लिखाः-पॅंूजीवाद समाप्त कर श्रेणी हीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है।देशी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्म-निर्णय द्वारा जीवन यापन का अवसर देना हमारी मांग है।अदालत से बरी बाघा जतीन पर पुलिस की पैनी नजर थी।2फरवरी,1915 को एक मकान में जतीन व साथी बैठ कर कोई योजना बना रहे थे,तभी वहां सी0आई0डी0 पुलिस इंस्पेक्टर निरोध हलधर आ धमका।मजबूरन हलधर को मौत के घाट उतार कर इन क्रांतिकारियों को मकान छोड़कर फरार होना पडा।

सन्1914 में विश्व युद्ध छिडने पर गदर पार्टी ने भारत में आजादी का जंग छेडने की योजना बनाई थी।इस योजना के सूत्रधार रासबिहारी बोस,करतार सिंह सराभा,शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि की तमाम कोशिशों के बावजूद प्रयास विफल रहा था।लेकिन इसके बावजूद भारत में बाघा जतीन अपने साथियों के साथ क्रांति की अलख जगाने में जुटे रहे।सितम्बर,1915 में मेवरिक नामक जर्मन जहाज को कैप्टीपोदा,बालासोर-उड़ीसा युद्ध की सामग्री लेकर पहुॅंचना था।इस जहाज से हथियार उतारने की जिम्मेदारी बाघा जतीन की थी।अपने साथियों के साथ बाघा जतीन मार्च,1915 में ही बालासोर आ गये।जतीन साधु तथा मनोरंजन और चित्तप्रिय उनके शिष्य बनकर मालदीव मौजा में रहने लगे।आश्रम से कुछ ही दूरी पर तालडीह गाॅंव में नीरेन्द्रनाथ दास गुप्त और ज्योतिष चन्द्र पाल खेती-बाड़ी करने वाले किसान बनकर रहने लगे।यूनिवर्सल इम्पोरियम नामक साईकिल व घड़ी की दुकान बालासोर में खोलकर अन्य साथी गण वहां जम गये।बालासोर एक एकांत व शान्त क्षेत्र था।जतीन व साथियों के आ जाने के कारण स्थानीय लोगों में उत्सुकता बढ़ी।इन लोगों के पास नये-नये चेहरे बालासोर आते थे।स्थानीय लोगों ने बालासोर पुलिस को सूचना दे दी।बालासोर की पुलिस को भी इन बंगाली नवयुवकों पर शक हो गया।बालासोर पुलिस ने इस बात की खबर कलकत्ता पुलिस को कर दी कि बालासोर में कुछ अपरिचित बंगााली युवक आकर रह रहे हैं।कलकत्ता की पुलिस निरोध हलधर की हत्या के बाद से जतीन व उनके साथियों की तलाश में थी,एक सूत्र उसके हाथ लग गया।

कलकत्ता के कई उच्च पुलिस अधिकारियों का एक दल बालासोर आ धमका,स्थानीय पुलिस को साथ लेकर इन लोगों 5सितम्बर,1915 को यूनिवर्सल इम्पोरियम की तलाशी लेकर दो लोगों को हिरासत में ले लिया।वहां एक कागज मिला जिस पर कैप्टीपौदा गाॅंव का नाम लिखा था।6सितम्बर की शाम को ही पुलिस बल हाथियों पर सवार होकर कैप्टीपौदा गाॅंव आ पहुॅंचा।गाॅंव में हलचल मच गई।एक भक्त ने जतीन को पुलिस आगमन की सूचना दी।रातों-रात जतीन ने आश्रम खाली कर दिया और जतीन,मनोरंजन और चित्तप्रिय मालदीव गाॅंव आ गये।यहाॅं पर भी सारा सामान नष्ट करके पांचों साथी बालासोर रेलवे स्टेशन के लिए निकल पड़े।8सितम्बर,1915 को जब पुलिस ने मालदीव वाले घर की भी तलाशी ली और कुछ न मिला तब पुलिस को पक्का यकीन हो गया कि साधु कोई और नहीं यतीन्द्र नाथ मुखर्जी ही हैं और चेले उसके क्रांतिकारी साथी।पुलिस ने सारे इलाके की नाके बन्दी कर ली।पुलिस ने खबर फैला दी कि कुछ बंगाली डाकू बालासोर क्षेत्र में घुस आयें हैं,जो कोई उनको पकड़वाने में मदद करेगा उसको उचित ईनाम दिया जायेगा।

बाघा जतीन और उसने साथियों के पीछे बालासोर रेलवे स्टेशन जाते समय कुछ ग्रामीण लग गये।ईनाम के लालच में इन ग्रामीणों ने इन देशभक्त क्रांतिकारियों को पकड़ना चाहा जिससे विवश होकर इन लोगों को गोली चलानी पड़ी फलतःएक ग्रामीण मौके पर ही मारा गया।कुछ ग्रामीणों ने भागकर बालासोर पुलिस को सूचना दे दी,तैयार बैठी पुलिस ग्रामीणों के साथ मौके पर आ गई।बुरी तरह से थके हुए पांचों क्रांतिकारी धान के एक खेत में विश्राम कर रहे थे तभी बालासोर के जिला मजिस्टेट किल्वी ने पुलिस बल के साथ ग्रामीणों की मुखबिरी व निशानदेही के आधार पर उसी धान के खेत को चारों तरफ से घेर कर गोलियां बरसाना चालू कर दिया।क्रांतिकारियों ने 20मिनट तक डटकर मुकाबला किया।चित्तप्रिय मौके पर शहीद हो गये।जतीन बुरी तीह घायल हो गये।ज्योतिष पाल भी घायल हो गये।क्रंातिकारियों के पास गोलियां खत्म हो जाने के कारण बाघा जतीन ने लड़ाई बन्द करने का संकेत दिया।पुलिस ने सभी को हिरासत में ले लिया।जतीन और पाल को कटक-उड़ीसा के अस्पताल,चित्तप्रिय के शव को मुर्दाघर तथा नीरेन्द्र व मनोरंजन को बालासोर की हवालात में पहुॅंचाया गया।दूसरे ही दिन 10सितम्बर,1915 को प्रातः5बजे यतीन्द्र नाथ मुखर्जी चिर निद्रा में लीन हो गये।कुछ समय बाद ज्योतिष चन्द्र पाल स्वस्थ हो गये।इन बचे तीनों लोगों पर बगावत का मुकदमा चलाकर,नीरेन्द्र और मनोरंजन को 22नवम्बर,1915 को प्रातः6बजे बालासोर की जेल में फांसी पर लटका दिया गया तथा ज्योतिष चन्द्र पाल को 14वर्ष की काले पानी की सजा सुनाकर अण्डमान भेज दिया गया।

इस प्रकार बाघा जतीन के साथ एक क्रांति युग का समापन हो गया।

अहिंसा-सत्याग्रह के राही थे क्रान्तिकारी

अहिंसा-सत्याग्रह के राही थे क्रान्तिकारी

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी आज हमारे बीच सशरीर नहीं हैं। महात्मा गाँधी के आदर्श, सोच हमारे लिए मार्गदर्शक बनकर विद्यमान हैं। ‘‘अहिंसा परमों धर्मः‘‘ के मूर्त रूप में अपने जीवन में उतार चुके महात्मा गाँधी के अनुयायियों की लम्बी फेहरिस्त है। यहाँ चर्चा महात्मा गाँधी के उन दो अनुयायियों की कर रहा हूँ जो ‘‘सत्याग्रह‘‘ और ‘‘अहिंसा‘‘ को अपने जीवन में अंगीकार कर क्रान्ति मार्ग के सेनानी ही नहीं वरन् अमिट हस्ताक्षर बने। यह चन्द्रशेखर आजाद ही थे जिन्होंने मात्र 14वर्ष की उम्र में महात्मा गाँधी के द्वारा प्रेरित असहयोग आन्दोलन में शिरकत की। यह वह समय था, जब सम्पूर्ण भारत में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जा रहा था और उनकी होली जलाई जा रही थी। इसी दौरान ब्रिटेन के युवराज ड्यूक ऑफ विण्डसर का भारत आगमन हुआ, युवराज की यात्रा का पूरे भारत में जबरदस्त विरोध हुआ। सर्वत्र हड़ताल की गई। महात्मा गाँधी को 6माह का कारावास हुआ। चन्द्रशेखर आजाद ने बनारस के सरकारी विद्यालय पर धरना दिया। पकड़े जाने पर न्यायाधीश खारेघाट के सवालों के जवाब में- नामःआजाद, पिताःस्वतन्त्र, निवासःजेलखाना देने पर आजाद को पन्द्रह कोड़ों की सजा मिली।आजादी का दीवाना यह वीर बालक सेनानी, महात्मा गाँधी का अनुयायी वन्देमातरम और महात्मा गाँधी की जय बोलते-बोलते कोड़ों को सहते-सहते मातृभूमि की गोद में मूर्छित हो कर गिर पड़ा था।कालान्तर में चौरी चौरा काण्ड़ के पश्चात् शचीन्द्रनाथ सान्याल के दल ‘‘हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन‘‘ से आजाद जुड़ गये। सत्याग्रह और अहिंसा का यह सिपाही भारत की जंग-ए-आजादी में क्रान्ति का संगठक बना। इतिहास साक्षी है कि आजाद तो पैदा ही भारत की आजादी की लड़ाई में सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए हुए थे। अब बात करते हैं- नेताजी सुभाष चन्द्र बोस कीं। सशस्त्र क्रान्ति के सेनानायक सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के जो सूत्र महान क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस से पकड़े व फौज का पुर्नगठन कर आजादी का संघर्ष छेड़ा, वह अविस्मरणीय है। आजाद हिन्द फौज के इस महानायक के दिल में महात्मा गाँधी के प्रति, उनके विचारों के प्रति अपार श्रद्धा व विश्वास था। नेताजी ने ही सर्वप्रथम रंगून रेडियो से महात्मा गाँधी को राष्टपिता कहकर सम्बोधित किया था। सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था कि एक बार भारत स्वतन्त्र हो जाये, तो इसे मैं गाँधी जी को सौप दूंगा और कहूँगा कि अब इसे आपकी अहिंसा की सबसे ज्यादा जरूरत है।‘‘

ध्यान देने की बात यह है कि क्या वजह रही कि गाँधी को मानने वालों ने, सत्याग्रह और अहिंसा का पालन करने वालों ने सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग अपनाया। क्या ये सशस्त्र क्रान्ति के सेनानी सत्याग्रही नहीं रहे, क्या इन क्रान्ति के वाहकों ने अहिंसा का मार्ग त्याग दिया और ये हिंसक हो गये थे? सत्याग्रह और अहिंसा को स्पष्ट करते हुए भगवती चरण वोहरा ने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन की ओर से ‘‘बम का दर्शन‘‘ लेख लिखा, जिसका शीर्षक ‘‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन का घोषणा-पत्र‘‘ रखा गया। क्रान्तिकारियों के बौद्धिक नेता सरदार भगत सिंह ने जेल में इसे अंतिम रूप दिया। 26जनवरी,1930 को यह पर्चा पूरे देश में वितरित किया गया। इसमें लिखा गया कि- ‘‘पहले हम हिंसा और अहिंसा के प्रश्न पर ही विचार करें। हमारे विचार से इन शब्दों का प्रयोग ही गलत किया गया है, और ऐसा करना ही दोनों दलों के साथ अन्याय करना है, क्योंकि इन शब्दों से दोनों ही दलों के सिद्धान्तों का स्पष्ट बोध नहीं हो पाता। हिंसा का अर्थ है- अन्याय करने के लिए किया गया बल प्रयोग, परन्तु क्रान्तिकारियों का तो यह उद्देश्य नहीं है। दूसरी ओर अहिंसा का जो आम अर्थ समझा जाता है, वह है आत्मिक शक्ति का सिद्धान्त। उसका उपयोग व्यक्तिगत तथा राष्टीय अधिकारों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। अपने आप को कष्ट देकर आशा की जाती है कि इस प्रकार अन्त में अपने विरोधी का ह्दय-परिवर्तन सम्भव हो सकेगा। आगे लिखा कि,- ‘‘एक क्रान्तिकारी जब कुछ बातों को अपना अधिकार मान लेता है तो वह उनकी मांग करता है, अपनी उस मांग के पक्ष में दलीलें देता है, समस्त आत्मिक शक्ति के द्वारा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करता है, उसकी प्राप्ति के लिए अत्यधिक कष्ट सहन करता है, इसके लिए वह बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहता है और उसके समर्थन में वह अपना समस्त शारीरिक बल भी प्रयोग करता है। इसके इन प्रयत्नों को आप चाहे जिस नाम से पुकारें, परन्तु आप इन्हें हिंसा के नाम से सम्बोधित नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करना कोष में दिये इस शब्द के साथ अन्याय होगा। ‘‘सत्याग्रह के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा गया कि,- ‘‘सत्याग्रह का अर्थ है सत्य के लिए आग्रह। उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति के प्रयोग का ही आग्रह क्यो।? इसके साथ-साथ शारीरिक बल-प्रयोग भी क्यों न किया जाये? क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक एवं नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास करता है, परन्तु नैतिक शक्ति का प्रयोग करने वाले शारीरिक बल प्रयोग को निषिद्ध मानते हैं। इसलिए अब सवाल यह नहीं है कि आप हिंसा चाहते हैं या अहिंसा, बल्कि प्रश्न तो यह है कि आप अपनी उद्देश्य प्राप्ति के लिए शारीरिक बल सहित नैतिक बल का प्रयोग करना चाहते हैं, या केवल आत्मिक शक्ति का? ‘‘इस प्रकार हम पाते है कि क्रान्तिकारी सत्याग्रही तो थे ही, क्योंकि उनका उद्देश्य ब्रितानिया हुकूमत से भारत की आजादी था, साथ ही साथ वे अहिंसा के भी पुजारी थे। वे हिंसक कदापि नहीं थे, वे तो अत्याचारियों के सर्वनाश करने की राम-कृष्ण-शिव की परम्परा के पालनकर्ता मात्र थे।

जब-जब महात्मा गाँधी के बताये रास्तों, अनुनय विनय, भूख हड़ताल, सत्याग्रह, धरना आदि से भारत के नागरिकों की बात नहीं सुनी गई तब-तब इन्हीं गाँधी को मानने वाले सत्याग्रहियों ने क्रान्तिकारियों का सशस्त्र मार्ग अपनाया है। राम द्वारा तीन दिनों तक निवेदन के पश्चात् भी समुद्र द्वारा रास्ता न दिये जाने पर जब राम ने प्रत्यंचा चढ़ाई तो समुद्र ने तत्काल उपस्थित होकर समुद्र पर पुल निर्माण का रास्ता बताया। क्रान्तिकारी तो सिर्फ अपने पूर्वजों के उच्च आदर्शों का अनुसरण करते हैं।कृष्ण ने अपने अत्याचारी मामा का वध किया, हक की लड़ाई लड़ रहे पांड़वों के सारथी बने। इस प्रकार क्रान्तिकारियों ने न तो सत्याग्रह छोड़ा था और न ही अहिंसा का मार्ग। हाँ, वीरोचित धर्म का वरण कर कायरता का त्याग कर अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए, अपने हक के लिए प्राण लेने व देने में कोई संकोच नहीं किया।

भारत माँ का लाल भगत सिंह

भारत माँ का लाल भगत सिंह

भगतसिंह का जन्म 27-28सितम्बर,1907 को बंगा गांव,लायलपुर जिला में हुआ।पिता सरदार किशनसिंह और चाचा अजीत सिंह स्वतंत्रता आन्दोलन में जेल में बन्द थे।भगतसिंह के जन्म के ही बाद ये लोग जेल से रिहा हुए थे।गुलामी से नफरत और देशभक्ति इनके खून में समाई थी।विरासत में मिली थी गुलामी से लड़ने की हिम्मत।शिक्षा देशभक्तों के केन्द्र नेशनल कालेज-लाहौर में ग्रहण की।सुखदेव,यशपाल,भगवतीचरण वोहरा इनके कालेज के मित्र थे।भगतसिंह पढ़ने लिखने में ज्यादा ध्यान देते थे।विक्टर ह्यूगो,हाॅल केन,टाॅल्सटाॅय,गोर्की,बर्नोर्ड शाॅ,डिकेन्स आदि उनके पसंदीदा लेखक थे।भगतसिंह ने कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के पत्र प्रताप में काम किया था।कानपुर में ही इनकी मुलाकात चन्द्रशेखर आजाद,बटुकेश्वर दत्त,शिव वर्मा,जयदेव कपूर,कुन्दनलाल आदि क्रांतिकारियों से हुई।भगतसिंह और सुखदेव रूसी अराजकतावादी बाकुनिन से प्रभावित थे।भगतसिंह को अराजकता से समाजवाद की ओर लाने का श्रेय कामरेड सोहन सिंह जोश और लाला छबील दास को है।

क्रांतिकारियों के बौद्धिक नेता के रूप में भगतसिंह स्थापित हो चुके थे।असेम्बली बम काण्ड़ में सुखदेव ने इसी कारण से भगतसिंह को बम फोडने जाने के लिए केन्द्रीय समिति का निर्णय बदलवाने पर जोर दिया था।सन 1926 में भगतसिंह,भगवती चरण वोहरा और यशपाल ने लाहौर नैजवान भारत सभा की स्थापना की।भगतसिंह इसके प्रथम महामंत्री व भगवती चरण वोहरा प्रथम प्रचार मंत्री चुने गये।सुखदेव,धन्वंतरी,यशपाल और एहसान इलाही प्रमुख सक्रिय सदस्य नियुक्त किये गये।सभा का उद्देश्य क्रान्तिकारी आन्दोलन के तन्त्र को पुनःजीवित करना था और कार्य था-क्रान्ति के विचारों और उद्देश्यों का प्रचार करने के लिए आम सभायें करना,बयान देना,इश्तहार बांटना आदि।शोषण,गरीबी,विषमता जैसी विश्वव्यापी समस्याओं से निपटने के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता चाहिए।क्रान्तिकारियों का विचार था कि आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना पूर्ण स्वतंत्रता सम्भव नही है।स्वतंत्रता के बाद के शासन की रूपरेखा पर भी क्रांतिकारी विचार-विमर्श करते थे।हुतात्माओं के चित्रों की प्रदर्शनी लगाकर,उनके बारे में जानकारी दी जाती थी।जनता के सामने क्रातिकारी अपना इतिहास बताते थे।सशस्त्र क्रांति के गुप्त संगठन के लिए कार्यक्षेत्र तैयार करना और लोगों में साम्राज्यवाद के विरोध में राष्टीयता की प्रबल भावना को जागृत करना-यही उद्देश्य था भगतसिेह का।

भगतसिंह श्रेष्ठ प्रचारक थे।कुशल वक्ता तो वे थे ही,लेखनी और विचारों में पैनापन और पकड़ भी थी।हिन्दी,उर्दू,अंग्रेजी व पंजाबी भाषाओं पर उनका अधिकार था।अमृतसर से निकलने वाले उर्दू अखबारों में वे नियमित लेख लिखते थे।छद्म नामों से उन्होंने कीर्ति में लिखा।हिन्दी प्रताप,प्रभा,महारथी,चांद में भगतसिंह ने लिखा।क्रान्तिकारियों के विषय में अध्ययन करने से मन अशान्त हो जाता है।कैसे थे ये मतवाले?आजाद भारत में लोग जीवन जीने के लिए रोज मर रहें हैं और ये मतवाले आने वाली नस्लों को जीवित करने के उद्देश्य से हॅंसते-हॅंसते मर गये।फिर भी आज आजाद भारत में बेकारी,बेरोजगारी,शोषण,विषमता,भुखमरी,भ्रष्टाचार,कुशासन,अपने चरम पर है।क्या क्रान्तिकारियों का आजाद भारत बन गया है ?देश की आजादी की लड़ाई लडते हुए भगतसिंह अपने साथियों राजगुरू व सुखदेव के साथ 23मार्च,1931 को फांसी पर चढ़ गये।रह गये शेष भगतसिंह और उनके साथियों के सपने,आदर्श,उनके सोच को परिलक्षित करते लेख व देश-समाज के लिए मर मिटने की प्रेरणा।

भगतसिंह के सखा-समर्पण की प्रतिमूर्ति सुखदेव

भगतसिंह के सखा-समर्पण की प्रतिमूर्ति सुखदेव

स्वभावगत जिद्दी,सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति,मासूम व्यक्तित्व,कुशल संगठनकर्ता,अपनत्व के धनी-एैसे थे सुखदेव।सुखदेव का जन्म 15मई,1907 को रामलाल थापर के पुत्र रूप में नौधरा,लुधियाना में हुआ था ।बचपन में ही पिता का साया सिर से उठ गया।लालन पालन माता रल्लीदेई और ताउ चिंताराम थापर जो कि देशभक्त थे तथा जेल की सजा भुगत चुके थे,ने किया ।

क्रांतिकारी दल के नायक चंद्रशेखर आजाद के बाद दल के समस्त साथियों की आवश्यकताओं की तरफ अगर कोई ध्यान देता था तो वह दल में ‘विलेजर‘ नाम प्राप्त सुखदेव ही थे ।सुखदेव जिद्दी थे ।सुखदेव ने कभी अपने साथियों से कोई स्पर्धा नहीं रखी,कोई शिकायत नहीं की और न ही कोई स्पष्टीकरण दिया ।एक तरफ राजगुरू भगतसिंह को शौके शहादत में अपना रकीब मानते थे तो सुखदेव के मन में भगतसिंह के प्रति सबसे ज्यादा प्रेम और अपनापन था ।जब भी सुखदेव और भगतसिंह की मुलाकात होती,तो क्रांति दल के साथियों को भूलकर ये दोनों रात-रात भर बाते करते रहते थे ।भगतसिंह और सुखदेव समाजवाद के पक्के समर्थक थे ।भगतसिंह की स्मरण शक्ति तीव्र व विलक्षण थी ।किसी भी पुस्तक को जल्दी खत्म करने की जैसे उन्हें सनक सवार रहती थी ।

ध्यान दीजिए,यह सुखदेव ही हैं जिनके मित्र के और आदर्शों के प्रति हठ ने क्रांतिकारी आदर्शों के प्रचार के लिए,न्यायालय का बेहतर इस्तेमाल करने के लिए,अपने भगतसिंह की नाराजगी झेलकर,उसे भलाबुरा कहकर असेम्बली बम काण्ड का दायित्व केन्द्रीय समिति से सौंपवाया ।दुर्गा भाभी गवाह थीं कि इस निर्णय को करवाने के पश्चात् सुखदेव की आंखें रोने के कारण सूजी हुईं थी ।सुखदेव ने केन्द्रीय समिति से पहले कहा था कि असेम्बली में बम फोड़ने का काम भगतसिंह को करना चाहिए ।इसका कारण बम फोड़ने का उद्देश्य,दल के आदर्श,महत्व व उद्देश्यों को जनता के सामने लाना था और इस काम के लिए भगतसिेह ही सबसे सक्षम व योग्य थे ।जब भगतसिंह केन्द्रीय समिति के सदस्यों को इस विषय में राजी न कर सके,तब सुखदेव ने भगतसिंह को ललकारा-‘‘जब तुम्हे मालूम है कि दूसरा कोई भी व्यक्ति दल के उद्देश्यों की जवाबदारी पूर्ण करने में तुमसे समर्थ नहीं है,तब तुमने केन्द्रीय समिति के सदस्यों को यह निर्णय करने क्यों दिया कि तुम्हारी जगह कोई और असेम्बली में बम डालने जायेगा ।‘‘ सुखदेव ने भगतसिंह को कायर,डरपोक,अहंकारी जाने क्या-कया कह डाला ।उन्होंने कहा-जिस प्रकार लाहौर हाईकोर्ट ने भाई परमानन्द के विरूद्ध निर्णय देते हुए कहा था कि वे दल के सूत्रभार व मस्तिष्क होते हुए भी डरपोक हैं,इसलिए संकट के समय दूसरों को आगे करते हैं ।इसी तरह की बातें तुम्हारे लिए भी कही जाएगी ।इस विषय में भगतसिंह ने सुखदेव को समझाने की असफल कोशिश की और सुखदेव के व्यंग्य बाणों का शिकार होते रहे ।भगतसिंह का मन मस्तिष्क जब सुखदेव के प्रहारों से घायल हो गया तब उन्होंने सुखदेव से कहा-तुम मेरा अपमान कर रहे हो ।चुप रहो मैं अपने मित्र के प्रति अपना कत्र्तव्य निभा रहा हूॅं-गरजे सुखदेव ।

आखिरकार केन्द्रीय समिति की दोबारा बैठक हुई ।बैठक में सुखदेव चुप रहे ।भगतसिंह ने तर्कपूर्ण आग्रह किया, फैसला हुआ-विजय कुमार सिन्हा के स्थान पर भगतसिंह के साथ बटुकेश्वरदत्त असेम्बली में बम फोड़ेंगें ।

बाद में सुखदेव सहित अन्य पर लाहौर षड़यंत्र का मुकद्मा चला ।सुखदेव का ध्यान बचाव में न था ।वे न्यायालय को ही क्रान्ति का प्रचार माध्यम मानते थे ।अंत में 7अतूबर,1930 को मुकदमें का निर्णय सुनाया गया ।सुखदेव इस षड़यंत्र के प्रमुख तथा भगतसिेह उनके दाहिने हाथ घोषित किये गये ।सुखदेव को क्रांतिकारियों के उद्देश्यों की सफलता पर कितना अडिग विश्वास था,इसका प्रमाण फाॅंसी से कुछ ही पहले महात्मा गाॅंधी के नाम लिखा उनका पत्र है जिसमें उन्होंने लिखा-‘‘क्रांतिकारियों का ध्येय इस देश में सोशलिस्ट प्रजातन्त्र प्रणाली स्थापित करना है।इस ध्येय में संशोधन की जरा भी गुंजाइश नहीं है।‘‘ वे गाॅंधी जी से प्रश्न पूछते हैं कि आपकी भी धारणा होगी कि क्रांतिकारी तर्कहीन होते हैं और उन्हें केवल विनाशकारी कार्यों में आनन्द आता है।सुखदेव आगे लिखते हैं-‘‘हम आपको बतला देना चाहते हैं कि यथार्थ में बात इसके बिल्कुल विपरीत है।वे प्रत्येक कदम आगे बढ़ाने के पहले अपने चारों तरफ की परिस्थितियों पर विचार कर लेते हैं।उन्हें अपनी जिम्मेदारी का ज्ञान हर समय बना रहता है।वे अपने क्रांतिकारी विधान में रचनात्मक अंश की उपयोगिता को मुख्य स्थान देते हैं यद्यपि मौजूदा परिस्थितियों में उन्हें केवल विनाशात्मक अंश की ओर ध्यान देना पड़ता है।वह दिन दूर नही जबकि क्रांतिकारियों के नेतृत्व में और उनके झण्डे के नीचे जन समुदाय उनके समाजवादी प्रजातंत्र के उच्च ध्येय की ओर बढ़ता हुआ दिखायी पड़ेगा ।महात्मा गाॅंधी को लिखे इस पत्र में सुखदेव ने लिखा,-‘‘फाॅंसी देने का हुक्म हुआ है और जिन्होंने संयोगवश देश में बहुत ख्याति प्राप्त कर ली है,क्रांतिकारी दल के सब कुछ नही हैं।वास्तव में इनकी सजाओं को बदल देने देश का उतना कल्याण न होगा,जितना इन्हें फाॅंसी पर चढ़ा देने से होगा ।‘‘

सुखदेव फूल की तरह कोमल परन्तु पाषाण से कठोर अपनी कोमल भावनाओं को,प्यार और ममता को निजी चीज समझ कर अपने अन्दर समेटे रहने वाले सुखदेव के व्यक्तित्व की सबसे खतरनाक चीज थी-उनकी मुस्कुराहट,जिसके पीछे शरारत के साथ साथ हर गलत चीज पर नफरत भरा व्यंग्य साफ साफ उभर आता था ।समाज की कुरीतियों,रूढ़ियों,राजनैतिक मतभेदों के प्रति गहरी उपेक्षा और विद्रोह का प्रतीक थी सुखदेव की मुस्कुराहट ।यहां तक कि बड़ी-बड़ी असफलताओं के आघात को भी वे अपनी मुस्कुराहट की उपेक्षा में डुबो देते थे ।यही र्निविकार भाव समेटे क्रांति का यह पुरोधा आजादी के सपने सजोये अपने हम सफरों भगतसिेह तथा राजगुरू के साथ फाॅंसी के तख्ते पर चढ़कर 23मार्च,1931 को क्रांति मार्ग आलोकित कर गया ।

राजगुरू पर विशेष

राजगुरू पर विशेष

आजादी की लड़ाई के हर मौके पर अपनी सहभागिता करने के लिए बेचैन रहने वाले,इस लड़ाई में जान देने व लेने का कोई अवसर हाथ से जाने न देने के लिए तत्पर,अवसर न मिलने पर नाराज हो जाने वाले मस्त स्वभाव के योद्धा का नाम शिवराम हरि राजगुरू है। शिवराम हरि राजगुरू का जन्म 24अगस्त,1908 को हरिनारायण राजगुरू के पुत्र रूप में खेड़ा गांव पूना में हुआ था।इनके बाबा चाकण कस्बा जो कि छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदवी स्वराज्य की राजधानी थी,के प्रसिद्ध विद्वान कचेश्वर पण्ड़ित थे।शिवाजी महाराज के प्रपौत्र श्री शाहू जी महाराज ने कचेश्वर पण्ड़ित को अपना गुरू बनाकर राजगुरू की उपाधि दी थी।
छह वर्ष की अल्पायु में पिता का देहान्त हो गया।बड़े भाई के पास शहर में रहने लगे।पढ़ने में बहुत मन नहीं लगता था।पन्द्रह वर्ष की उम्र 1924 में घर से निकल कर पैदल छह दिन चले और नासिक पहुंचे।नासिक से किसी तरह यात्रा करते झांसी,कानपुर,लखनउ और अंत में काशी पहुंचे।काशी में अहिल्या घाट पर रहने लगे।काशी क्रान्तिकारियों का मुख्य गढ़ था।यहां इनकी मुलाकात गोरखपुर के साप्ताहिक पत्र स्वदेश के सह संपादक मुनीश्वर अवस्थी से हुई।राजगुरू इनके सम्पर्क से ही क्रांति दल के विधिवत सदस्य बनें।
भगवानदास माहौर,सदाशिव राव मलकापुरकर और शिव वर्मा ने अपनी क्रान्ति जीवन के संस्मरण लिखे थे,जो सन् 1959 में प्रकाशित हुए थे।उसमें इन क्रान्तिकारियों ने राजगुरू के बारे में लिखा-जब जब क्रान्तिकारी वीर,देशभक्त,शहीदों और उनके शौके-शहादत की बात चलती है,तब-तब जो एक मूर्ति मेरे मन की आंखों के सबसे आगे और सबसे अधिक स्पष्ट रूप से आकर खड़ी हो जाती है,वह होती है राजगुरू कीं। सशस्त्र क्रान्ति के प्रयासों में जिन अगणित भारतीय युवकों ने अपना जीवन बलिदान किया है,उनमें से कुछ थोड़ों ही के निकट सम्पर्क में आने का महान सौभाग्य मुझे मिलता है।मृत्युंजयी अमर शहीद वीर जतीनदास,भगवती चरण,चन्द्रशेखर आजाद,भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरू,महावीर सिंह और शालिगराम शुक्ल उस दल के शहीद हुए हैं,जिसका सम्बन्ध लाहौर षड़यन्त्र केस से था और जिसका नाम था-हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी।श्री जतीनदास बंगाल के दल के व्यक्ति थे और वे हम लोगों को बम बनाना सिखने के लिए यू0पी0 में आये थे।भगत सिंह आदि के साथ वे लाहौर जेल में अनशन करके शहीद हुए,भगवती भाई रावी के तट पर एक बम की परीक्षा करते हुए बम हाथ में ही फट जाने की दुर्घटना से मारे गये।सेनानी चन्द्रशेखर आजाद ने इलाहाबाद के अल्फ्रेड़ पार्क में पुलिस से युद्ध करते हुए वीरगति पायी।भगतसिंह,राजगुरू,सुखदेव तीनों एक साथ लाहौर की जेल में फांसी चढ़े।महावीर सिंह ने अण्डमान्स अर्थात काला पानी के जेल में अनशन करते हुए शहादत पायी।शालिगराम शुक्ल कानपुर में पुलिस से युद्ध करते हुए शहीद हुए।ये सभी शहीद देश के स्वातन्त्रय युद्ध में अपने आपको बलिदान कर देना चाहते थे।शहादत से सभी को प्यार था और सभी को यह विश्वास था कि कभी न कभी,किसी न किसी रूप में वह उन्हे मिलेगी।ये शहादत के धीरोदात्त प्रेमी कहे जा सकते हैं।शहादत के लिए इतनी उतावली,बेताबी ये सब जाहिर न करते थे जितनी राजगुरू और सम्भवतःइसी कारण शहीदों के सम्बन्ध में शौके शहादत या इश्कें शहादत के एतबार से-अपने परिचय के शहीदों में-सबसे पहले और सबसे आगे शहादत के बेताब आशिक राजगुरू की मूर्ति ही मेरी नज़र के सामने खड़ी हो जाती है।
वे आगे लिखते हैं-हम कह चुके हैं कि राजगुरू शहादत के बेताब आशिक थे और इस इश्क में आपके रकीब थे भगतसिेह।इस अधीरता,व्यग्रता और बेताबी की तो हम कल्पना ही कर सकते हैं,जिसमें फांसी के दिन वे इसके लिए ही चिन्तित होंगे कि कहीं ऐसा न हो कि मेरे से पहले भगतसिंह को फांसी लग जाये।हम भली-भांति कल्पना कर सकते हैं कि पहले फांसी का फन्दा उनके गले में डाला जाये,भगतसिंह के नहीं,इसके लिए वे जेलर या जल्लाद से उलझ पड़े होंगे।हम कल्पना कर सकते हैं कि गर्व से सीना फुला कर,आतमसंतुष्टि की लम्बी सांस लेकर वे फांसी के तख्ते पर खडें हुए होंगे और किस प्रकार राजगुरू ने उनके गहरे वात्सल्य से पुलकित होकर अपने अन्तिम क्षणों में अपने इस छोटे भाई को देखा होगा।राजगुरू के शौके शहादत से अधिक भावुक ह्दय अन्य किस का था,और उसे देखने का सौभाग्य भी उनसे अधिक और किसे मिला था?
ऐसा लगता है कि फाॅंसी का तख्ता का तख्ता गिर जाने के बाद,दिल की धड़कन बन्द होने से पूर्व भी,यदि राजगुरू फाॅंसी की काली टोपी के बाहर आंख खोल कर एक बार देख सकते तो उस दीवाने ने यही देखने की कोशिश की होती कि कहीं भगतसिंह मुझ से पहले तो नहीं……………..और उस समय भगतसिंह के होठों पर भी राजगुरू का यह पागलपन देखकर अपने जीवन की अन्तिम और सबसे मधुर मुस्कान खिल जाती और यदि वे कह सकते तो कहते-शौके शहादत तो हम सबको ही रहा है भाई,पर तू तो सराया शौके-शहादत है।हार गये तुझसे।
राजगुरू की याद कहती है-अधिकार पदों के लिए एक दूसरे पर कीचड़ उछालना ही राजनीति में नहीं होता,कुर्बानी की ऐसी पवित्र स्पर्धा भी होती है।हम मरे नहीं हैं,हम मिटे नहीं हैं,हमारा स्वर्ग तुम्हारे ह्दय में ही है।मनुष्य की मनुष्यता में विश्वास न खोना।

अमर सपूत श्याम जी कृष्ण वर्मा

अमर सपूत श्याम जी कृष्ण वर्मा

श्याम जी कृष्ण वर्मा भारत के उन अमर सपूतों में हैं जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत की आजादी के लिए लगा दिया।ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों से त्रस्त होकर भारत से इंग्लैण्ड चले गये श्याम जी कृष्ण वर्मा ने अपना सारा जीवन भारत की स्वतन्त्रता के लिए माहौल बनाने में और नवयुवकों को प्रेरित करने में लगाया।आज ही के दिन 4अक्तूबर,1857 को कच्छ-गुजरात के माण्डवी के निकअ स्थित वलायल गाॅंव में आपका जन्म हुआ था।बहुत कम उम्र में ही आप संस्कृत भाषा में धाराप्रवाह भाषण देने लगे थे।मुम्बई में आपकी ख्याति कम उम्र में ही हो गई थी।प्रतिभावान श्यामजी कृष्ण वर्मा का विवाह मुम्बई के एक करोडपति परिवार ने अपनी कन्या से इनकी प्रतिभा के कारण किया।अपनी प्रतिभा के ही बदौलत मात्र 23वर्ष की उम्र में इंग्लैण्ड़ के संस्कृत अध्यापक मोनियर विलियम के आमंत्रण पर आप इंग्लैण्ड़ गये।बी0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आपकी नियुक्ति संस्कृत,मराठी व गुजराती भाषाओं को पढ़ाने के लिए आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में हुई।आप ही वो प्रथम भारतीय हैं जिसने आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि हासिल की।24वर्ष की उम्र में ही आपको बर्लिन व हाॅलैण्ड की ओरियण्टल कांफ्रेन्स में भारत कर प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया।1884 में आपने आॅक्सफोर्ड से ही बैरिस्टर की डिग्री ली।शिक्षा ग्रहण करके भारत वापस आकर के श्यामजी कृष्ण वर्मा ने रतलाम रियासत के दीवान की जिम्मेदारी सम्भाली,यहाॅं आपने काॅफी समाज हित के कार्यों को अंजाम दिया।उदयपुर रियासत के राजा फतहसिंह ने श्यामजी कृष्ण वर्मा को अपने राज्य की कौसिंल आॅफ स्टेट का सदस्य बनाया।3वर्षों तक उदयपुर रहने के बाद आप ने जूनागढ़ के दीवान का पद भार सम्भाला।आपका मन दरअसल पूरी तरह रियासतों के काम में नहीं लग रहा था,अन्ततोगतवा आप मुम्बई आकर बैरिस्टरी करने लगे।अंग्रेजों के अत्याचार से क्षुब्ध होकर आप इंग्लैण्ड चले गये। श्याम जी कृष्ण वर्मा ने भारत छोड़ने के विषय में लिखा,‘‘1897 में जब नाटो बन्धु गिरफतार हो गये और तिलक पर मुकदमा चला तो मुझे यकीन हो गया कि ब्रिटिश सरकार में वैयक्तिक स्वतन्त्रता का कोई मूल्य नहीं है और न ही समाचार पत्रों को ही कोई स्वतन्त्रता है।इसी कारण मैं स्वदेश छोड़कर इंग्लैण्ड़ वासी बना और जबकि इंग्लैण्ड़ में भी मेरे लिए निर्विघ्न रहना संभव नहीं है तो मैने पेरिस को अपना कार्यक्षेत्र बनाया।श्याम जी कृष्ण वर्मा ने ब्रिटेन में शिक्षा प्राप्त करने तथा आजीवन भारत की सेवा करने वालों के लिए फैलोशिप देने की शुरूआत की।श्याम जी कृष्ण वर्मा को ऐसे चेतनाशील,समर्पित नवयुवकों की आवश्यकता थी,जो लन्दन में क्रान्ति की शिक्षा लेकर उसे भारत में सफलता से चला सके।छात्रवृत्तियों का उद्देश्य यही था।इन छात्रवृत्तियों के लिए धन की व्यवस्था नाना साहेब पेशवा ने की।विनायक दामादर सावरकर,सेनापति बापट,लाला हरदयाल वे प्रमुख क्रान्तिकारी थे जिन्होंने छात्रवृत्ति ग्रहण की।

श्याम जी कृष्ण वर्मा ने जनवरी 1905 में ‘‘इण्डियन सोशलाॅजिस्ट‘‘ नामक धार्मिक-सामाजिक पत्र निकाला।इस पत्र के माध्यम से श्याम जी कृष्ण वर्मा जी ने दार्शनिक विचारों से क्रान्ति का प्रचार प्रारम्भ किया।अंग्रेजों की अक्ल ठिकाने लगाने के लिए रूसी क्रान्तिकारियों की पद्धति को आप उपयोगी मानते थे।18फरवरी,1905 को बीस भारतीयों ने ‘‘भारतीयों द्वारा भारतीयों के लिए भारतीय सरकार की स्थापना‘‘ के उद्देश्य को लेकर ‘‘इण्डियन होमरूल सोसायटी‘‘ का गठन किया।इसमें प्रमुख भूमिका श्याम जी कृष्ण वर्मा ने निभाई।मई 1905 में ‘‘इण्डियन सोशलाॅजिस्ट‘‘ में पहली जुलाई से लन्दन में ‘‘इण्डिया हाउस‘‘ हास्टल खोलने की घोषणा हुई।श्याम जी कृष्ण वर्मा ने एक तिमंजिला भवन बनवाकर भारतीय क्रान्तिकारियों को लन्दन में ठहराने की योजना को साकार रूप दिया।ब्रिटेन में इण्डिया हाउस वह स्थान बन गया जहाॅं भारत के स्वाधीनता संग्राम की योजनायें बनी तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन को एक दिशा मिली।

जुलाई 1907 में ब्रिटिश लोकसभा में श्याम जी कृष्ण वर्मा के संदर्भ में प्रश्न उठा।इन प्रश्नों के उठते ही वे पेरिस चले गये।जुलाई 1909 तक ‘‘इण्डियन सोश्लाॅजिस्ट‘‘ लन्दन से निकला तत्पश्चात् यह पत्र पेरिस से निकलने लगा।प्रथम विश्व युद्ध के प्रारम्भ होने के दो-तीन वर्षों तक ‘‘इण्डियन सोश्लाॅजिस्ट‘‘ पत्र निकला।श्याम जी कृष्ण वर्मा को यह आभास हुआ कि अब पेरिस में भी उनके लिए दिक्कतें आयेंगी तो वे जिनेवा चले गये,यहीं पर 30 मार्च,1930 को आप स्वर्ग सिधार गये।

दुर्गा भाभी का जीवन व क्रांतिकारी व्यक्तित्व

दुर्गा भाभी का जीवन व क्रांतिकारी व्यक्तित्व

प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गादेवी का जन्म ७ अक्तूबर,1907 को इलाहाबाद के न्यायाधीश की पुत्री के रूप में हुआ था। यह संयोग ही है कि दुर्गा देवी की मृत्यु अक्तूबर माह की 14 तारीख को ९२ वर्ष की उम्र में 1999 को हुई। ग्यारह वर्ष की उम्र में दुर्गा देवी का विवाह पन्द्रह वर्षीय भगवतीचरण वोहरा से हुआ था। नेशनल कालेज-लाहौर के विद्यार्थी वोहरा क्रंातिभाव से भरे हुए थे ही, उनकी पत्नी दुर्गा देवी भी आस-पास के क्रांतिकारी वातावरण के कारण उसी में रम गईं थी। सुशीला दीदी को वे अपनी ननद मानती थीं। भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव की त्रिमूर्ति समेत सभी क्रंातिकारी उन्हें भाभी मानते थे।

साण्डर्स वध के पश्चात् सुखदेव दुर्गा भाभी के पास आये। सुखदेव ने दुर्गा भाभी से 500 सौ रूपये की आर्थिक मदद ली तथा उनसे प्रश्न किया-आपको पार्टी के काम से एक आदमी के साथ जाना है, क्या आप जायेंगी ? प्रत्युत्तर में हाँ मिला। सुखदेव ने कहा-आपके साथ छोटा बच्चा शची होगा, गोली भी चल सकती है। दुर्गा स्वरूप रूप धर दुर्गा भाभी ने कहा-सुखदेव, मेरी परीक्षा मत लो। मैं केवल क्रंातिकारी की पत्नी ही नहीं हूँ, मैं खुद भी क्रंातिकारी हूँ। अब मेरे या मेरे बच्चे के प्राण क्रान्तिपथ पर जायें, मैं तैयार हूँ। दूसरी रात ग्यारह बजे के बाद सुखदेव साण्डर्स का वध करने वाले भगत सिंह और राजगुरू, दुर्गा भाभी के घर आ गये। फिर प्रातःभगत सिंह ने शची को गोद में लिया, फैल्ट हैट और शची के कारण भगत सिंह का चेहरा छिपा था, पीछे दुर्गा भाभी बड़ी रूआब से ऊँची हील की सैण्डिल पहने, पर्स लटकाये तथा राजगुरू नौकर रूप में पीछे-पीछे स्टेशन पहुंचे। भगत सिंह और दुर्गा भाभी प्रथम श्रेणी में तथा राजगुरू तृतीय श्रेणी के डिब्बे में चढ़ गये। गाडी के लखनउ आने पर राजगुरू अलग होकर आगरा चल दिये। लखनउ स्टेशन पर भगवती चरण वोहरा और सुशीला दीदी इनको लेने आये। इस प्रकार भगत सिंह और राजगुरू को सकुशल लाहौर से निकालने का श्रेय दुर्गा भाभी को है। धन्य हैं ये वीरांगना। इनके अतिरिक्त भेष बदल बदल कर बम-पिस्तौल क्रांतिकारियों को दुर्गा भाभी अक्सर मुहैया कराती रहती थीं।

असेम्बली बम काण्ड में गिरफतारी देकर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जेल गये। न्यायालय को इन लोगों ने क्रांतिकारियों की विचार-धारा के प्रचार का माध्यम बनाया। इन्हें छुड़ाने की योजना के तहत किये जा रहे बम परीक्षण के दौरान भगवती चरण वोहरा की मृत्यु हो गयी। मृत्यु की सूचना का वज्रपात सहते हुए, अन्तिम दर्शन भी न कर पाने का दंश झेलते हुए भी धैर्य और साहस की प्रतिमूर्ति बनी रहीं दुर्गा भाभी। पति की मृत्योपरान्त उनको श्रद्धांजलि रूपेण वे दोगुने वेग से क्रांति कार्य को प्रेरित करने लगी। पुनः कुछ दिनों बाद जहां वे लोग रह रहीं थीं, बम विस्फोट हो गया। सभी लोगों ने तत्काल वहां से तितर-बितर होकर भागने की योजना बनाई। इस आपाधापी में दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी एक साथ रहीं।

मुम्बई के गवर्नर हेली की हत्या की योजना दुर्गा भाभी ने पृथ्वी सिंह आजाद, सुखदेव राज, शिंदे और बापट को मिला कर बनाई। गलत-फहमी में इन लोगों ने पुलिस चैकी के पास एक अंग्रेज अफसर पर गोलियां बरसा दीं। बापट की कुशलता पूर्वक की गई डाइविंग से यह लोग बच पाये।चन्द्रशेखर आजाद, दुर्गा भाभी को अब भाई की तरह सहारा देते थे, उन्होंने इस योजना को लेकर काॅफी डांट लगाई। कुछ दिनों के बाद चन्द्रशेखर आजाद भी इलाहाबाद में शहीद हो गये।

समृद्ध परिवार की दुर्गा भाभी के तीनों घर लाहौर के तथा दोनो घर इलाहाबाद के जब्त हो चुके थे। पुलिस पीछे पडी थी। शची को दुर्गा भाभी अब अपने से दूर रख चुकी थी। लाहौर आकर दुर्गा भाभी ने फ्री प्रेस आॅफ इण्डिया से कहा, ‘‘पुलिस मेरा लगातार पीछा कर रही है, लेकिन कैद नही करती। मैं कोई काम नहीं कर पा रही हूँ। मुझे गिरफतार किया जाये नही तो मैं आज से अपने आप को स्वतन्त्र समझूंगी। ‘‘उसी दिन 14सितम्बर,1932 को पुलिस ने बुखार में तपती दुर्गा भाभी को कैद कर लिया। 15दिन के रिमाण्ड के पश्चात सबूतों के अभाव में दुर्गा भाभी को पुलिस को रिहा करना पड़ा। 1919रेग्यूलेशन ऐक्ट के तहत तत्काल आपको नजर कैद कर लिया गया। फिर लाहौर और दिल्ली प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। तीन वर्ष बाद पाबंदी हटने पर आपने प्यारेलाल गल्र्स स्कूल-गाजियाबाद में शिक्षिका के रूप में कार्य किया। इसी दौरान क्षय रोग हो गया परन्तु आप समाज-सेवा करते हुए कांग्रेस से जुडी रहीं। 1937में दिल्ली कांग्रेस समिति की अध्यक्षा चुनी गईं। 1938 में हड़ताल में आप पुनःजेल गईं। बालक शची अब शचीन्द्र हो गया था, योग्य शिक्षा देने की चाह में दुर्गा भाभी ने अड्यार में माण्टेसरी का प्रशिक्षण लिया और 1940 में लखनउ में पहला माण्टेसरी स्कूल खोला। सेवानिवृत्त के पश्चात् आप गाजियाबाद में रहीं। आपका स्वर्गवास 14अक्तूबर, 1999 को हुआ।राष्ट के लिए समर्पित दुर्गा भाभी का सम्पूर्ण जीवन श्रद्धा-आदर्श-समर्पण के साथ-साथ क्रान्तिकारियों के उच्च आदर्शों और मानवता के लिए समर्पण को परिलक्षित करता है।

Tuesday, November 16, 2010

रानी लक्ष्मी बाई के जीवन संघर्ष पर

रानी लक्ष्मी बाई के जीवन संघर्ष पर

19 नवम्बर 1835 को मोरोपंत व भागीरथीबाई की संतान रूप में एक बालिका ने जन्म लिया। काशी में जन्मी इस बालिका का नाम मणिकर्णिका रखा गया। प्यार से इस बालिका को सभी मनु पुकारने लगे। मोरोपंत जी सतारा जिले के वाई गाँव में चिमाजी आप्पा के यहाँ नौकरी करते थे। चिमाजी आप्पा पूना के पेशवा बाजीराव के भाई थे। सन्1818 में अंग्रेजों के पूना कब्जे के पश्चात् बाजीराव पेशवा बिठूर-कानपुर आ गये ।चिमाजी आप्पा के देहान्त के पश्चात् मोरोपंत,बाजीराव पेशवा के यहाँ बिठूर आ गये। बाजीराव के दत्तक नानासाहब धेाडोपन्त के साथ मनु ने बचपन में ही शस्त्र विद्या व घुड़सवारी का प्रशिक्षण ले लिया था। बाजीराव मनु को छबीली कहते थे। बाजीराव ने ही आठ वर्षीया मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर से कराया था। अब मनु ,झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हो गई ।

गंगाधर राव के पूर्वजों को झाँसी का राज्य महाराजा छत्रसाल से उपहार रूप में प्राप्त हुआ था। सन 1851को सोलह वर्षीया रानी लक्ष्मीबाई को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। कुछ ही दिनों पश्चात् यह नवजात शिुशु मृत्यु के आगोश में समा गया। विधाता के इस फैसले को गंगाधर राव सह न सके और वे बीमार पड़ गये। गंगाधर राव ने बीमारी की परिस्थिति को समझकर अपने सम्बन्धी वासुदेवराव के पुत्र आनन्द को गोद लेकर उसका नाम दामोदर राव रख दिया। 21नवम्बर 1853 को गंगाधर राव का स्वर्गवास हो गया। अंग्रेज तो मानो इसी दिन की प्रतीक्षा ही कर रहे थे,उन्होने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी रूप में अस्वीकार कर दिया और गंगाधर राव की लाखों की सम्पत्ति को अपने खज़ाने में जमा कर लिया। 7मार्च,1857 को शासन व्यवस्था के लिए अंग्रेज प्रतिनिधि एलिस को नियुक्त करके झाँसी को अंग्रेजी हुकूमत में शामिल कर लिया। अपमानित करते हुए वायसराय डलहौजी ने रानी लक्ष्मीबाई से किला खाली करवा लिया और 5000रू मासिक पेंशन बहाल कर दी। रानी को पारम्परिक केशवपन संस्कार के लिए काशी जाने की इजाजत नही दी गई। दामोदर राव के यज्ञोपवीत संस्कार के लिए जमा दस लाख रूपयों में से बडी मुश्किल से एक लाख रूपये,एक व्यापारी की जमानत से मिले।

अंग्रेजों के अन्याय-अत्याचार व जुल्म का प्रतिकार लेने के उद्देश्य से रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी युद्ध की तैयारी प्रारम्भ कर दी। स्त्री गुप्तचरों की टोली बना,अंग्रेज छावनियों से गुप्त समाचार लाने की जिम्मेदारी दी। स्त्री-सैनिकों के जत्थेां में वृद्धि की। तात्या टोपे ने सम्पूर्ण भारत में चलाई जा रही क्रान्ति की योजनाओं से रानी लक्ष्मीबाई को अवगत कराया। रानी को मानो मन माँगी मुराद मिल गई। 31मई, 1857का दिन स्वतन्त्रता-संग्राम के उद्घोश के लिए निर्धारित किया गया था। परन्तु मेरठ छावनी के 85 वीरों ने चर्बी वाले कारतूसों के इस्तेमाल से मनाही कर दी। वे जेल में डाल दिये गये थे। 10 मई1857 को घुड़सवार और पैदल सेना ने जाकर जेल तोड़ दी, अपने साथियों को छुड़ा लिया,अफसरो के घरों को फूॅ।क डाला। जिस यूरोपीय को पकड़ पाये,उसे मार डाले और दिल्ली की ओर चढ़ाई कर दी। यह घटना पूरे भारत में आग की तरह फैल गई। सम्पूर्ण उत्तर-भारत में मई माह में ही क्रान्ति की लपटें अंग्रेजों को दहलाने लगी।

5जून1857 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के स्टार फोर्ट नामक छोटे से किले पर सैनिकों ने हमला कर लूट लिया। झाँसी में अंग्रेज अफसरों के बंग्ले जला दिये गये। अंग्रेज अपनी स्त्रियों व बच्चों को रानी के पास महल में शरण हेतु ले कर आ गये। धन्य है-वो नारी-वीरांगना,जिसने अंग्रेजों द्वारा अत्याचारित होने के बावजूद राजधर्म व मानवता धर्म का त्याज्य नहीं किया। बाद में ये अंग्रेज परिवार किले में जा बसे। वहाँ भी भूख-प्यास से तड़पते परिवारों के लिए रानी ने भोजन भिजवाया। किले की लड़ाई में अंग्रेज अधिकारी गार्डन मारा गया तथा रानी के रिसालदार काले खाँ ने किला फतह किया। इसके बाद टीकमगढ़ के दीवान नत्थू खाँ ने अंग्रेजों के इशारे पर बीस हजार सैनिकों के साथ झाँसी पर आक्रमण किया। रानी ने उसे भी परास्त किया ।रानी लक्ष्मीबाई ने धैर्य,साहस को संजोकर और न्यायपूर्वक राज्य को चलाना प्रारम्भ किया। सैन्य संगठन को फिर से सुदृढ़ किया।धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की चहल पहल प्रारम्भ हो गई।रानी की सेना में दस हजार बुंदेले,अफगान और असंतुष्ट अंग्रेज थे।चार सौ घुड़सवारों से सुसज्जित सेना के सेनापति जवाहरसिंह बुन्देला तथा दुर्गा दल नामक स्त्री सैन्य दल की प्रमुख वीरांगना झलकारी बाई थीं।गोलंदाज गुलाम गौस के निर्देशन में तोपखाना था,जिसमें महिलाओं को भी तोप चलाने का विशेष प्रशिक्षण दिया गया था।वाणपुर के राजा मर्दन सिंह,शाह गढ़ के बख्त अली ने रानी को पर्याप्त सहायता दी।दस एक माह बाद ह्यरोज और बिटलाक ने अंग्रेजी फौज लेकर रायगढ़,चंदेरी,सागर,वाणपुर आदि को जीतते हुए 23मार्च,1858 को झांसी किले को घेर लिया।तात्या टोपे कालपी से रानी की सहायता के लिए निकले परन्तु अंग्रेजों को रानी के गद्दारों से इसकी भनक मिल गई एवं अंग्रेजों ने रास्ते में तात्या टोपे की सेना पर आक्रमण कर दिया।झांसी किले के चारों प्रवेश दार पर कुशल तोपचियों की तैनाती थी।अंग्रेजों ने ओरक्षा प्रवेश दार पर नियुक्त दुल्हाजू को,पीरबख्श के हाथों रिश्वत देकर,गद्दारी के लिए तैयार कर लिया।उसने अपना प्रवेश दार खोल दिया।उन्नाव प्रवेश दार रानी की प्रिय सहेली तथा दुर्गा दल की प्रमुख झलकारी बाई का पति पूरण सिंह तैनात था।अंग्रेजों ने किले में प्रवेश करते ही उसे मौत के घाट उतार दिया।पति की मृत्यु का शोक करने के बजाए वीरांगना झलकारी बाई ने कूटनीतिक चाल चली।रानी लक्ष्मी बाई को दत्तक पुत्र दामोदर राव के साथ साधारण वेष में बाहर निकाला तथा स्वयं रानी का रूप धारण कर साक्षात चण्डी का अवतार बन गई।झलकारी बाई ने अब अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया था अंग्रेजों को अधिकतम समय तक स्वयं में उलझाये रखना जिससे कि रानी सकुशल कालपी पहुँच जायें।एक बार फिर दुल्हाजू ने गद्दारी की,उसने अंग्रेजों को हकीकत बता दी।अब अंग्रेजों ने रानी का पीछा करना प्रारम्भ किया।झांसी में पन्द्रह हजार लोगों को अंग्रेजों ने मार डाला।करोड़ों की सम्पत्ति लूटी।सत्रह दिन तक चले इस युद्ध में झांसी तबाह हो गया।

इघर रानी कालपी पहुँची।वहां राव साहब पेशवा और तात्या टोपे ने उनका स्वागत किया।कालपी से ये लोग ग्वालियर आ गये।जनता व सेना ने राव साहब पेशवा का राजतिलक किया तथा रानी युद्ध की तैयारी में आस पास के ठिकानों का भ्रमण करने लगी।ग्वालियर के सिंधिया राजघराने ने अंग्रेजों के आगे घुटने टेक दिये।ह्यूरोज विशाल सेना लेकर ग्वालियर आ धमका।मुरार में उसकी टक्कर तात्या टोपे से हुई।भयंकर युद्ध प्रारम्भ हो चुका था।18जून,1858 का वो दिन भी आ गया जिस दिन विधाता ने रानी लक्ष्मी बाई की शहादत की तारीख तय कर रखी थी।काशी और सुन्दर नाम की विश्वस्त सहेलियों के साथ रानी चारों तरफ से अंग्रेजों से घिर गई थी।रानी की तलवार बाजी से हार कर अंग्रेजों ने तोपों का मुंह खोल दिया।रानी के सैनिक मारे गये,घोड़े की भी एक टांग टूट गई।रानी दूसरे घोड़े पर सवार होकर दोनो हाथों से तलवार चलाती हुई,मुंह में घोड़े की रस्सी दबाये अंग्रेजों को चीरते हुए निकलने में कामयाब हो गई।रास्ते में बड़ा नाला था,घोड़ा नया होने के कारण बीच में ही फंस गया।अंग्रेजों ने रानी पर गोलियां बरसानी प्रारम्भ कर दी।गोली से घायल रानी के पीछे सिर पर अंग्रेज ने तलवार से वार किया।रानी इस समय कालस्वरूपा हरे गई्र थी।बुरी तरह घायल रानी ने दर्जन भर अंग्रेज मार डाले।अंग्रेज पीछे हटे और लड़ते लड़ते रानी लक्ष्मी बाई मातृभूमि की गोद में सदा के लिए सो गईं।आज उनका जीवन संधर्ष,बलिदान गाथा,प्रशासनिक क्षमता प्रेरक है हमारे लिए और उन्हें मातृशक्ति के रूप में हम अपने ह्दय में संजोयें हुए हम उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

सरदार भगत सिंह के प्रेरणाश्रोत थे कर्तार सिंह सराभा

सरदार भगत सिंह के प्रेरणाश्रोत थे कर्तार सिंह सराभा

अरविन्द विद्रोही

भगतसिंह के पास सदैव उनका चित्र रहता था, भगत सिंह के शब्दों में- यह मेरा गुरू,साथी व भाई है। गाँव सराभा जनपद लुधियाना में इकलौते पुत्र के रूप में जन्म लेने वाले माँ भारती के इस लाल की जिन्दगी का एक ही लक्ष्य,एक ही इच्छा थी-क्रान्ति।अल्पायु में ही पिताजी का देहावसान हो जाने के पश्चात् दादा की स्नेहिल छाँव में आपका पालन-पोषण हुआ।नवीं कक्षा के बाद आपने अपने चाचा के घर रहकर दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1910-1911 के वक्त आप काॅलेज में दाखिला लिये।यह आन्दोलन का समय आपके भीतर देशप्रेम की भावना को अंकुरित करने में सहायक सिद्ध हुआ।1912 में आप सानफ्रांसिस्को-अमेरिका पँहुचे। गोरों की जबान से डैम हिन्दू और ब्लैक मैन आदि सुनते ही सुनते ही वे पागल हो जाते।भारत की इज्जत,सम्मान की धज्जियां उधड़ते देखना उनका कोमल मन सहन नहीं कर पाता।घर-परिवार की याद आने पर गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ अपना देश भारत नजर आता।यह असम्भव था कि कर्तार सिंह सराभा को चैन मिलता।आज भारत की जो दुर्दषा है वो अपने ही धरा के लोगों के कारण है परन्तु उस समय गुलामी का अतिरिक्त दंश कोढ में खाज का कार्य कर रहा था।मन में विचार आया कि यदि शान्ति से, ब्रितानिया हुकूमत के आगे गिड़गिड़ाने से मुल्क आजाद न हुआ तो देश किस तरह से आजाद होगा?फिर किशोर सराभा क्रान्ति के पथ पर चलने का दृढ़ निश्चय करके,अपना सर्वस्व भारत माँ को अर्पण करने की ठानकर,भारतीय मजदूरों के बीच क्रान्ति की भभूत का वितरण करने में लग गया।भारत की आजादी किस राह से लायी जाये इस पर सराभा ने गहरा मनन् किया था। अपमान की,गुलामी की जिन्दगी से मौत हजार दर्जा अच्छी-यह मूलमंत्र हर मजदूर के मन में आत्मसात करा रहे थे क्रान्ति पथ प्रदर्शक कर्तार सिंह सराभा। मई 1912 में एक गुप्त बैठक आयोजित की गई। प।जाब के देशभक्त भगवान सिंह वहाँ पहुँचे।लगातार जनसम्पर्क व जलसे आयोजित हुए।नवम्बर 1913 में गदर का प्रथम अंक प्रकाशित हुआा।गदर हैण्ड प्रेस पर छापा जाता था।कर्तार सिंह सराभा मतवाले नौजवान थे।प्रेस चलाते2 थक जाने पर वे गाने लगते थे-
सेवा देश दी जिन्दड़िए बड़ी औखी,

गल्लाँ करनीआँ ढेर सुखल्लीयाँ ने।

जिन्नाँ देशसेवा विच पैर पाया,

उन्नाँ लक्ख मुसीबताँ झल्लियाँ ने।

करतार सिंह न्यूयार्क में विमान कम्पनी में कार्य करने लगे।सितम्बर 1914 में कामागाटारू जहाज प्रकरण के प्श्चात् कर्तार सिंह,क्रान्तिप्रिय गुप्ता और एक अमेरिकी क्रान्तिकारी जैक एक साथ जापान आये और बाबा गुरदित्त सिंह से मुलाकात कर योजनायें बनाई।प्रचार युद्ध को तेज किया गया।स्टारकन के पब्लिक जलसे में क्रान्तिपुत्रों ने आजादी और बराबरी की कसमें खायीं एवं आजादी का झण्डा फहराया।सभी क्रान्तिकारियों ने भारत लौटने का संकल्प लिया।

चलो चलें देश के लिए युद्ध करने,

यही आखिरी वचन और फरमान हो गये।

कर्तार सिंह गजब के उत्साही और जोशीले थे। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद वे अमेरिका से भारत आये।दिसम्बर 1914 में मराठा नौजवान विष्णु पिंगले भी आ गये।इनकी कोशिश से श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल और श्री रासबिहारी बोस आये।क्रान्तिकारी योद्धा रासबिहारी बोस के साथ मिलकर कर्तार सिंह सराभा ने सम्पूर्ण भारत में पुनः एक बार गदर करने की योजना बनाई।तारीख तय हुई 21 फरवरी 1915।भारतीय फौजों को अपने पक्ष में करना एक बहुत बड़ा काम था।हथियार,गोलाबारूद,काफी धन सभी वस्तुओं का योजनापूर्वक प्रबन्ध किया।देश के सभी क्रान्तिपुत्रों में जोश की लहर दौड़ पडी।सर्वत्र संगठन किया जाने लगा!

गदर पार्टी के सारे कार्य सुनियोजित ढ़ग से होते थे।21 फरवरी 1915 को बर्मा,सिंगापुर समेत सारे भारत में क्रान्ति होनी थी,लेकिन होनी को कुछ और मंजूर था।पंजाब पुलिस का जासूस सैनिक कृपाल सिंह क्रान्तिकारियों की पार्टी में शामिल हो चुका था।पैसे के लिए उसने अपना जमीर बेच दिया।तैयारी की सूचना उसने अंग्रजों को दे दी। परिणामस्वरूप समस्त भारत में धरपकड़,तलाशियां और गिरफतारियां हुईं। अनेक क्रान्तिकारी गिरफतार हुए,कुछ भूमिगत हुए,तो कुछ काबुल की तरफ निकल गये। विफल होने की ऐसी स्थिति में रासबिहारी बोस मायूस होकर लाहौर के एक मकान में लेटे थे।कर्तार सिंह भी वहीं चारपाई पर आकर दूसरी तरफ मुहँ करके लेट गये।दोनो ने आपस में कोई बात नहीं की,लेकिन चुपचाप ही एक दूसरे के हालात समझ गये होंगें।इनके हालात का अनुमान हम क्या लगा सकते हैं-

दरे-तदबीर पर सर फोड़ना शेवः रहा अपना,

वसीले हाथ ही न आये किस्मत आजमाई के।

कर्तार सिंह सराभा की इच्छा थी कि आजादी मिले या लड़ते-लड़ते मौत।वे फिर अलख जगाने निकल पड़े।सरगाोधा के नजदीक चक्क नम्बर 5 में पहुँच कर उन्होंने विद्रोह की चर्चा छेडी़।आप यहाँ पर पकड़ लिए गये।मस्त मौला कर्तार सिंह के आर्कषक व्यक्तित्व से सभी प्रभावित होते थे।मुकदमा चला।साढ़े अठारह वर्ष की उम्र थी।सबसे कम उम्र के क्रान्तिकारी थे सराभा।आपके बारे में जज ने लिखा-वह इन अपराधियों में,सबसे खतरनाक अपराधियों में एक है।अमेरिका की यात्रा के दौरान और फिर भारत में इस षड़यन्त्र का ऐसा कोई हिस्सा नहीं जिसमें इसने महत्वपूर्ण भूमिका न निभाई हो।दौरान-ए-मुकदमा आपने बयान में कहाःअपराध के लिए मुझे उम्रकैद की सजा मिलेगी या फाँसी!लेकिन मैं फाँसी को प्राथमिकता दूँगा ताकि फिर जन्म लेकर-जब तक हिन्दुस्तान आज़ाद नहीं हो,तब तक मैं बार बार जन्म लेकर,फाँसी पर लटकता रहूँगा।यही मेरी अन्तिम इच्छा हैं............

चमन ज़ारे मुहब्बत में,उसी ने बाग़बानी की,
जिसने मेहनत को ही मेहनत का समर जाना।
नहीं होता है मुहताजे नुमाइश फै़ज शबनम का,
अँधेरी रातें मोती लुटा जाती हैं गुलशन में।

डेढ़ साल तक मुकदमा चलने के पश्चात् 16 नवम्बर 1915 के दिन कर्तार सिंह सराभा को विष्णु गणेश पिंगले,बख्शीश सिंह,सुरेन सिंह वल्द बूटासिंह,सुरेन सिंह वल्द ईश्वर सिंह,हरनाम सिंह और जगत सिंह के साथ फाँसी पर चढ़ा दिया गया।दस पौण्ड वजन बढ़ गया था। प्रसन्नचित्त सराभा भारत माता का जयकारा लगाते हुए क्रान्ति-पथ को आलोकित कर सरदार भगतसिंह जैसा अनुयायी भारत माँ की सेवा के लिए तैयार कर,मेहनतकश-मज़लूमों की आवाज बनने के लिए,गुलामी की बेड़िया। तोड़ने के लिए हमारे बीच छोड़ गया।।।।

Tuesday, November 9, 2010

परिवर्तन

परिवर्तन

परिवर्तन होना ही था........ परिवर्तन होता क्यूं है...... परिवर्तन ऐसाभी क्या। तुम बदले यह होना ही था.... हम बदले यह संभव ना था। परिवर्तन होना हीथा......दस्तूर ज़माने का... समय समय पर वक्त बदलने पे..... परिवर्तन होना ही था। फिर,असंभव यह भी नहीं ..... नामुमकिन कुछ भी नहीं । गर हम बदले,तो क्या होगा? निश्चय ही,ना अच्छा होगा..... तुम जैसों के जीवन के लिए.... परिवर्तन,ऐसा भी क्या.....

सपना

सपना देखा,लगा जिन्दगी हो ........ भरी गर्मी में,भरी दोपहरी महसूस हुआ.... सपना नहीं,मेरी जिन्दगी का सच हो। आँखे खुली -अधखुली अपलकनिहारती..... क्या कहें,क्या कुछ ना कहें...... देखो वर्षों बीत गए....... सोचते हुए ,कब कहें ,कैसे कहें................. तुम सपना हो मेरी जिन्दगी का......... और जिन्दगी अमानत है,माँ-बाप,खानदान की. कुल-नाम-मर्यादा का ख्याल...... हर पल तेरी याद,तेरा ही ख्याल,कौंधता एक सवाल.... आँखे देखती रहीं,मन चुप ही रहा..... रिश्ता कैसा बन गया है तुमसे मेरा.... ना कुछ और कहा,ना सुना ,इस प्यार में....... तुमने भी और तुम्हारे दिलोदिमाग ने। आज फिर तुमने मजबूर किया...... तुम्हे समझाने को निगाहों से नहीं........ वाणी से,शब्दों से,स्फुटित स्वरों से ....... कि मेरी सपना अब तू हकीकत है, किसी जिन्दगी की...... अब इस नए रिश्ते की मर्यादा में तुम्हे...... निकलना होगा अपने जेहन से मुझे व मेरी शरारतें...। जिन्दगी की धरातल पे सपनो की इमारत.... रेत के महल की तरह,लहरों के झोंके से........ भरभरा कर गिर गयी। लेकिन खामोश हूँ सिर्फ इसलिए .... मेरी सपना रहे मेरी.सिर्फ मेरे लिए.... इसलिए इंतज़ार है............ काली रात का अब इस बियावान में.
राम

Monday, November 1, 2010

जनसुविधायें-जनअधिकार बहाल हों

जनसुविधायें बद से बदतर होती जा रहीं हैं। जनसमस्यायें सुरसा की तरह मुॅंह बाये जनता का सुख चैन लील रही है। भ्रष्टाचार का रावण,तानाशाही रूपी मेघनाद एवं माफिया रूपी कुंभकर्ण के बदौलत जनता की शान्ति रूपी सीता का हरण कर चुका है ।जाने कब इन कलयुगी राक्षसों की लंका का भेदन रामभक्त कोई हनुमान करेगा?
आज आम नागरिक का जीवन नारकीय स्थिति में पहुॅंच गया है। घण्टों विद्युत कटौती के कारण नौकरशाहों,माफियाओं,पूॅंजीपतियों और राजनैतिज्ञों को छोडकर सारी जनता का जीवन कोढ में खाज सरीखा हो गया है ।जन-गण-मन के भाग्य विधाता वातानुकूलित कमरों में जनरेटरों के सहारे अपने ऐश्वर्य का भोग और निर्लज्जता पूर्वक प्रदर्शन करते हुए बेचारी जनता जनार्दन के कल्याण हेतु कार्यक्रम बनाते रहते हैं।अनियंत्रित व भ्रष्टाचार से सराबोर विकास व कल्याण का रथ जन-भावनाओं को रौंदता हुआ भाग्यविधाताओं की तिजोरी भरता हुआ तेजी से दौड रहा है ।इनके मनमाने,अदूरदर्शी,पाखण्ड भरे जनविरोधी कृत्यों का प्रतिफल कौन,कब,कैसे और कहॉं देगा?इन कलयुगी राक्षसों का संहार कौन करेगा?राजनैतिक दलों द्वारा एक दूसरे पर दोषारोपण करते देख जनता का मन क्लान्त हो चुका है। चुनाव में मतदान के प्रति उदासीनता राजनैतिक दलों व व्यक्तियों में चारित्रिक गिरावट के ही कारण है ।समस्याओं के खिलाफ आवाज बुलन्द करने वाला जनसमर्थन के अभाव में जटायु की भॉंति सीताहरण विफल करने के प्रयास में असहाय बेचारगी व पराजय झेलता दिखायी पडता है ।जनसमस्याओं
पर आन्दोलन का स्थान नेता,नेता पुत्रों,सम्बन्धियों से सम्बन्धित मामलों पर जो कि वर्चस्व के लिए स्वप्रायोजित होते हैं,ने,ले लिया है।नेताओं का जन्मदिन जनता को साक्षात स्वर्ग के दर्शन करा देता है।नेताओं के जन्मदिन पर कार्यकर्ता जो कि जनता का ही हिस्सा है,समुद्र रूप धारण कर सडको। पर फैले दिखते हैं।फिर क्या अपनी समस्याओं के लिए जनता भी जिम्मेदार नहीं है?दलीय कार्यक्रमों,नेताओं के स्वागत में किन्नरों सा उत्साह प्रदर्शन और अपनी ही समस्याओं से लडने के लिए वक्त की कमी और कोई सुनता नहीं-जैसा मिथ्या प्रलाप ।यह जो आत्महत्या करने जैसा कदम भारत का आमजन उठाता आ रहा है,यह भ्रष्टाचारियों,पूॅंजीपतियों और वंशानुगत राजनीति को संजीवनी दे रहा है ।रही सही कसर अपराधियों द्वारा राजनीति की लंका पर प्रभावी पहरेदारी-कब्जेदारी के प्रयासों ने पूरी कर दी है।

संतुष्टि जनता के लिए अभिशाप बन चुकी है।जो हमारा हक है,उसका आधा या कोई भी हिस्सा हमें मिल रहा है,चलो,कोई बात नहीं, मिल तो रहा है,यह भाव जनसुविधाओं में लगातार कटौती का एक कारण बना है।सरकारी योजनाओं में लाभार्थी से धन-उगाही,अपात्रों द्वारा लाभ अर्जित करने हेतु लोकसेवकों को प्रलोभन देना,दबंगों की मदद से असहायों की भूमि पर कब्जा,सार्वजनिक सम्पत्ति पर कब्जा,कमीशनखोरी,घटिया निर्माण,शिक्षा-स्वास्थ्य-ग्राम्य विकास जैसे महकमों में व्याप्त अनाचार जनता के साथ साथ देश को भी रसातल में ले जा रहें हैं।असंतोष की ज्वाला कहीं जल ही नहीं रही है,धुॅंआ का आभास मात्र हो रहा है ।हालात तो यह है कि जनसमस्या से निजात पाने के लिए जनता को सडक पर होना चाहिए,पर हाय रे बेबसी...
क्या इसी स्वतन्त्र भारत की अवधारणा संजोयें सरदार भगतसिंह ने फॉंसी के फन्दे को स्वीकारा था?क्या महामानव महात्मा गॉंधी ने इसी स्वराज्य के लिए यहॉं की जनता की आजादी की लडाई लडी थी? सरदार भगतसिंह की कल्पना- जनता के लिए जनता की सरकार -कब साकार होगी?आजाद भारत का शासन प्रशासन व पुलिसिया तंत्र ब्रिटिश काल की दरिंदगी को शिकस्त दे रहा है।
शासन को गम्भीरतापूर्वक मनन् करना चाहिए-लोगों के दिलोदिमाग में आग सुलग रही है।यह आग कभी भी विकराल रूप धारण कर सकती है,ज्वालामुखी बनकर फूट सकती है।किसका आशियाना असंतोष रूपी यह लावा जला दे,इसका ठिकाना नहीं है ।जागो हे शासन सत्ता के मद में चूर राजनेताओं-जागो ।अगर अब भी तुम्हारी सत्ता मद में चूर निद्रा भंग नहीं हुई तो विभिन्न अंचलों में फैली हुई गरीब,मेहनतकश रियाया के असंतोष की आग,तथाकथित अराजकता,माओवाद,नक्सलवाद,क्षेत्रवाद,भाषावाद आदि के रूप में फैली असंतोष की यह आग हवा रूपी चन्द झोंकों के इन्तजार में सुलग रही है ।यह हवा शासन की दमन नीति ही बनेगी,इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है।इस असंतोष की आग को न तो उपेक्षित किया जा सकता है,न बुझाया जा सकता है।हॉं,जनता की आवाज को सुनकर,जनहित के कार्यों को ईमानदारी से करके,जनसुविधाओं-अधिकारों की तत्काल बहाली करके इसको सकारात्मक रूप में अवश्य परिवर्तित किया जा सकता है ।निश्चित ही यह कार्य सत्ता के शीर्ष पर आसीन नीतिनिर्धारकों को करना ही पडेगा,और उन्हे करना भी चाहिए, वरना् इतिहास तो दोहराया ही जाता है।