Wednesday, November 17, 2010

बाघा यतीन्द्र नाथ मुखर्जी

बाघा यतीन्द्र नाथ मुखर्जी

8दिसम्बर,1879को काया ग्राम,जनपद नदिया-कुष्टिया,पश्चिम बंगााल में एक प्रतिभाशाली विद्वान श्री उमेश चन्द्र मुखर्जी के एवं उच्च कोटि की कवियत्री मांॅ शरत शशि देवी के पुत्र रत्न रूप में यतीन्द्र नाथ मुखर्जी का जन्म हुआ।मात्र 5वर्ष की उम्र में पिता का साया यतीन्द्र के सिर से उठ गया।1899 में फैले प्लेग की बीमारी के दौरान मरीजों की सेवा करते हुए यतीन्द्र की समाज सेवी माॅं शरत शशि देवी की रोग ग्रस्त हो जाने के कारण मृत्यु हो गयी।माॅं की मृत्यु के पश्चात् यतीन्द्र को अपनी बडी बहन श्रीमती विनोद बाला का ममत्व भरा संरक्षण मिला।बहन की देख-रेख में यतीन्द्र ने इण्टर-मीडियट तक की शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् शार्ट हैण्ड और टाइपिंग सीखी।यतीन्द्र ने जीविकोपार्जन हेतु बंगाल सचिवालय में स्टेनोग्राफर के पद पर नौकरी की।सचिवालय के गुलामी भरे वातावरण में यतीन्द्र के ह्दय में कोने में दबा हुआ क्रंातिकारी जाग गया।यतीन्द्र का एक बार रेल यात्रा के दौरान फौज के अंग्रेज सिपाहियों से झगड़ा हो गया।उन चार फौजियों को यतीन्द्र ने अकेले ही पीट डाला।उन्होंने यतीन्द्र के खिलाफ शिकायत दर्ज करायी तथा अभियोग भी चला,परन्तु यह मुकद्मा ही वापस लेना क्योंकि अदालत को यह विश्वास दिलाना उनके लिए असंभव हो गया कि एक व्यक्ति ने अकेले ही चार फौजियों को पीटा।लेकिन इस घटना के कारण यतीन्द्र नौकरी से निकाल दिये गये।माॅं समान बडी बहन विनोद बाला ने गृहस्थी का बोझ डालते हुए यतीन्द्र का विवाह अप्रैल,1900 में इन्दुबाला नामक युवती से करा दिया।यतीन्द्र को तीन संताने क्रमशःतेजेन,वीरेन और आशालता की प्राप्ति हुई।

यतीन्द्र गृहस्थ होकर भी गृहस्थ जीवन में लिप्त न हो पाये।हरिद्वार के प्रसिद्ध सन्त भोलानाथ गिरि के परम् शिष्य यतीन्द्र ने अपने विद्वान व देशभक्त गुरू भोलानाथ गिरि की प्रेरणा से गीता का पाठ कर गीता-प्रेमी बन गये।आत्मा की अमरता का सिद्धान्त गीता से आत्मसात् करके यतीन्द्र अब देश के प्रति कत्र्तव्य पथ के पथिक बन गये।पारिवारिक जीविका व क्रांतिकारी संगठन चलाने हेतु यतीन्द्र ठेकेदारी करने लगे।ठेकेदारी के काम में यतीप्द्र को भरपूर लाभ होने लगा।यतीन्द्र ने अपने साथ उत्साही एवं आस्थावान नवयुवकों को जोड़ना प्रारम्भ कर दिया।प्रत्येक नवयुवक का ख्याल रखते थे-यतीन्द्र एवं यदि किसी को आर्थिक मदद की जरूरत पडती तो आर्थिक मदद भी करते थे।उम्र एवं अनुभव में बडे होने के कारण ये सभी नवयुवक यतीन्द्र को जतीन दा कहते थे।चारूचन्द्र बोस,वीरेन्द्रनाथ दत्त,चित्तप्रिय रे ,भोलानाथ चटर्जी,मनोरंजन सेन गुप्त,वीरेन्द्र नाथ दास गुप्त,ज्योतिष चन्द्र पाल आदि नवयुवक अपने जतीन दा के इशारे पर किसी की भी जान ले सकते थे तथा उनके लिए कभी भी जन दे भी सकते थे।यतीन्द्र कोमलता,मानवता,देशप्रेम और क्रांति की प्रतिमूर्ति थे।सुन्दर और बलशाली यतीन्द्र ने 26वर्ष की उम्र में एक शाही बाघ से लड कर और उसको मारकर बाघा की उपाधि प्राप्त की थी।तभी से यतीन्द्र बाघा जतीन के नाम से प्रसिद्ध हुए थे।जतीन के व्यक्तित्व से रवीन्द्र नाथ टैगोर,योगी श्री अरविन्द घोष,स्वामी विवेकानन्द,श्राी जगदीश चन्द्र बसु,बहन निवेदिता आदि महान विभूतियां जतीन से बहुत प्रभावित थी।जतीन के शौर्य,देशभक्ति से अंग्रेज भयाक्रांत हो गये थे।

बाघा जतीन ने अपने साथियों के साथ मिल कर बंगाल में दर्जनों राजनैतिक डकैतियां डाली।अंग्रेजों के संस्थानों में दिन-दहाडे़ डकैतियां डाली गईं तथा अनेकों कत्ल किये गये।अंग्रेज बाघा जतीन से बहुत भयभीत होकर शहर बहुत कम निकलते थे।क्रांतिकारी मौत बनकर अंग्रेजों के मनो-मस्तिष्क में छा गये थे।बाघा जतीन को पुलिस ने हावडा षड़यंत्र केस में सन्1910-11 में दो बार हिरासत में लिए गये,किन्तु कुछ माह कारागार में रहने के पश्चात् सबूतों के अभाव में यतीन्द्र रिहा हो गये।बलिया घाट तथा गार्डन रीच की डकैतियां भी बाघा जतीन के द्वारा की गई थी।जेल से रिहा होने के बाद अनुशीलन समिति के सक्रिय सदस्य बने बाघा जतीन ने युगान्तर का भी कार्य संभाला।बाघा जतीन ने एक लेख में लिखाः-पॅंूजीवाद समाप्त कर श्रेणी हीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है।देशी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्म-निर्णय द्वारा जीवन यापन का अवसर देना हमारी मांग है।अदालत से बरी बाघा जतीन पर पुलिस की पैनी नजर थी।2फरवरी,1915 को एक मकान में जतीन व साथी बैठ कर कोई योजना बना रहे थे,तभी वहां सी0आई0डी0 पुलिस इंस्पेक्टर निरोध हलधर आ धमका।मजबूरन हलधर को मौत के घाट उतार कर इन क्रांतिकारियों को मकान छोड़कर फरार होना पडा।

सन्1914 में विश्व युद्ध छिडने पर गदर पार्टी ने भारत में आजादी का जंग छेडने की योजना बनाई थी।इस योजना के सूत्रधार रासबिहारी बोस,करतार सिंह सराभा,शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि की तमाम कोशिशों के बावजूद प्रयास विफल रहा था।लेकिन इसके बावजूद भारत में बाघा जतीन अपने साथियों के साथ क्रांति की अलख जगाने में जुटे रहे।सितम्बर,1915 में मेवरिक नामक जर्मन जहाज को कैप्टीपोदा,बालासोर-उड़ीसा युद्ध की सामग्री लेकर पहुॅंचना था।इस जहाज से हथियार उतारने की जिम्मेदारी बाघा जतीन की थी।अपने साथियों के साथ बाघा जतीन मार्च,1915 में ही बालासोर आ गये।जतीन साधु तथा मनोरंजन और चित्तप्रिय उनके शिष्य बनकर मालदीव मौजा में रहने लगे।आश्रम से कुछ ही दूरी पर तालडीह गाॅंव में नीरेन्द्रनाथ दास गुप्त और ज्योतिष चन्द्र पाल खेती-बाड़ी करने वाले किसान बनकर रहने लगे।यूनिवर्सल इम्पोरियम नामक साईकिल व घड़ी की दुकान बालासोर में खोलकर अन्य साथी गण वहां जम गये।बालासोर एक एकांत व शान्त क्षेत्र था।जतीन व साथियों के आ जाने के कारण स्थानीय लोगों में उत्सुकता बढ़ी।इन लोगों के पास नये-नये चेहरे बालासोर आते थे।स्थानीय लोगों ने बालासोर पुलिस को सूचना दे दी।बालासोर की पुलिस को भी इन बंगाली नवयुवकों पर शक हो गया।बालासोर पुलिस ने इस बात की खबर कलकत्ता पुलिस को कर दी कि बालासोर में कुछ अपरिचित बंगााली युवक आकर रह रहे हैं।कलकत्ता की पुलिस निरोध हलधर की हत्या के बाद से जतीन व उनके साथियों की तलाश में थी,एक सूत्र उसके हाथ लग गया।

कलकत्ता के कई उच्च पुलिस अधिकारियों का एक दल बालासोर आ धमका,स्थानीय पुलिस को साथ लेकर इन लोगों 5सितम्बर,1915 को यूनिवर्सल इम्पोरियम की तलाशी लेकर दो लोगों को हिरासत में ले लिया।वहां एक कागज मिला जिस पर कैप्टीपौदा गाॅंव का नाम लिखा था।6सितम्बर की शाम को ही पुलिस बल हाथियों पर सवार होकर कैप्टीपौदा गाॅंव आ पहुॅंचा।गाॅंव में हलचल मच गई।एक भक्त ने जतीन को पुलिस आगमन की सूचना दी।रातों-रात जतीन ने आश्रम खाली कर दिया और जतीन,मनोरंजन और चित्तप्रिय मालदीव गाॅंव आ गये।यहाॅं पर भी सारा सामान नष्ट करके पांचों साथी बालासोर रेलवे स्टेशन के लिए निकल पड़े।8सितम्बर,1915 को जब पुलिस ने मालदीव वाले घर की भी तलाशी ली और कुछ न मिला तब पुलिस को पक्का यकीन हो गया कि साधु कोई और नहीं यतीन्द्र नाथ मुखर्जी ही हैं और चेले उसके क्रांतिकारी साथी।पुलिस ने सारे इलाके की नाके बन्दी कर ली।पुलिस ने खबर फैला दी कि कुछ बंगाली डाकू बालासोर क्षेत्र में घुस आयें हैं,जो कोई उनको पकड़वाने में मदद करेगा उसको उचित ईनाम दिया जायेगा।

बाघा जतीन और उसने साथियों के पीछे बालासोर रेलवे स्टेशन जाते समय कुछ ग्रामीण लग गये।ईनाम के लालच में इन ग्रामीणों ने इन देशभक्त क्रांतिकारियों को पकड़ना चाहा जिससे विवश होकर इन लोगों को गोली चलानी पड़ी फलतःएक ग्रामीण मौके पर ही मारा गया।कुछ ग्रामीणों ने भागकर बालासोर पुलिस को सूचना दे दी,तैयार बैठी पुलिस ग्रामीणों के साथ मौके पर आ गई।बुरी तरह से थके हुए पांचों क्रांतिकारी धान के एक खेत में विश्राम कर रहे थे तभी बालासोर के जिला मजिस्टेट किल्वी ने पुलिस बल के साथ ग्रामीणों की मुखबिरी व निशानदेही के आधार पर उसी धान के खेत को चारों तरफ से घेर कर गोलियां बरसाना चालू कर दिया।क्रांतिकारियों ने 20मिनट तक डटकर मुकाबला किया।चित्तप्रिय मौके पर शहीद हो गये।जतीन बुरी तीह घायल हो गये।ज्योतिष पाल भी घायल हो गये।क्रंातिकारियों के पास गोलियां खत्म हो जाने के कारण बाघा जतीन ने लड़ाई बन्द करने का संकेत दिया।पुलिस ने सभी को हिरासत में ले लिया।जतीन और पाल को कटक-उड़ीसा के अस्पताल,चित्तप्रिय के शव को मुर्दाघर तथा नीरेन्द्र व मनोरंजन को बालासोर की हवालात में पहुॅंचाया गया।दूसरे ही दिन 10सितम्बर,1915 को प्रातः5बजे यतीन्द्र नाथ मुखर्जी चिर निद्रा में लीन हो गये।कुछ समय बाद ज्योतिष चन्द्र पाल स्वस्थ हो गये।इन बचे तीनों लोगों पर बगावत का मुकदमा चलाकर,नीरेन्द्र और मनोरंजन को 22नवम्बर,1915 को प्रातः6बजे बालासोर की जेल में फांसी पर लटका दिया गया तथा ज्योतिष चन्द्र पाल को 14वर्ष की काले पानी की सजा सुनाकर अण्डमान भेज दिया गया।

इस प्रकार बाघा जतीन के साथ एक क्रांति युग का समापन हो गया।

अहिंसा-सत्याग्रह के राही थे क्रान्तिकारी

अहिंसा-सत्याग्रह के राही थे क्रान्तिकारी

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी आज हमारे बीच सशरीर नहीं हैं। महात्मा गाँधी के आदर्श, सोच हमारे लिए मार्गदर्शक बनकर विद्यमान हैं। ‘‘अहिंसा परमों धर्मः‘‘ के मूर्त रूप में अपने जीवन में उतार चुके महात्मा गाँधी के अनुयायियों की लम्बी फेहरिस्त है। यहाँ चर्चा महात्मा गाँधी के उन दो अनुयायियों की कर रहा हूँ जो ‘‘सत्याग्रह‘‘ और ‘‘अहिंसा‘‘ को अपने जीवन में अंगीकार कर क्रान्ति मार्ग के सेनानी ही नहीं वरन् अमिट हस्ताक्षर बने। यह चन्द्रशेखर आजाद ही थे जिन्होंने मात्र 14वर्ष की उम्र में महात्मा गाँधी के द्वारा प्रेरित असहयोग आन्दोलन में शिरकत की। यह वह समय था, जब सम्पूर्ण भारत में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जा रहा था और उनकी होली जलाई जा रही थी। इसी दौरान ब्रिटेन के युवराज ड्यूक ऑफ विण्डसर का भारत आगमन हुआ, युवराज की यात्रा का पूरे भारत में जबरदस्त विरोध हुआ। सर्वत्र हड़ताल की गई। महात्मा गाँधी को 6माह का कारावास हुआ। चन्द्रशेखर आजाद ने बनारस के सरकारी विद्यालय पर धरना दिया। पकड़े जाने पर न्यायाधीश खारेघाट के सवालों के जवाब में- नामःआजाद, पिताःस्वतन्त्र, निवासःजेलखाना देने पर आजाद को पन्द्रह कोड़ों की सजा मिली।आजादी का दीवाना यह वीर बालक सेनानी, महात्मा गाँधी का अनुयायी वन्देमातरम और महात्मा गाँधी की जय बोलते-बोलते कोड़ों को सहते-सहते मातृभूमि की गोद में मूर्छित हो कर गिर पड़ा था।कालान्तर में चौरी चौरा काण्ड़ के पश्चात् शचीन्द्रनाथ सान्याल के दल ‘‘हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन‘‘ से आजाद जुड़ गये। सत्याग्रह और अहिंसा का यह सिपाही भारत की जंग-ए-आजादी में क्रान्ति का संगठक बना। इतिहास साक्षी है कि आजाद तो पैदा ही भारत की आजादी की लड़ाई में सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए हुए थे। अब बात करते हैं- नेताजी सुभाष चन्द्र बोस कीं। सशस्त्र क्रान्ति के सेनानायक सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के जो सूत्र महान क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस से पकड़े व फौज का पुर्नगठन कर आजादी का संघर्ष छेड़ा, वह अविस्मरणीय है। आजाद हिन्द फौज के इस महानायक के दिल में महात्मा गाँधी के प्रति, उनके विचारों के प्रति अपार श्रद्धा व विश्वास था। नेताजी ने ही सर्वप्रथम रंगून रेडियो से महात्मा गाँधी को राष्टपिता कहकर सम्बोधित किया था। सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था कि एक बार भारत स्वतन्त्र हो जाये, तो इसे मैं गाँधी जी को सौप दूंगा और कहूँगा कि अब इसे आपकी अहिंसा की सबसे ज्यादा जरूरत है।‘‘

ध्यान देने की बात यह है कि क्या वजह रही कि गाँधी को मानने वालों ने, सत्याग्रह और अहिंसा का पालन करने वालों ने सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग अपनाया। क्या ये सशस्त्र क्रान्ति के सेनानी सत्याग्रही नहीं रहे, क्या इन क्रान्ति के वाहकों ने अहिंसा का मार्ग त्याग दिया और ये हिंसक हो गये थे? सत्याग्रह और अहिंसा को स्पष्ट करते हुए भगवती चरण वोहरा ने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन की ओर से ‘‘बम का दर्शन‘‘ लेख लिखा, जिसका शीर्षक ‘‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन का घोषणा-पत्र‘‘ रखा गया। क्रान्तिकारियों के बौद्धिक नेता सरदार भगत सिंह ने जेल में इसे अंतिम रूप दिया। 26जनवरी,1930 को यह पर्चा पूरे देश में वितरित किया गया। इसमें लिखा गया कि- ‘‘पहले हम हिंसा और अहिंसा के प्रश्न पर ही विचार करें। हमारे विचार से इन शब्दों का प्रयोग ही गलत किया गया है, और ऐसा करना ही दोनों दलों के साथ अन्याय करना है, क्योंकि इन शब्दों से दोनों ही दलों के सिद्धान्तों का स्पष्ट बोध नहीं हो पाता। हिंसा का अर्थ है- अन्याय करने के लिए किया गया बल प्रयोग, परन्तु क्रान्तिकारियों का तो यह उद्देश्य नहीं है। दूसरी ओर अहिंसा का जो आम अर्थ समझा जाता है, वह है आत्मिक शक्ति का सिद्धान्त। उसका उपयोग व्यक्तिगत तथा राष्टीय अधिकारों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। अपने आप को कष्ट देकर आशा की जाती है कि इस प्रकार अन्त में अपने विरोधी का ह्दय-परिवर्तन सम्भव हो सकेगा। आगे लिखा कि,- ‘‘एक क्रान्तिकारी जब कुछ बातों को अपना अधिकार मान लेता है तो वह उनकी मांग करता है, अपनी उस मांग के पक्ष में दलीलें देता है, समस्त आत्मिक शक्ति के द्वारा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करता है, उसकी प्राप्ति के लिए अत्यधिक कष्ट सहन करता है, इसके लिए वह बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहता है और उसके समर्थन में वह अपना समस्त शारीरिक बल भी प्रयोग करता है। इसके इन प्रयत्नों को आप चाहे जिस नाम से पुकारें, परन्तु आप इन्हें हिंसा के नाम से सम्बोधित नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करना कोष में दिये इस शब्द के साथ अन्याय होगा। ‘‘सत्याग्रह के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा गया कि,- ‘‘सत्याग्रह का अर्थ है सत्य के लिए आग्रह। उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति के प्रयोग का ही आग्रह क्यो।? इसके साथ-साथ शारीरिक बल-प्रयोग भी क्यों न किया जाये? क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक एवं नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास करता है, परन्तु नैतिक शक्ति का प्रयोग करने वाले शारीरिक बल प्रयोग को निषिद्ध मानते हैं। इसलिए अब सवाल यह नहीं है कि आप हिंसा चाहते हैं या अहिंसा, बल्कि प्रश्न तो यह है कि आप अपनी उद्देश्य प्राप्ति के लिए शारीरिक बल सहित नैतिक बल का प्रयोग करना चाहते हैं, या केवल आत्मिक शक्ति का? ‘‘इस प्रकार हम पाते है कि क्रान्तिकारी सत्याग्रही तो थे ही, क्योंकि उनका उद्देश्य ब्रितानिया हुकूमत से भारत की आजादी था, साथ ही साथ वे अहिंसा के भी पुजारी थे। वे हिंसक कदापि नहीं थे, वे तो अत्याचारियों के सर्वनाश करने की राम-कृष्ण-शिव की परम्परा के पालनकर्ता मात्र थे।

जब-जब महात्मा गाँधी के बताये रास्तों, अनुनय विनय, भूख हड़ताल, सत्याग्रह, धरना आदि से भारत के नागरिकों की बात नहीं सुनी गई तब-तब इन्हीं गाँधी को मानने वाले सत्याग्रहियों ने क्रान्तिकारियों का सशस्त्र मार्ग अपनाया है। राम द्वारा तीन दिनों तक निवेदन के पश्चात् भी समुद्र द्वारा रास्ता न दिये जाने पर जब राम ने प्रत्यंचा चढ़ाई तो समुद्र ने तत्काल उपस्थित होकर समुद्र पर पुल निर्माण का रास्ता बताया। क्रान्तिकारी तो सिर्फ अपने पूर्वजों के उच्च आदर्शों का अनुसरण करते हैं।कृष्ण ने अपने अत्याचारी मामा का वध किया, हक की लड़ाई लड़ रहे पांड़वों के सारथी बने। इस प्रकार क्रान्तिकारियों ने न तो सत्याग्रह छोड़ा था और न ही अहिंसा का मार्ग। हाँ, वीरोचित धर्म का वरण कर कायरता का त्याग कर अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए, अपने हक के लिए प्राण लेने व देने में कोई संकोच नहीं किया।

भारत माँ का लाल भगत सिंह

भारत माँ का लाल भगत सिंह

भगतसिंह का जन्म 27-28सितम्बर,1907 को बंगा गांव,लायलपुर जिला में हुआ।पिता सरदार किशनसिंह और चाचा अजीत सिंह स्वतंत्रता आन्दोलन में जेल में बन्द थे।भगतसिंह के जन्म के ही बाद ये लोग जेल से रिहा हुए थे।गुलामी से नफरत और देशभक्ति इनके खून में समाई थी।विरासत में मिली थी गुलामी से लड़ने की हिम्मत।शिक्षा देशभक्तों के केन्द्र नेशनल कालेज-लाहौर में ग्रहण की।सुखदेव,यशपाल,भगवतीचरण वोहरा इनके कालेज के मित्र थे।भगतसिंह पढ़ने लिखने में ज्यादा ध्यान देते थे।विक्टर ह्यूगो,हाॅल केन,टाॅल्सटाॅय,गोर्की,बर्नोर्ड शाॅ,डिकेन्स आदि उनके पसंदीदा लेखक थे।भगतसिंह ने कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के पत्र प्रताप में काम किया था।कानपुर में ही इनकी मुलाकात चन्द्रशेखर आजाद,बटुकेश्वर दत्त,शिव वर्मा,जयदेव कपूर,कुन्दनलाल आदि क्रांतिकारियों से हुई।भगतसिंह और सुखदेव रूसी अराजकतावादी बाकुनिन से प्रभावित थे।भगतसिंह को अराजकता से समाजवाद की ओर लाने का श्रेय कामरेड सोहन सिंह जोश और लाला छबील दास को है।

क्रांतिकारियों के बौद्धिक नेता के रूप में भगतसिंह स्थापित हो चुके थे।असेम्बली बम काण्ड़ में सुखदेव ने इसी कारण से भगतसिंह को बम फोडने जाने के लिए केन्द्रीय समिति का निर्णय बदलवाने पर जोर दिया था।सन 1926 में भगतसिंह,भगवती चरण वोहरा और यशपाल ने लाहौर नैजवान भारत सभा की स्थापना की।भगतसिंह इसके प्रथम महामंत्री व भगवती चरण वोहरा प्रथम प्रचार मंत्री चुने गये।सुखदेव,धन्वंतरी,यशपाल और एहसान इलाही प्रमुख सक्रिय सदस्य नियुक्त किये गये।सभा का उद्देश्य क्रान्तिकारी आन्दोलन के तन्त्र को पुनःजीवित करना था और कार्य था-क्रान्ति के विचारों और उद्देश्यों का प्रचार करने के लिए आम सभायें करना,बयान देना,इश्तहार बांटना आदि।शोषण,गरीबी,विषमता जैसी विश्वव्यापी समस्याओं से निपटने के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता चाहिए।क्रान्तिकारियों का विचार था कि आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना पूर्ण स्वतंत्रता सम्भव नही है।स्वतंत्रता के बाद के शासन की रूपरेखा पर भी क्रांतिकारी विचार-विमर्श करते थे।हुतात्माओं के चित्रों की प्रदर्शनी लगाकर,उनके बारे में जानकारी दी जाती थी।जनता के सामने क्रातिकारी अपना इतिहास बताते थे।सशस्त्र क्रांति के गुप्त संगठन के लिए कार्यक्षेत्र तैयार करना और लोगों में साम्राज्यवाद के विरोध में राष्टीयता की प्रबल भावना को जागृत करना-यही उद्देश्य था भगतसिेह का।

भगतसिंह श्रेष्ठ प्रचारक थे।कुशल वक्ता तो वे थे ही,लेखनी और विचारों में पैनापन और पकड़ भी थी।हिन्दी,उर्दू,अंग्रेजी व पंजाबी भाषाओं पर उनका अधिकार था।अमृतसर से निकलने वाले उर्दू अखबारों में वे नियमित लेख लिखते थे।छद्म नामों से उन्होंने कीर्ति में लिखा।हिन्दी प्रताप,प्रभा,महारथी,चांद में भगतसिंह ने लिखा।क्रान्तिकारियों के विषय में अध्ययन करने से मन अशान्त हो जाता है।कैसे थे ये मतवाले?आजाद भारत में लोग जीवन जीने के लिए रोज मर रहें हैं और ये मतवाले आने वाली नस्लों को जीवित करने के उद्देश्य से हॅंसते-हॅंसते मर गये।फिर भी आज आजाद भारत में बेकारी,बेरोजगारी,शोषण,विषमता,भुखमरी,भ्रष्टाचार,कुशासन,अपने चरम पर है।क्या क्रान्तिकारियों का आजाद भारत बन गया है ?देश की आजादी की लड़ाई लडते हुए भगतसिंह अपने साथियों राजगुरू व सुखदेव के साथ 23मार्च,1931 को फांसी पर चढ़ गये।रह गये शेष भगतसिंह और उनके साथियों के सपने,आदर्श,उनके सोच को परिलक्षित करते लेख व देश-समाज के लिए मर मिटने की प्रेरणा।

भगतसिंह के सखा-समर्पण की प्रतिमूर्ति सुखदेव

भगतसिंह के सखा-समर्पण की प्रतिमूर्ति सुखदेव

स्वभावगत जिद्दी,सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति,मासूम व्यक्तित्व,कुशल संगठनकर्ता,अपनत्व के धनी-एैसे थे सुखदेव।सुखदेव का जन्म 15मई,1907 को रामलाल थापर के पुत्र रूप में नौधरा,लुधियाना में हुआ था ।बचपन में ही पिता का साया सिर से उठ गया।लालन पालन माता रल्लीदेई और ताउ चिंताराम थापर जो कि देशभक्त थे तथा जेल की सजा भुगत चुके थे,ने किया ।

क्रांतिकारी दल के नायक चंद्रशेखर आजाद के बाद दल के समस्त साथियों की आवश्यकताओं की तरफ अगर कोई ध्यान देता था तो वह दल में ‘विलेजर‘ नाम प्राप्त सुखदेव ही थे ।सुखदेव जिद्दी थे ।सुखदेव ने कभी अपने साथियों से कोई स्पर्धा नहीं रखी,कोई शिकायत नहीं की और न ही कोई स्पष्टीकरण दिया ।एक तरफ राजगुरू भगतसिंह को शौके शहादत में अपना रकीब मानते थे तो सुखदेव के मन में भगतसिंह के प्रति सबसे ज्यादा प्रेम और अपनापन था ।जब भी सुखदेव और भगतसिंह की मुलाकात होती,तो क्रांति दल के साथियों को भूलकर ये दोनों रात-रात भर बाते करते रहते थे ।भगतसिंह और सुखदेव समाजवाद के पक्के समर्थक थे ।भगतसिंह की स्मरण शक्ति तीव्र व विलक्षण थी ।किसी भी पुस्तक को जल्दी खत्म करने की जैसे उन्हें सनक सवार रहती थी ।

ध्यान दीजिए,यह सुखदेव ही हैं जिनके मित्र के और आदर्शों के प्रति हठ ने क्रांतिकारी आदर्शों के प्रचार के लिए,न्यायालय का बेहतर इस्तेमाल करने के लिए,अपने भगतसिंह की नाराजगी झेलकर,उसे भलाबुरा कहकर असेम्बली बम काण्ड का दायित्व केन्द्रीय समिति से सौंपवाया ।दुर्गा भाभी गवाह थीं कि इस निर्णय को करवाने के पश्चात् सुखदेव की आंखें रोने के कारण सूजी हुईं थी ।सुखदेव ने केन्द्रीय समिति से पहले कहा था कि असेम्बली में बम फोड़ने का काम भगतसिंह को करना चाहिए ।इसका कारण बम फोड़ने का उद्देश्य,दल के आदर्श,महत्व व उद्देश्यों को जनता के सामने लाना था और इस काम के लिए भगतसिेह ही सबसे सक्षम व योग्य थे ।जब भगतसिंह केन्द्रीय समिति के सदस्यों को इस विषय में राजी न कर सके,तब सुखदेव ने भगतसिंह को ललकारा-‘‘जब तुम्हे मालूम है कि दूसरा कोई भी व्यक्ति दल के उद्देश्यों की जवाबदारी पूर्ण करने में तुमसे समर्थ नहीं है,तब तुमने केन्द्रीय समिति के सदस्यों को यह निर्णय करने क्यों दिया कि तुम्हारी जगह कोई और असेम्बली में बम डालने जायेगा ।‘‘ सुखदेव ने भगतसिंह को कायर,डरपोक,अहंकारी जाने क्या-कया कह डाला ।उन्होंने कहा-जिस प्रकार लाहौर हाईकोर्ट ने भाई परमानन्द के विरूद्ध निर्णय देते हुए कहा था कि वे दल के सूत्रभार व मस्तिष्क होते हुए भी डरपोक हैं,इसलिए संकट के समय दूसरों को आगे करते हैं ।इसी तरह की बातें तुम्हारे लिए भी कही जाएगी ।इस विषय में भगतसिंह ने सुखदेव को समझाने की असफल कोशिश की और सुखदेव के व्यंग्य बाणों का शिकार होते रहे ।भगतसिंह का मन मस्तिष्क जब सुखदेव के प्रहारों से घायल हो गया तब उन्होंने सुखदेव से कहा-तुम मेरा अपमान कर रहे हो ।चुप रहो मैं अपने मित्र के प्रति अपना कत्र्तव्य निभा रहा हूॅं-गरजे सुखदेव ।

आखिरकार केन्द्रीय समिति की दोबारा बैठक हुई ।बैठक में सुखदेव चुप रहे ।भगतसिंह ने तर्कपूर्ण आग्रह किया, फैसला हुआ-विजय कुमार सिन्हा के स्थान पर भगतसिंह के साथ बटुकेश्वरदत्त असेम्बली में बम फोड़ेंगें ।

बाद में सुखदेव सहित अन्य पर लाहौर षड़यंत्र का मुकद्मा चला ।सुखदेव का ध्यान बचाव में न था ।वे न्यायालय को ही क्रान्ति का प्रचार माध्यम मानते थे ।अंत में 7अतूबर,1930 को मुकदमें का निर्णय सुनाया गया ।सुखदेव इस षड़यंत्र के प्रमुख तथा भगतसिेह उनके दाहिने हाथ घोषित किये गये ।सुखदेव को क्रांतिकारियों के उद्देश्यों की सफलता पर कितना अडिग विश्वास था,इसका प्रमाण फाॅंसी से कुछ ही पहले महात्मा गाॅंधी के नाम लिखा उनका पत्र है जिसमें उन्होंने लिखा-‘‘क्रांतिकारियों का ध्येय इस देश में सोशलिस्ट प्रजातन्त्र प्रणाली स्थापित करना है।इस ध्येय में संशोधन की जरा भी गुंजाइश नहीं है।‘‘ वे गाॅंधी जी से प्रश्न पूछते हैं कि आपकी भी धारणा होगी कि क्रांतिकारी तर्कहीन होते हैं और उन्हें केवल विनाशकारी कार्यों में आनन्द आता है।सुखदेव आगे लिखते हैं-‘‘हम आपको बतला देना चाहते हैं कि यथार्थ में बात इसके बिल्कुल विपरीत है।वे प्रत्येक कदम आगे बढ़ाने के पहले अपने चारों तरफ की परिस्थितियों पर विचार कर लेते हैं।उन्हें अपनी जिम्मेदारी का ज्ञान हर समय बना रहता है।वे अपने क्रांतिकारी विधान में रचनात्मक अंश की उपयोगिता को मुख्य स्थान देते हैं यद्यपि मौजूदा परिस्थितियों में उन्हें केवल विनाशात्मक अंश की ओर ध्यान देना पड़ता है।वह दिन दूर नही जबकि क्रांतिकारियों के नेतृत्व में और उनके झण्डे के नीचे जन समुदाय उनके समाजवादी प्रजातंत्र के उच्च ध्येय की ओर बढ़ता हुआ दिखायी पड़ेगा ।महात्मा गाॅंधी को लिखे इस पत्र में सुखदेव ने लिखा,-‘‘फाॅंसी देने का हुक्म हुआ है और जिन्होंने संयोगवश देश में बहुत ख्याति प्राप्त कर ली है,क्रांतिकारी दल के सब कुछ नही हैं।वास्तव में इनकी सजाओं को बदल देने देश का उतना कल्याण न होगा,जितना इन्हें फाॅंसी पर चढ़ा देने से होगा ।‘‘

सुखदेव फूल की तरह कोमल परन्तु पाषाण से कठोर अपनी कोमल भावनाओं को,प्यार और ममता को निजी चीज समझ कर अपने अन्दर समेटे रहने वाले सुखदेव के व्यक्तित्व की सबसे खतरनाक चीज थी-उनकी मुस्कुराहट,जिसके पीछे शरारत के साथ साथ हर गलत चीज पर नफरत भरा व्यंग्य साफ साफ उभर आता था ।समाज की कुरीतियों,रूढ़ियों,राजनैतिक मतभेदों के प्रति गहरी उपेक्षा और विद्रोह का प्रतीक थी सुखदेव की मुस्कुराहट ।यहां तक कि बड़ी-बड़ी असफलताओं के आघात को भी वे अपनी मुस्कुराहट की उपेक्षा में डुबो देते थे ।यही र्निविकार भाव समेटे क्रांति का यह पुरोधा आजादी के सपने सजोये अपने हम सफरों भगतसिेह तथा राजगुरू के साथ फाॅंसी के तख्ते पर चढ़कर 23मार्च,1931 को क्रांति मार्ग आलोकित कर गया ।

राजगुरू पर विशेष

राजगुरू पर विशेष

आजादी की लड़ाई के हर मौके पर अपनी सहभागिता करने के लिए बेचैन रहने वाले,इस लड़ाई में जान देने व लेने का कोई अवसर हाथ से जाने न देने के लिए तत्पर,अवसर न मिलने पर नाराज हो जाने वाले मस्त स्वभाव के योद्धा का नाम शिवराम हरि राजगुरू है। शिवराम हरि राजगुरू का जन्म 24अगस्त,1908 को हरिनारायण राजगुरू के पुत्र रूप में खेड़ा गांव पूना में हुआ था।इनके बाबा चाकण कस्बा जो कि छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदवी स्वराज्य की राजधानी थी,के प्रसिद्ध विद्वान कचेश्वर पण्ड़ित थे।शिवाजी महाराज के प्रपौत्र श्री शाहू जी महाराज ने कचेश्वर पण्ड़ित को अपना गुरू बनाकर राजगुरू की उपाधि दी थी।
छह वर्ष की अल्पायु में पिता का देहान्त हो गया।बड़े भाई के पास शहर में रहने लगे।पढ़ने में बहुत मन नहीं लगता था।पन्द्रह वर्ष की उम्र 1924 में घर से निकल कर पैदल छह दिन चले और नासिक पहुंचे।नासिक से किसी तरह यात्रा करते झांसी,कानपुर,लखनउ और अंत में काशी पहुंचे।काशी में अहिल्या घाट पर रहने लगे।काशी क्रान्तिकारियों का मुख्य गढ़ था।यहां इनकी मुलाकात गोरखपुर के साप्ताहिक पत्र स्वदेश के सह संपादक मुनीश्वर अवस्थी से हुई।राजगुरू इनके सम्पर्क से ही क्रांति दल के विधिवत सदस्य बनें।
भगवानदास माहौर,सदाशिव राव मलकापुरकर और शिव वर्मा ने अपनी क्रान्ति जीवन के संस्मरण लिखे थे,जो सन् 1959 में प्रकाशित हुए थे।उसमें इन क्रान्तिकारियों ने राजगुरू के बारे में लिखा-जब जब क्रान्तिकारी वीर,देशभक्त,शहीदों और उनके शौके-शहादत की बात चलती है,तब-तब जो एक मूर्ति मेरे मन की आंखों के सबसे आगे और सबसे अधिक स्पष्ट रूप से आकर खड़ी हो जाती है,वह होती है राजगुरू कीं। सशस्त्र क्रान्ति के प्रयासों में जिन अगणित भारतीय युवकों ने अपना जीवन बलिदान किया है,उनमें से कुछ थोड़ों ही के निकट सम्पर्क में आने का महान सौभाग्य मुझे मिलता है।मृत्युंजयी अमर शहीद वीर जतीनदास,भगवती चरण,चन्द्रशेखर आजाद,भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरू,महावीर सिंह और शालिगराम शुक्ल उस दल के शहीद हुए हैं,जिसका सम्बन्ध लाहौर षड़यन्त्र केस से था और जिसका नाम था-हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी।श्री जतीनदास बंगाल के दल के व्यक्ति थे और वे हम लोगों को बम बनाना सिखने के लिए यू0पी0 में आये थे।भगत सिंह आदि के साथ वे लाहौर जेल में अनशन करके शहीद हुए,भगवती भाई रावी के तट पर एक बम की परीक्षा करते हुए बम हाथ में ही फट जाने की दुर्घटना से मारे गये।सेनानी चन्द्रशेखर आजाद ने इलाहाबाद के अल्फ्रेड़ पार्क में पुलिस से युद्ध करते हुए वीरगति पायी।भगतसिंह,राजगुरू,सुखदेव तीनों एक साथ लाहौर की जेल में फांसी चढ़े।महावीर सिंह ने अण्डमान्स अर्थात काला पानी के जेल में अनशन करते हुए शहादत पायी।शालिगराम शुक्ल कानपुर में पुलिस से युद्ध करते हुए शहीद हुए।ये सभी शहीद देश के स्वातन्त्रय युद्ध में अपने आपको बलिदान कर देना चाहते थे।शहादत से सभी को प्यार था और सभी को यह विश्वास था कि कभी न कभी,किसी न किसी रूप में वह उन्हे मिलेगी।ये शहादत के धीरोदात्त प्रेमी कहे जा सकते हैं।शहादत के लिए इतनी उतावली,बेताबी ये सब जाहिर न करते थे जितनी राजगुरू और सम्भवतःइसी कारण शहीदों के सम्बन्ध में शौके शहादत या इश्कें शहादत के एतबार से-अपने परिचय के शहीदों में-सबसे पहले और सबसे आगे शहादत के बेताब आशिक राजगुरू की मूर्ति ही मेरी नज़र के सामने खड़ी हो जाती है।
वे आगे लिखते हैं-हम कह चुके हैं कि राजगुरू शहादत के बेताब आशिक थे और इस इश्क में आपके रकीब थे भगतसिेह।इस अधीरता,व्यग्रता और बेताबी की तो हम कल्पना ही कर सकते हैं,जिसमें फांसी के दिन वे इसके लिए ही चिन्तित होंगे कि कहीं ऐसा न हो कि मेरे से पहले भगतसिंह को फांसी लग जाये।हम भली-भांति कल्पना कर सकते हैं कि पहले फांसी का फन्दा उनके गले में डाला जाये,भगतसिंह के नहीं,इसके लिए वे जेलर या जल्लाद से उलझ पड़े होंगे।हम कल्पना कर सकते हैं कि गर्व से सीना फुला कर,आतमसंतुष्टि की लम्बी सांस लेकर वे फांसी के तख्ते पर खडें हुए होंगे और किस प्रकार राजगुरू ने उनके गहरे वात्सल्य से पुलकित होकर अपने अन्तिम क्षणों में अपने इस छोटे भाई को देखा होगा।राजगुरू के शौके शहादत से अधिक भावुक ह्दय अन्य किस का था,और उसे देखने का सौभाग्य भी उनसे अधिक और किसे मिला था?
ऐसा लगता है कि फाॅंसी का तख्ता का तख्ता गिर जाने के बाद,दिल की धड़कन बन्द होने से पूर्व भी,यदि राजगुरू फाॅंसी की काली टोपी के बाहर आंख खोल कर एक बार देख सकते तो उस दीवाने ने यही देखने की कोशिश की होती कि कहीं भगतसिंह मुझ से पहले तो नहीं……………..और उस समय भगतसिंह के होठों पर भी राजगुरू का यह पागलपन देखकर अपने जीवन की अन्तिम और सबसे मधुर मुस्कान खिल जाती और यदि वे कह सकते तो कहते-शौके शहादत तो हम सबको ही रहा है भाई,पर तू तो सराया शौके-शहादत है।हार गये तुझसे।
राजगुरू की याद कहती है-अधिकार पदों के लिए एक दूसरे पर कीचड़ उछालना ही राजनीति में नहीं होता,कुर्बानी की ऐसी पवित्र स्पर्धा भी होती है।हम मरे नहीं हैं,हम मिटे नहीं हैं,हमारा स्वर्ग तुम्हारे ह्दय में ही है।मनुष्य की मनुष्यता में विश्वास न खोना।

अमर सपूत श्याम जी कृष्ण वर्मा

अमर सपूत श्याम जी कृष्ण वर्मा

श्याम जी कृष्ण वर्मा भारत के उन अमर सपूतों में हैं जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत की आजादी के लिए लगा दिया।ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों से त्रस्त होकर भारत से इंग्लैण्ड चले गये श्याम जी कृष्ण वर्मा ने अपना सारा जीवन भारत की स्वतन्त्रता के लिए माहौल बनाने में और नवयुवकों को प्रेरित करने में लगाया।आज ही के दिन 4अक्तूबर,1857 को कच्छ-गुजरात के माण्डवी के निकअ स्थित वलायल गाॅंव में आपका जन्म हुआ था।बहुत कम उम्र में ही आप संस्कृत भाषा में धाराप्रवाह भाषण देने लगे थे।मुम्बई में आपकी ख्याति कम उम्र में ही हो गई थी।प्रतिभावान श्यामजी कृष्ण वर्मा का विवाह मुम्बई के एक करोडपति परिवार ने अपनी कन्या से इनकी प्रतिभा के कारण किया।अपनी प्रतिभा के ही बदौलत मात्र 23वर्ष की उम्र में इंग्लैण्ड़ के संस्कृत अध्यापक मोनियर विलियम के आमंत्रण पर आप इंग्लैण्ड़ गये।बी0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आपकी नियुक्ति संस्कृत,मराठी व गुजराती भाषाओं को पढ़ाने के लिए आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में हुई।आप ही वो प्रथम भारतीय हैं जिसने आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि हासिल की।24वर्ष की उम्र में ही आपको बर्लिन व हाॅलैण्ड की ओरियण्टल कांफ्रेन्स में भारत कर प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया।1884 में आपने आॅक्सफोर्ड से ही बैरिस्टर की डिग्री ली।शिक्षा ग्रहण करके भारत वापस आकर के श्यामजी कृष्ण वर्मा ने रतलाम रियासत के दीवान की जिम्मेदारी सम्भाली,यहाॅं आपने काॅफी समाज हित के कार्यों को अंजाम दिया।उदयपुर रियासत के राजा फतहसिंह ने श्यामजी कृष्ण वर्मा को अपने राज्य की कौसिंल आॅफ स्टेट का सदस्य बनाया।3वर्षों तक उदयपुर रहने के बाद आप ने जूनागढ़ के दीवान का पद भार सम्भाला।आपका मन दरअसल पूरी तरह रियासतों के काम में नहीं लग रहा था,अन्ततोगतवा आप मुम्बई आकर बैरिस्टरी करने लगे।अंग्रेजों के अत्याचार से क्षुब्ध होकर आप इंग्लैण्ड चले गये। श्याम जी कृष्ण वर्मा ने भारत छोड़ने के विषय में लिखा,‘‘1897 में जब नाटो बन्धु गिरफतार हो गये और तिलक पर मुकदमा चला तो मुझे यकीन हो गया कि ब्रिटिश सरकार में वैयक्तिक स्वतन्त्रता का कोई मूल्य नहीं है और न ही समाचार पत्रों को ही कोई स्वतन्त्रता है।इसी कारण मैं स्वदेश छोड़कर इंग्लैण्ड़ वासी बना और जबकि इंग्लैण्ड़ में भी मेरे लिए निर्विघ्न रहना संभव नहीं है तो मैने पेरिस को अपना कार्यक्षेत्र बनाया।श्याम जी कृष्ण वर्मा ने ब्रिटेन में शिक्षा प्राप्त करने तथा आजीवन भारत की सेवा करने वालों के लिए फैलोशिप देने की शुरूआत की।श्याम जी कृष्ण वर्मा को ऐसे चेतनाशील,समर्पित नवयुवकों की आवश्यकता थी,जो लन्दन में क्रान्ति की शिक्षा लेकर उसे भारत में सफलता से चला सके।छात्रवृत्तियों का उद्देश्य यही था।इन छात्रवृत्तियों के लिए धन की व्यवस्था नाना साहेब पेशवा ने की।विनायक दामादर सावरकर,सेनापति बापट,लाला हरदयाल वे प्रमुख क्रान्तिकारी थे जिन्होंने छात्रवृत्ति ग्रहण की।

श्याम जी कृष्ण वर्मा ने जनवरी 1905 में ‘‘इण्डियन सोशलाॅजिस्ट‘‘ नामक धार्मिक-सामाजिक पत्र निकाला।इस पत्र के माध्यम से श्याम जी कृष्ण वर्मा जी ने दार्शनिक विचारों से क्रान्ति का प्रचार प्रारम्भ किया।अंग्रेजों की अक्ल ठिकाने लगाने के लिए रूसी क्रान्तिकारियों की पद्धति को आप उपयोगी मानते थे।18फरवरी,1905 को बीस भारतीयों ने ‘‘भारतीयों द्वारा भारतीयों के लिए भारतीय सरकार की स्थापना‘‘ के उद्देश्य को लेकर ‘‘इण्डियन होमरूल सोसायटी‘‘ का गठन किया।इसमें प्रमुख भूमिका श्याम जी कृष्ण वर्मा ने निभाई।मई 1905 में ‘‘इण्डियन सोशलाॅजिस्ट‘‘ में पहली जुलाई से लन्दन में ‘‘इण्डिया हाउस‘‘ हास्टल खोलने की घोषणा हुई।श्याम जी कृष्ण वर्मा ने एक तिमंजिला भवन बनवाकर भारतीय क्रान्तिकारियों को लन्दन में ठहराने की योजना को साकार रूप दिया।ब्रिटेन में इण्डिया हाउस वह स्थान बन गया जहाॅं भारत के स्वाधीनता संग्राम की योजनायें बनी तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन को एक दिशा मिली।

जुलाई 1907 में ब्रिटिश लोकसभा में श्याम जी कृष्ण वर्मा के संदर्भ में प्रश्न उठा।इन प्रश्नों के उठते ही वे पेरिस चले गये।जुलाई 1909 तक ‘‘इण्डियन सोश्लाॅजिस्ट‘‘ लन्दन से निकला तत्पश्चात् यह पत्र पेरिस से निकलने लगा।प्रथम विश्व युद्ध के प्रारम्भ होने के दो-तीन वर्षों तक ‘‘इण्डियन सोश्लाॅजिस्ट‘‘ पत्र निकला।श्याम जी कृष्ण वर्मा को यह आभास हुआ कि अब पेरिस में भी उनके लिए दिक्कतें आयेंगी तो वे जिनेवा चले गये,यहीं पर 30 मार्च,1930 को आप स्वर्ग सिधार गये।

दुर्गा भाभी का जीवन व क्रांतिकारी व्यक्तित्व

दुर्गा भाभी का जीवन व क्रांतिकारी व्यक्तित्व

प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गादेवी का जन्म ७ अक्तूबर,1907 को इलाहाबाद के न्यायाधीश की पुत्री के रूप में हुआ था। यह संयोग ही है कि दुर्गा देवी की मृत्यु अक्तूबर माह की 14 तारीख को ९२ वर्ष की उम्र में 1999 को हुई। ग्यारह वर्ष की उम्र में दुर्गा देवी का विवाह पन्द्रह वर्षीय भगवतीचरण वोहरा से हुआ था। नेशनल कालेज-लाहौर के विद्यार्थी वोहरा क्रंातिभाव से भरे हुए थे ही, उनकी पत्नी दुर्गा देवी भी आस-पास के क्रांतिकारी वातावरण के कारण उसी में रम गईं थी। सुशीला दीदी को वे अपनी ननद मानती थीं। भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव की त्रिमूर्ति समेत सभी क्रंातिकारी उन्हें भाभी मानते थे।

साण्डर्स वध के पश्चात् सुखदेव दुर्गा भाभी के पास आये। सुखदेव ने दुर्गा भाभी से 500 सौ रूपये की आर्थिक मदद ली तथा उनसे प्रश्न किया-आपको पार्टी के काम से एक आदमी के साथ जाना है, क्या आप जायेंगी ? प्रत्युत्तर में हाँ मिला। सुखदेव ने कहा-आपके साथ छोटा बच्चा शची होगा, गोली भी चल सकती है। दुर्गा स्वरूप रूप धर दुर्गा भाभी ने कहा-सुखदेव, मेरी परीक्षा मत लो। मैं केवल क्रंातिकारी की पत्नी ही नहीं हूँ, मैं खुद भी क्रंातिकारी हूँ। अब मेरे या मेरे बच्चे के प्राण क्रान्तिपथ पर जायें, मैं तैयार हूँ। दूसरी रात ग्यारह बजे के बाद सुखदेव साण्डर्स का वध करने वाले भगत सिंह और राजगुरू, दुर्गा भाभी के घर आ गये। फिर प्रातःभगत सिंह ने शची को गोद में लिया, फैल्ट हैट और शची के कारण भगत सिंह का चेहरा छिपा था, पीछे दुर्गा भाभी बड़ी रूआब से ऊँची हील की सैण्डिल पहने, पर्स लटकाये तथा राजगुरू नौकर रूप में पीछे-पीछे स्टेशन पहुंचे। भगत सिंह और दुर्गा भाभी प्रथम श्रेणी में तथा राजगुरू तृतीय श्रेणी के डिब्बे में चढ़ गये। गाडी के लखनउ आने पर राजगुरू अलग होकर आगरा चल दिये। लखनउ स्टेशन पर भगवती चरण वोहरा और सुशीला दीदी इनको लेने आये। इस प्रकार भगत सिंह और राजगुरू को सकुशल लाहौर से निकालने का श्रेय दुर्गा भाभी को है। धन्य हैं ये वीरांगना। इनके अतिरिक्त भेष बदल बदल कर बम-पिस्तौल क्रांतिकारियों को दुर्गा भाभी अक्सर मुहैया कराती रहती थीं।

असेम्बली बम काण्ड में गिरफतारी देकर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जेल गये। न्यायालय को इन लोगों ने क्रांतिकारियों की विचार-धारा के प्रचार का माध्यम बनाया। इन्हें छुड़ाने की योजना के तहत किये जा रहे बम परीक्षण के दौरान भगवती चरण वोहरा की मृत्यु हो गयी। मृत्यु की सूचना का वज्रपात सहते हुए, अन्तिम दर्शन भी न कर पाने का दंश झेलते हुए भी धैर्य और साहस की प्रतिमूर्ति बनी रहीं दुर्गा भाभी। पति की मृत्योपरान्त उनको श्रद्धांजलि रूपेण वे दोगुने वेग से क्रांति कार्य को प्रेरित करने लगी। पुनः कुछ दिनों बाद जहां वे लोग रह रहीं थीं, बम विस्फोट हो गया। सभी लोगों ने तत्काल वहां से तितर-बितर होकर भागने की योजना बनाई। इस आपाधापी में दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी एक साथ रहीं।

मुम्बई के गवर्नर हेली की हत्या की योजना दुर्गा भाभी ने पृथ्वी सिंह आजाद, सुखदेव राज, शिंदे और बापट को मिला कर बनाई। गलत-फहमी में इन लोगों ने पुलिस चैकी के पास एक अंग्रेज अफसर पर गोलियां बरसा दीं। बापट की कुशलता पूर्वक की गई डाइविंग से यह लोग बच पाये।चन्द्रशेखर आजाद, दुर्गा भाभी को अब भाई की तरह सहारा देते थे, उन्होंने इस योजना को लेकर काॅफी डांट लगाई। कुछ दिनों के बाद चन्द्रशेखर आजाद भी इलाहाबाद में शहीद हो गये।

समृद्ध परिवार की दुर्गा भाभी के तीनों घर लाहौर के तथा दोनो घर इलाहाबाद के जब्त हो चुके थे। पुलिस पीछे पडी थी। शची को दुर्गा भाभी अब अपने से दूर रख चुकी थी। लाहौर आकर दुर्गा भाभी ने फ्री प्रेस आॅफ इण्डिया से कहा, ‘‘पुलिस मेरा लगातार पीछा कर रही है, लेकिन कैद नही करती। मैं कोई काम नहीं कर पा रही हूँ। मुझे गिरफतार किया जाये नही तो मैं आज से अपने आप को स्वतन्त्र समझूंगी। ‘‘उसी दिन 14सितम्बर,1932 को पुलिस ने बुखार में तपती दुर्गा भाभी को कैद कर लिया। 15दिन के रिमाण्ड के पश्चात सबूतों के अभाव में दुर्गा भाभी को पुलिस को रिहा करना पड़ा। 1919रेग्यूलेशन ऐक्ट के तहत तत्काल आपको नजर कैद कर लिया गया। फिर लाहौर और दिल्ली प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। तीन वर्ष बाद पाबंदी हटने पर आपने प्यारेलाल गल्र्स स्कूल-गाजियाबाद में शिक्षिका के रूप में कार्य किया। इसी दौरान क्षय रोग हो गया परन्तु आप समाज-सेवा करते हुए कांग्रेस से जुडी रहीं। 1937में दिल्ली कांग्रेस समिति की अध्यक्षा चुनी गईं। 1938 में हड़ताल में आप पुनःजेल गईं। बालक शची अब शचीन्द्र हो गया था, योग्य शिक्षा देने की चाह में दुर्गा भाभी ने अड्यार में माण्टेसरी का प्रशिक्षण लिया और 1940 में लखनउ में पहला माण्टेसरी स्कूल खोला। सेवानिवृत्त के पश्चात् आप गाजियाबाद में रहीं। आपका स्वर्गवास 14अक्तूबर, 1999 को हुआ।राष्ट के लिए समर्पित दुर्गा भाभी का सम्पूर्ण जीवन श्रद्धा-आदर्श-समर्पण के साथ-साथ क्रान्तिकारियों के उच्च आदर्शों और मानवता के लिए समर्पण को परिलक्षित करता है।