Monday, January 31, 2011

अन्याय के खिलाफ हर सम्भव संघर्ष ही सत्याग्रह

अन्याय के खिलाफ हर सम्भव संघर्ष ही सत्याग्रह

अरविन्द विद्रोही
महात्मा गॉंधी ने सत्य क्या है,इसके उत्तर में कहा था-यह एक कठिन प्रश्न है,किन्तु स्वयं अपने लिए मैने इसे हल कर लिया है।तुम्हारी अन्तरात्मा जो कहती है,वही सत्य है।गॉंधी जी के ही शब्दों में -कायरता और अहिंसा,पानी और आग की भॉंति एक साथ नहीं रह सकते।सत्याग्रह को स्पष्ट करते हुए महात्मा गॉंधी ने कहा था-अपने विरोधियों को दुःखी बनाने के बजाए,स्वयं अपने पर दुःख डालकर सत्य की विजय प्राप्त करना ही सत्याग्रह है।सत्याग्रह तो सत्य की विजय हेतु किये जाने वाले आध्यात्मिक और नैतिक संघर्ष का नाम है।महात्मा गॉंधी यह मानते थे कि अहिंसा वीरों का धर्म है और अपनी कायरता को अहिंसा की ओट में छिपाना निन्दनीय तथा घृणित है।यदि कायरता और हिंसा में से किसी एक का चुनाव करना हो तो गॉंधी जी हिंसा को स्वीकार करते थे।उन्होंने कहा था,-यदि आपके ह्दय में हिंसा भरी है तो हम अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए अहिंसा का आवरण पहनें,इससे हिंसक होना अधिक अच्छा है।महात्मा गॉंधी कायरता के पक्षधर नहीं थे।महात्मा गॉंधी अमेरिकन अराजकतावादी लेखक हेनरी डेबिट थोरो से बहुत प्रभावित थे।थोरो की पुस्तक वद जीम कनजल व िबपअपस कपेवइमकपमदबम ने गॉंधी जी पर प्रभाव डाला।महात्मा गॉंधी पर बाइबिल के पर्वत प्रवचन-ेमतउवद वद जीम उवनदज का बड़ा प्रभाव था।पर्वत प्रवचन से ही कि,‘‘अत्याचारी का प्रतिकार मत करो,वरन जो तुम्हारे दॉंये गाल पर चॉंटा मारे उसके सामने बॉंया गाल भी कर दो,अपने शत्रु से प्रेम करो।‘‘महात्मा गॉंधी ने ग्रहण किया था।लेकिन गॉंधी जी के ही शब्दों में,‘‘अहिंसा का तात्पर्य अत्याचारी के नम्रतापूर्ण समर्पण नहीं है,वरन् इसका तात्पर्य अत्याचारी की मनमानी इच्छा का आत्मिक बल के आधार पर प्रतिरोध करना है।
महात्मा गॉंधी ने स्पष्ट किया था कि प्रत्येक व्यक्ति सत्याग्रही नहीं हो सकता।उनके अनुसार सत्याग्रही के लिए यह आवश्यक है कि वह सत्य पर चले,अनुशासित रहे,मन से,वचन से,कर्म से अहिंसा में विश्वास रखे।सत्याग्रही को कभी भी अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए छल,कपट,झूठ,हिंसा का सहारा नहीं लेना चाहिए।हिन्द स्वराज्य में सत्याग्रही के लिए 11व्रतों का पालन आवश्यक बताया है,ये व्रत क्रमशः अहिंसा,सत्य,अस्तेय,ब्रह्मचर्य,अपरिग्रह,शारीरिक श्रम,अस्वाद,निर्भयता,सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखना,स्वदेशी तथा अस्पृश्यता निवारण हैं।
महात्मा गॉंधी के अनुसार किसी भी तरह से अपने विरोधियों को कष्ट नहीं देना चाहिए परन्तु जब सत्याग्रही अपनी मांगों को लेकर सत्याग्रह करता है,तब निश्चित रूप से विरोधी को मानसिक परेशानी तो होती ही है।इसी लिए आर्थर मूर ने सत्याग्रह के आत्मिक बल प्रयोग को मानसिक हिंसा उमदजंस अपवसमदबम कहा है।सत्याग्रह का एक रूप उपवास भी विरोधी पक्ष के मन में भय व आतंक ही भरता है,अतःयह आतंकवाद का ही एक रूप कहा जा सकता है,इसे राजनैतिक दबाव चवसपजपबंस इसंबाउंपसपदह भी कहा जा सकता है।गॉंधी जी के बताये सत्याग्रह से भी विपक्षी को कष्ट तो होता ही है,फिर किसी को दुःख न पहुॅंचाने का सिद्धान्त भी खण्डित ही होता है।तात्पर्य यह है कि जब अन्यायी के अन्याय का विरोध करना है,सत्य का पालन करना है,सत्य का आग्रह करना है तब सिर्फ आत्मिक बल का प्रयोग क्यों??क्या आजादी की जंग में सशस्त्र संघर्ष के राही गलत राह पर थे?क्या जनता को अपने हक के लिए,आजादी के लिए,अन्याय के खिलाफ संघर्ष के जो उदाहरण हमारे 1857 के शहीदों ने प्रदत्त किये,वो अनुकरणीय नहीं है? क्या हमें चाफेकर बन्धुओं से लेकर भगत सिंह और उनके साथियों के विचार,त्याग व बलिदानों से हमें कोई प्रेरणा नहीं लेनी चाहिए,यह तो सशस्त्र संघर्ष के ही राही थे।आजाद हिन्द फौज के नायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को कौन भूल सकता है?1929 लाहौर कांग्रेस में दुर्गा भाभी और अन्य क्रान्तिकारियों द्वारा वितरित भगत सिेह और भगवतीचरण वोहरा द्वारा लिखित हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के घोषणा पत्र में लिखा गया था,-‘‘आजकल यह फैशन हो गया है कि अहिंसा के बारे में अन्धाधुन्ध और निरर्थक बात की जाये।जब दुनिया का वातावरण हिंसा और गरीब की लूट से भरा हुआ है,तब देश को अहिंसा के रास्ते पर चलाने का क्या तुक है?हम अपने पूरे जोर के साथ कहते हैं कि कौम के नौजवान कच्ची नींद के एैसे सपनों से रिझाये नहीं जा सकते।‘‘
दरअसल समझने की बात यह है कि महात्मा गॉंधी के बताये सत्याग्रह के रूप से भी विरोधी को कष्ट तो होता ही है।विपक्षी को मानसिक तथा कभी कभी शारीरिक कष्ट भी होता है,इस तरह तो गॉंधी जी का आदर्श कि शत्रु को भी कष्ट नहीं पहुॅंचाना चाहिए,उनके ही एक आदर्श सत्याग्रह से खण्ड़ित हो जाता है।आत्मिक बल के प्रयोग से विरोधी को मानसिक कष्ट तो होता ही है।शत्रु को कष्ट न पहुॅंचे यह सिद्धान्त भी अस्तित्व हीन व निरर्थक है।महात्मा गॉंधी जी का मन्तव्य सिर्फ यह था कि सीधे लड़ाई न लड़ी जाये,शारीरिक बल प्रयोग न किया जाये और न ही सशस्त्र आन्दोलन किया जाये।सशस्त्र संघर्ष को गॉंधी जी हिंसा मानते थे।बडी दुविधापूर्ण स्थिति है कि क्या अन्यायी,अत्याचारी,शोषकों के विरूद्ध सशस्त्र युद्ध न्याय संगत नहीं है?मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्राी राम द्वारा लंकेश रावण से युद्ध व संहार क्या राम को हिंसक की श्रेणी में लाता है?क्या राम को लंका में उपवास करना चाहिए था?राम को क्या आमरण अनशन करना चाहिए था?भगवान श्राी कृष्ण ने तो पाण्ड़वों के हक के लिए उनका सारथी बनना तक स्वीकार कर महाभारत में अर्जुन का रथ चलाया।अपना चक्र धारण कर अपनी प्रतिज्ञा तोडी।अपने अत्याचारी मामा कंस,फुफेरे भाई दुष्ट शिशुपाल तक का वध कृष्ण ने किया।क्या ये श्रद्धेय जन हिंसक प्रवृत्ति के थे?क्या समाज के लिए जो बलिदान सशस्त्र संघर्ष करते हुए नौजवानों ने दिया,वे गलत राह पर थे?आज भी देश की सीमाओं पर युद्ध में शस्त्रों का ही प्रयोग होता है।और यही वास्तविकता भी है कि आत्म रक्षा हेतु सिर्फ आत्मिक बल व नैतिक बल ही नहीं,शारीरिक बल का प्रयोग भी न्याय संगत और सत्याग्रह का ही रूप है।अन्याय करने के लिए किया गया बल प्रयोग ही हिंसा कहलाना चाहिए।आत्म गौरव,सम्मान,हक,आजादी के लिए संघर्ष करने वाले तो वीर होते हैं।आजादी की लड़ाई लड़ने वाले सशस्त्र संग्राम के योद्धाओं ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए,सत्य की स्थापना के लिए,आत्मिक-नैतिक-शारीरिक बल का प्रयोग कर सत्याग्रह का वास्तविक रूप स्थापित किया है।विरोधी को कष्ट तो होता ही है चाहे शारीरिक बल का प्रयोग हो या न हो।अन्याय व शोषण के खिलाफ लड़ने वाले हिंसक नहीं कहे जा सकते,वे तो वीरोचित धर्म का पालन करने वाले,अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले अपनी महान बलिदानी परम्परा के पालनकर्ता मात्र व सच्चे जन सेवक होते हैं।ये कायर नहीं होते,निश्चित रूप से एैसे वीर जन सत्य-अहिंसा-सत्याग्रह के सही मायनों में सच्चे अनुयायी होते हैं।

तिरंगा कार्यक्रम

तिरंगा कार्यक्रम में भाग न लेने वालों को जिम्मेदार पदों से हटाये भाजपा
अरविन्द विद्रोही
भारतीय जनता पार्टी की युवा शाखा भारतीय जनता युवा मोर्चा के द्वारा लाल चौक में गणतंत्र दिवस के पावन पर्व पर देश के सम्मान के प्रतीक राष्टीय ध्वज तिरंगे को फहराने के कार्यक्रम ने पूरे देश के देशभक्त आम जन को उद्वेलित कर दिया है।यह शर्म और दुर्भाग्य की बात है कि आज आजाद भारत में भी सरकारें ब्रितानिया हुकूमत की तर्ज पर तिरंगे को फहराने पर पाबन्दी लगा रही हैं।भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को लाल चौक जाने से रोकना,उनको हिरासत में लेना अलगाववादियों के आगे सरकारों का समर्पण ही है।अपने ही देश में अपना ध्वज फहराये जाने से जिस व्यक्ति,समुदाय या संगठन को आपत्ति हो उसको देशद्रोही के अतिरिक्त क्या समझा जाये?भारतीय गणराज्य के किसी भी हिस्से में तिरंगे को फहराने पर आपत्ति करने वालों को क्या अंग्रेजों की संतान कहना उचित नही है?
अभी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जन्म दिन पर पूरे भारत में नेताजी के चित्र,प्रतिमा पर माल्यार्पण किया गया।गोष्ठियों,सभाओं का आयोजन विभिन्न राजनैतिक-सामाजिक संगठनों द्वारा किया गया।एक जाति विशेष के संगठन ने देश के गौरव,सशस्त्र क्रान्ति के सेनापति,आजाद हिन्द फौज के नायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को जातीय सीमा में बांधने का निन्दनीय किन्तु नाकामयाब प्रयास किया।दरअसल अपनी राजनीति चमकाने के फेर में लगे कई तथाकथित नेताओं को जनससमयाओं से तो कोई वास्ता रहता नहीं है,लेकिन अपने प्रभाव में वृद्धि व जनप्रतिनिधि बनने के फिराक में इस प्रवृत्ति के लोग देश के महापुरूषों को जातीय परिधि में बांधने का घृणित कार्य करते रहते हैं।आजादी के इन मतवालों ने न तो सिर्फ अपनी जाति की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी थी और न ही अपनी जाति के लोगों का संगठन खड़ा किया था।आजाद हिन्द फौज के संस्थापक सशस्त्र क्रान्ति के संयोजक रास बिहारी बोस ने करतार सिंह सराभा के साथ मिल प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत में गदर की योजना को क्रियान्वित किया था।ब्रितानिया हुकूमत की गुलामी से मुक्ति की लड़ाई लड रहे इन मतवालों ने कभी भी जातीय आधार पर संगठन नही तैयार किया।इसके भी पूर्व 1857 में भी गदर के दौरान कही भी जाति विशेष की लड़ाई की अवधारणा क्रान्तिकारियों में नहीं थी।एक जुनून था अपने वतन की आजादी के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने व आतताई अंग्रेजों के प्राणों को हर लेने का।एक देश एक संकल्प की भावना को आत्मसात् किये मॉं भारती के सपूत क्रान्ति की ज्वाला में जलते हुए अपने देश की आम जनता को ब्रितानिया हुकूमत के अत्याचार से निजात दिलाने के लिए क्रान्ति पथ पर मर मिटने का कोई भी अवसर हाथ से जाने नही देते थे।राजगुरू तो इसी बात से क्रान्तिकारी संगठन से नाराज हो गये थे कि असेम्बली में बम फेंकने के लिए उनको अवसर नहीं मिला।
बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण हालात आज भारत में उत्पन्न हो चुके हैं।आजाद भारत में देश के सम्मान के प्रतीक घ्वज को अपनी ही सरजमीं पर फहराने से रोकने से ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है।इसी तिरंगे को हाथ में लेकर वन्देमातरम् व भारत माता की जय बोलते हुए मॉं भारती के सपूतों ने छाती पर ब्रितानिया हुकूमत की गोली खाई थी लेकिन तिरंगे को अपने बलिदान व समर्पण से लाल किले पर फहराने का अवसर दिलाने वाले अमर बलिदानियों की आत्मा भारत सरकार के रवैये पर दुःखी ही होती होगी।इस देशभक्ति-पूर्ण कार्यक्रम को सिर्फ इस कारण से नकारना कि यह कार्यक्रम भारतीय जनता युवा मोर्चा ने तैयार किया,लाल चौक में तिरंगा फहराने से अशांति फैलेगाी,एक नाकाम सरकार का अलगाववादियों के सम्मुख समर्पण ही है।केन्द्र सरकार को और जम्मू-कश्मीर सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि लाल चौक पर तिरंगा कब और कौन फहरायेगा?सरकारों को यह भी जवाब देना होगा कि क्या अपनी ही सरजमीं पर तिरंगा फहराने से रोकना किस श्रेणी का अपराध है?
लाल चौक पर तिरंगा फहराने के कार्यक्रम को तैयार करके युवा मोर्चा ने एक साहसिक कार्य किया है।भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व को अब अपने संगठन को इस कार्यक्रम में सहभागिता की कसौटी पर कसना चाहिए।इस तिरंगा यात्रा में अपनी सहभागिता न करने वाले नेताओं को संगठन में जिम्मदार पदों से हटा कर उर्जावान व सांगठनिक कार्यों में सहभागिता करने वाले कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी सौंपने से कार्यकर्ता और उत्साहित होंगे।