Thursday, March 8, 2012

वर्तमान भारतीय परिवेश में परिवार-रिश्तो को अहमियत देती महिलाओं का जीवन

अरविन्द विद्रोही .............................

भारतीय सभ्यता और संस्कृति में मातृ शक्ति अर्थात महिला वर्ग का स्थान सदैव सर्वोपरि माना गया है।इस देवभूमि में समस्त आराधना पद्धतियों में नारी शक्ति का पूजन किया जाता है।नारी के बगैर पुरूष के द्वारा की गई ईश आराधना अधूरी ही होती है।सृष्टि के दो अनिवार्य व पूरक अंग के रूप में महिला व पुरूष ही हैं,इस शाश्वत सत्य को कौन नकार सकता है?क्या कोई स्त्री-पुरूष के सहअस्तित्व को नकार सकता है?अधिकारों की बात करें तो भारतीय सभ्यता-संस्कृति व पारिवारिक मूल्य तो परिवार ही नही वरन् समाज के प्रत्येक व्यक्ति चाहे वो नर हो या नारी,बालक हो या वृद्ध सभी के संरक्षण व अधिकारों की बेमिसाल धरोहर है।भारतीय समाज सदैव सहिष्णु व मानवता वादी सोच का रहा है।मुगलों तथा ब्रितानिया हुकूमत की गुलामी से मुक्ति की लडाई में महिला शक्ति किसी भी नजरिए से पुरूषों से पीछे नहीं रही हैं।वास्तविकता तो यह है कि वीर पुरूषों की जननी मातृशक्ति ही वीरोचित कर्म व धर्म की प्रेरक रही हैं।

अतीत की गौरव-शाली,बलिदानी,त्यागमयी गाथायें समेटे भारत-भूमि में आज पारिवारिक मूल्य व आपसी विश्वास दम तोड चुका है।जिस प्रकार दीमक अच्छे भले फलदायक वृक्ष को नष्ट कर देता है उसी प्रकार पूॅजीवादी व भौतिकतावादी विचारधारा भारतीय जीवन पद्धति व सोच को नष्ट करने में प्रति पल जुटा है।जिस प्रकार एक शिक्षित पुरूष स्वयं शिक्षित होता है लेकिन एक शिक्षित महिला पूरे परिवार को शिक्षित व सांस्कारिक करती है,उसी प्रकार ठीक इसके उलट यह भी है कि एक दिग्भ्रमित,भ्रष्ट व चरित्रहीन पुरूष अपने आचरण से स्वयं का अत्यधिक नुकसान करता है,परिवार व समाज पर भी प्रतिकूल प्रभाव पडता है लेकिन अगर कोई महिला दिग्भ्रमित,भ्रष्ट व चरित्रहीन हो जाये तो वह स्वयं के अहित के साथ-साथ अपने परिवार के साथ ही दूसरे के परिवार पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है।एक कटु सत्य यह भी है कि एक पथभ्रष्ट पुरूष के परिवार को उस परिवार की महिला तो संभाल सकती है,अपनी संतानों को हर दुःख सहन करके जीविकोपार्जन लायक बना सकती है लेकिन एक पथभ्रष्ट महिला को संभालना किसी के वश में नहीं होता है और उस महिला के परिवार व संतानों को अगर कोई महिला का सहारा व ममत्व न मिले तो उस परिवार के अवनति व अधोपतन को रोकना नामुमकिन है।

पूंजीवाद के प्रभाव में भारत में भी महिलाओं को एक उत्पाद के रूप में,एक उपभोग की वस्तु के रूप में प्रस्तुतिकरण का नतीजा है कि आज अर्धनग्नता फिल्मी परदों से निकल कर महानगरों से गुजरती हुई शहरों-कस्बों में पांव पसार चुकी है।परिवारों में आपसी सामंजस्य की कमी,विलासिता व उपभोगवादी संस्कृति के प्रति आर्कषण तथा अन्धानुकरण ने युवा वर्ग को गर्त में धकेलने का काम किया है।फिल्म,टेलीविजन,पत्र-पत्रिकायें यहां तक कि विद्यार्थियों की पाठ्य व लेखन पुस्तिका के आवरण पृष्ठ भी अश्लील,अर्धनग्न,कामुक,नायक-नायिकाओं,खिलाडियों,कार्टून चरित्रों से परिपूर्ण हैं।जिनका शिक्षा जगत से,नैतिकता से कोई लेना-देना नही है उनका दर्शन प्रतिक्षण करने को विद्यार्थियों को अनवरत् प्रेरित किया जा रहा है।दरअसल वर्तमान दौर में आधुनिकता व अधिकारों के नाम पर स्वच्छंदता व भौण्डेपन को अपनाया जा रहा है।आज भी भारत की बहुसंख्यक ग्राम्य आधारित जीवन जीने वाली मेहनतकश आम जनता अपने मनोरंजन के लिए तो इन तडक-भडक वाली जीवन शैली युक्त फिल्मों को देखता है परन्तु निजी तौर पर उस शैली को,उस जीवन पद्धति को अपनाने का विचार भी उसके जेहन में नही आता है।भारत में पारिवारिक विखण्डन व नैतिक अवमूल्यन के पश्चात् भी अभी सामाजिक-धार्मिक ताने बाने के कारण,लोक-लाज के कारण छोटे शहरों,कस्बों व ग्रामीण अंचलों में महिलायें कामकाज पर,नौकरी पर निकल तो रही हैं परन्तु महानगरों सी स्वछंदता यहां देखने को नही मिलती है।

कृषि आधारित भारतीय परिवारों का जीवन सरल व सुव्यवस्थित था।इसमें परिवार के सभी सदस्यों के काम बंटे होते थे और हित-अधिकार सुरक्षित।आज के आर्थिक युग में नौकरी कर रहीं महिलायें आर्थिक कमाई तो निश्चित रूप से कर ले रही हैं परन्तु शारीरिक,मानसिक व भावनात्मक रूप से कमजोर होती जा रही हैं।अपनी नौकरी के,व्यवसाय के दायित्वों का निर्वाहन के साथ-साथ पत्नी धर्म का पालन,संतानों की परवरिश,सास-श्वसुर की देखभाल के साथ-साथ मायके में वृद्ध मॉं-बाप के स्वास्थ्य की चिन्ता कामकाजी महिलाओं को हलकान कर देती हैं।आज महिला वर्ग नौकरी पाने पर अत्यधिक प्रसन्नता की अनुभूति करती हैं।दरअसल अब महिला वर्ग का दोहरा शोषण हो रहा है।रिश्तों को,परिवार को सहेजने के साथ-साथ महिला को परिवार के लिए धर्नाजन के लिए श्रम करना क्या महिला सशक्तिकरण है?यह बात उन महिलाओं पर कदापि लागू नही होती है जो परिवार व रिश्तों से ज्यादा अहमियत दूसरी बातों को देती हैं।मेरा यह विचार सिर्फ उन महिलाओं की आंतरिक पीडा पर है जो पारिवारिक सुख व सम्पन्नता को प्राथमिकता पर रखते हुए जीवन जी रही हैं और अपनी कमाई परिवार पर ही खर्च करती हैं।अपने परिवार को अहमियत देते हुये कई बार काम काजी महिला अपनी जमी जमी नौकरी भी त्याग देती है - वह नौकरी जिसके लिए उसने रात दिन एक करके पढाई की होती है ,तमाम जगह प्रयत्नों के बाद मेहनत-मसक्कत करके जो नौकरी हासिल की होती है |भारी तादात में ऐसी भी महिला है जो अपने परिवार की माली हालात को और बेहतर बनाने के लिए ,घर के खर्चे में अपना भी योगदान देने के लिए घर से बाहर या घर में ही रहकर अपनी आय के जरिये बना लेती है |दोहरी जिम्मेदारी के निर्वाहन के बावजूद इन महिलाओ का स्पष्ट मानना है कि स्वावलंबन और आमदनी के जरिये उनके अन्दर आत्म विश्वास जगा है और ये महिला वर्ग का सशक्तिकरण है | अविवाहित युवतियो का घर से दूर नौकरी करने के लिए प्रतिदिन घंटो का सफ़र तयें करना ही कितना थकाऊ व उबाऊ होता है इसका तो भली भांति अहसास पुरुष वर्ग को है ही |लेकिन इस अहसास के होने के बावजूद कितने पुरुष , पुरुष को भी रहने दीजिये घर में ही रहने सिर्फ घरेलु काम करने वाली महिला अपने ही घर की उस काम काजी युवती को नौकरी से घर वापसी को बिना उसके मांगे कितने बार पीने का पानी या चाय-नाश्ता देती है,ये काबिले गौर तथ्य है |अगर देती भी है तो गाहे बगाहे सुना जरुर देती है ,ये परिवारों के अन्दर की बहुत उलझी हुई ,बिगड़ी हुई ,अभी बहुत हद तक ढकी-छिपी तस्वीर है | कामकाजी महिलाओ का जाहे वो नौकरी पेशा हो,स्व रोजगार से जुडी हो,श्रमिक वर्ग से हो या खेती-किसानी से जुडी हो ,निश्चित रूप से एक आतंरिक बैचैनी ,पीड़ा को अंगीकार किये ख़ामोशी से परिवार-समाज के लिए अपने व्यग्तिगत लाभों को कमोबेश दरकिनार करने में तनिक परहेज़ नहीं करती है | घर से दूर रहकर शिक्षा अर्जन हो अथवा उसके पश्चात् घर से दूर नौकरी मिलने पर घर से अलग रहकर नितांत अकेले परवारिक माहौल से दूर नौकरी करने की विवशता जब किसी युवती के सामने आती है तो उसके सामने अपने सुनहरे भविष्य के सपनो को साकार करने के अवसर के साथ ही साथ एकाकी पन का असीम कष्ट भी होता है | किसी भी युवती के जीवन का यह वो निर्णायक काल होता है जिसमे उसको अपने दायित्व निर्वाहन के साथ साथ अपने एकाकी पन को काटने के लिए चन्द साथियो की जरुरत महसूस होती है |शिक्षा अर्जन के समय सहपाठी और नौकरी के समय सहकर्मी ही सभी के लिए सबसे निकट के व्यक्ति होते है | घर से दूर ,पढाई का काम का भरपूर दबाव जिस चरित्र का मित्र इस समय किसी का भी बन गया उसके निजी जीवन में उस तरह के चरित्र से घटित होने वाली अच्छी बुरी घटना घटित होनी स्वाभाविक ही है | किसी भी अकेली रह रही युवती के विषय में अधिकांश पुरुष वर्ग की सोच किसी से छिपी नहीं है ,सोच के पीछे मानसिकता हो या तमाम उदाहरण ,इसमें ना जा कर मेरा सवाल उस युवती के घर के ही पुरुषो से ही करने को कहता है कि क्या वो अपने साथ पढ़ रही या काम कर रही या कही भी अकेली रह रही युवती-महिला के विषय में क्या सोचते है ? और जो भी सोचते है क्या उनके परिवार की महिला के विषय में वही बात लागु नहीं होती है ? और सबसे बड़ी बात परिवार की एक युवती-महिला अगर परिवार की तरक्की में अपना योगदान देती है तो परिवार के लोगो का उसका समुचित ध्यान देना चाहिए लेकिन अभी बहुतायत में परिवार के बारे में सोचने वाली महिला परिवार के ही अन्य लोगो के द्वारा उपेक्षित है जबकि अपना निजी हित सर्वोपरि रखने वाली महिला देखने में तो स्वयं में मस्त व प्रसन्न रहती ही है |