Saturday, October 15, 2011

लोहिया और जयप्रकाश नारायण मधु लिमये की नज़र में-अरविन्द विद्रोही -

स्वतन्त्र भारत की राजनीति और चिन्तन धारा पर जिन गिने -चुने लोगो के व्यक्तित्व का गहरा असर हुआ है , उनमे डॉ राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण प्रमुख रहे हैं | भारत के स्वतंत्रता युद्ध के आखिरी दौर में दोनों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण रही है | हजारीबाग जेल से जयप्रकाश के बाग़ जाने की घटना ने चिंगारी का काम किया और इस एक घटना के कारण जयप्रकाश की लोकप्रियता बहुत बढ़ गयी | भूमिगत आंदोलनों को प्रज्ज्वलित करने में लोहिया की भूमिका कार्यक्रम और विचार की दृष्टि से असाधारण था | भूमिगत रेडिओ की कल्पना को उषा मेहता और उनके साथियो की मदद से डॉ लोहिया ने ही साकार किया था | सुचेता कृपलानी जैसी गाँधी वादी और अच्युत पटवर्धन जैसे समाजवादी , इनके बीच की कड़ी लोहिया ही थे समाजवादी नेता समझते थे कि महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरु में जवाहरलाल अपेक्षतया ज्यादा प्रगतिशील और वामपंथी हैं | उनकी यह भी धारणा थी कि नेहरु गाँधी और सुभाष चन्द्र बोष से ज्यादा आधुनिक हैं| लोहिया का यह सम्मोहन १९४२ से ही टूटने लगा था और गाँधी जी की हत्या के दिन तक पूरी तरह टूट चुका था | लेकिन जयप्रकाश का मोह आखिर तक नहीं टूटा | जयप्रकाश के मन में नेहरु के प्रति गहरा प्रेम था , वे नेहरु के परिक्रमा पथ से कभी नहीं निकल पाए | लोहिया का आत्म परीक्षण समाजवादी दल के मुल्यांकन की दृष्टि से महत्व पूर्ण है | जहा तक अशोक मेहता , जयप्रकाश आदि का सवाल है , उनमे निश्चित ही धीरज की कमी रही | जय प्रकाश सदभाव से ओत-प्रोत थे | लोहिया की तरह उनमे भी सत्ता-पिपासा लेश मात्र नहीं थी, मगर उनमे विचारो की स्पष्टता नहीं रहती थी | वे अगल-बगल के लोगो से जल्दी प्रभावित हो जाते थे | साथ ही , किसी भी विवादस्पद प्रश्न पर स्पष्ट राय देने तथा उस पर अड़े रहने में जय प्रकाश को हिचक होती थी | चाहे सुभाष चन्द्र बोस के दुबारा अध्यक्ष पड़ का चुनाव लड़ने की बात हो , या त्रिपुरी कांग्रेस के बाद हुये मतभेदों का प्रश्न , चाहे कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में अपनाये गये रुख का सवाल , किसान मजदूर प्रजा पार्टी के साथ विलीनीकरण की समस्या हो या कांग्रेस के साथ सहयोग का विवाद जय प्रकाश अक्सर ढुलमुल नीति अपनाते थे , अपना मत नहीं बना पाते थे | लोहिया इन तरीको से बहुत नाराज़ रहते थे | जय प्रकाश दल के महामंत्री थे | किसी बड़े संगठन को चलाने के लिए लचीलेपन की , समझौते की जरुरत होती है | जय प्रकाश ने लोहिया से कहा था -- आखिर तुमने मुझको दल का महामंत्री बना रखा है तो महामंत्री को यह सुविधा होनी चाहिए कि वह आखिर में बोले , सबकी राय सुनकर , आखिर सबको साथ लेकर चलना है | लोहिया कुछ हद तक जय प्रकाश कि बात सही मानते थे | लोहिया चिंतन-मनन वाले आदमी थे | लेकिन वे क्रांति शुन्य नेता नहीं थे , सृज़न शील चिंतन के साथ तमाम जन आन्दोलन कि अगुवाई की | लेकिन संगठन बनाने का एक अलग कौशल होता है | लोहिया खुद मानते थे कि उनमे ना इस तरह का कौशल है और ना ही इस तरह के काम के प्रति आस्था | १९५५ के बाद दो तीन साल तक संगठन बनाने का प्रयोग लोहिया ने किया लेकिन सफलता नहीं मिली | लोहिया को चाह थी सिर्फ दिमागी नेतृत्व की | जय प्रकाश कुशल संगठन कर्ता थे | कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना काल से संगठन की जिम्मेदारी जय प्रकाश ने संभाली | जय प्रकाश के व्यक्तित्व में करिश्मा था | १९५२ के चुनावो में समाजवादी दल की हार के बाद जय प्रकाश का मन दल से दूर हटने लगा | चुनावी हार को व्यक्तिगत पराजय मन वे भूदान की तरफ , विनोबा भावे की विचार धारा की ओर मुड़े | अनशन आदि के आध्यात्मिक प्रयोगों में वे उलझ गये | इसी बीच नेहरु ने जय प्रकाश को एक पत्र लिख कर दिल्ली आकर सहयोग-वादी बात चीत का न्यौता दिया , बात चीत का सिलसिला शुरु हुआ | जय प्रकाश में हुये इन परिवर्तनों को लोहिया पसंद नहीं करते थे | पंच मढ़ी सम्मेलन १९५२ में जय प्रकाश की कार्यकर्ताओ ने जन संघर्ष के मोर्चे पर पहल ना करने पर आलोचना की | जय प्रकाश के मन में जवाहर लाल की सरकार के बारे में गुस्सा नहीं था जो बाद में इंदिरा सरकार के बारे में उनके मन में पैदा हुआ | अतः नेहरु के समय में सरकार से जूझने के लिए , टक्कर लेने के लिए जो चिंगारी , जो प्रखरता होनी चाहिए , वह उत्पन्न नहीं हो पाई | लोहिया इस बात को लेकर दुखी हो जाते थे कि उनके द्वारा इतने आन्दोलन चलाये गये , इतने विचार दिये गये , लेकिन इसका श्रेय उन्हें कभी नहीं मिला | १९५७ से लोहिया निरंतर कोशिश करते रहे कि जय प्रकाश राजनीति में वापस आये | लोहिया की बातो और कोशिशो का उस समय कोई असर जय प्रकाश पर नहीं पड़ा | जय प्रकाश ने यहाँ तक कहा कि देश को इस तरह हिलाने कि प्रक्रिया पर ना उनका विश्वास है , ना इस तरह के काम में उनको कोई रूचि है | समाजवादी आन्दोलन का यह दुर्भाग्य रहा कि जय प्रकाश - लोहिया के बीच मतभेदों के कारण दोनों का व्यक्तित्व व गुण परस्पर पूरक होते हुये भी आपसी सहयोग का सिलसिला टूट गया | अफ़सोस इस बात का था कि समाजवादी आन्दोलन में परिवर्तन की गाड़ी को जय प्रकाश - लोहिया रूपी बैलो को जोड़ने वाला कोई गाँधी नहीं था | जो काम लोहिया चाहते थे कि जय प्रकाश करे और जिसे करने में राम मनोहर लोहिया के जीवन काल में जय प्रकाश ने इंकार किया , वही काम उन्होंने १९७४ के बाद किया | लोहिया का बस चलता तो वे कांग्रेस का तख्ता १९६७ में ही उलट देते | जय प्रकाश ने जब यह काम संभाला तब तक समाजवादी आन्दोलन विघटित होते होते अत्यंत कमजोर हो गया था | देश की राजनीति को नयी दिशा देने या देश के आर्थिक-सामजिक ढांचे में बुनियादी तबदीली लाने की उसकी छमता ख़त्म हो चुकी थी | लोहिया में निर्भीक बन आत्म परीछन करने का बड़ा गुण था | लोहिया सम दृष्टि वाले थे | जय प्रकाश में सम दृष्टि का अभाव था | धनी-मानी और बड़े लोगो से वे प्रभावित हो जाते थे | उनके व्यवहार में फर्क आ जाता था | लोहिया और जे पी दोनों पर गाँधी का प्रभाव था | लोहिया का व्यक्तित्व लुभावना होते हुये भी प्रखरता थी , शब्द तीखे होते थे | भावना का वे ख्याल नहीं रखते थे | जय प्रकाश का स्वाभाव सौम्य था , व्यक्तित्व में मिठास थी | वे म्रदु भाषी थे , वे किसी को जल्दी नाराज़ नहीं करते थे | दोहिया का डालिए प्रणाली व लोकतंत्र में पूर्ण विश्वास था | वे लोकतंत्र को हर प्रकार से समृद्ध बनाना चाहते थे और जय प्रकाश राष्ट्रीय सहमति , दल हीन लोकतंत्र , दल विहीन राजनीति आदि अवास्तविक कल्पनाओ के शिकार थे | लोहिया की सप्त क्रांति और जय प्रकाश की संपूर्ण क्रांति में अंतिम उद्देश्यों को लेकर कोई फर्क नहीं | जे पी सप्त क्रांति को ही सम्पुर्न्य क्रांति मानते थे | प्रखर राष्ट्रीयता के प्रवक्ता लोहिया सिकुड़ने वाले राष्ट्रवाद के समर्थक नहीं थे | लोहिया और जय प्रकाश के आदर्श उतुंग थे | नागालैंड , कश्मीर , बांग्ला देश आदि के प्रश्नों के बारे में जय प्रकाश द्वारा की गयी पहल उनकी आदर्श वादिता का उत्तम सबूत है | लोहिया की अपनी एक सम्यक- दार्शनिक दृष्टि थी और जय प्रकाश के व्यक्तित्व में गज़ब का जन -आकर्षण | डॉ लोहिया ने १९५४ में ही जय प्रकाश को पत्र लिखा था ---- देश की जनता का तुमसे लगाव है , तुम चाहो तो देश को हिला सकते हो , बशर्ते देश को हिलाने वाला खुद ना हिले |