Friday, March 16, 2012

स्मृति शेष -- जंग ए आज़ादी के गुमनाम सेनानी बलवंत सिंह का बलिदान दिवस १७ मार्च

अरविन्द विद्रोही ....................... श्री बलवंत सिंह का जन्म सरदार बुद्ध सिंह के घर पहली आश्विन संवत १९३९ दिन शुक्रवार को गाँव खुर्द पुर जिला जालंधर में हुआ था | आदम पुर के मिडिल स्कूल में आपका दाखिला कराया गया | कम उम्र में ही आपका विवाह भी हुआ , शीघ्र ही पत्नी की मौत भी हो गयी | स्कूल त्याग कर बलवंत सिंह फौज में भर्ती हुये | वहां संत कर्म सिंह जी की संगति से आप ईश्वर भजन करने लगे | आपका दूसरा विवाह हुआ | दस वर्षो बाद नौकरी छोड़ कर गाँव के पास स्थित एक गुफा में ग्यारह माह तक तपस्या की | सन १९०५ में कनाडा चले गये | आपके ही अथक प्रयासों से वैंकोवर में अमेरिका का पहला गुरु द्वारा स्थापित हुआ , इस कार्य में आपके साथी थे श्री भाग सिंह | बाद में भाग सिंह की एक देश द्रोही ने गोली मार कर हत्या कर दी | उस समय वहां के प्रवासी हिन्दुओ तथा सिक्खों को मृतक संस्कार करने में बड़ी विपत्ति होती थी | मुर्दे जलाने की उन्हें आज्ञा ना थी | श्री बलवंत सिंह ने कुछ जमीने खरीदी तथा दाह संस्कार की अनुमति ले ली | भारतीय मजदूरों को संगठित किया | उनमे सच्चरित्रता तथा ईश्वरोपासना का प्रचार किया | आपने गुरुद्वारा का ग्रंथी बनना स्वीकार किया | इमिग्रेसन विभाग ने भारतीओं को कैनेडा से हटाने का षड्यंत्र रचा | भारतीय मजदूरों को हांडूरास नामक द्वीप में चले जाने को राजी करने का प्रयास किया | बलवंत सिंह श्री नागर सिंह को द्वीप देखने भेजा | वहा इमिग्रेसन विभाग वालो ने उन्हें भारत में पाँच मुरब्बे जमीन और पाँच हज़ार डालर देने का लोभ देकर भारतीओं को इस द्वीप पर भेजने को कहा | नागर सिंह ने घुस ठुकरा कर बलवंत सिंह को वास्तविकता बता दी | प्रवासी भारतीओं की इच्छा थी कि हमारा पूरा परिवार साथ आकर रहे | श्री बलवंत सिंह , श्री भाग सिंह , भाई सुन्दर सिंह जी को भारत लौट कर अपने परिवार को लाने के लिए भेजा गया | १९११ में ये तीनो सपरिवार हांगकांग पहुचे | वैंकोवर आने के लिए काफी मुसीबतें उठाई | परिवार वालो को जमानत की तयं अवधि तक ही रहने की अनुमति मिली | अवधि बीतते ही इमिग्रेसन विभाग के लोग आ धमके | भारतीय झगडे के लिए तैयार हो गये | अफसर लोग जरा गरम हुये परन्तु वीर योद्धाओं की लाल आँखे देख कर खिसिया कर लौट गये | वे परिवार तो वही रहे परन्तु शेष भारतीओं के परिवार लाने की समस्या बनी हुई थी | तीन सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल बनाया गया जिसमे बलवंत सिंह शामिल थे | प्रतिनिधिमंडल इंग्लॅण्ड गया , वहा कहा गया की मामला भारत सरकार द्वारा यहाँ पहुचना चाहिए | निराश होकर सभी भारत आये | संपर्क व आन्दोलन शुरु किया | उस समय लाला लाजपत राय ने भी एक सडा स उत्तर देकर प्रतिनिधिमंडल से अपना पीछा छुड़ा लिया | फिर क्या था ? ये लोग लगे रहे , सहायता भी मिली और सभाएं भी हुई | घोर निराशा , विवशता , क्रोध से घिरे बलवंत सिंह को सहारा था तो सिर्फ राष्ट्रीय भाव का और कर्त्तव्य निर्वाहन का | बलवंत सिंह ने सभाओं में ह्रदय के अन्दर के लावे को उगला | सर माईकल ओडायर ने अपने ग्रन्थ इंडिया एस आई नो में इस बारे में लिखा है | वे बलवंत सिंह की सफाई , शांति , वीरता , गंभीरता और निर्भीकता को देख कर कहा करते थे कि - बलवंत सिंह सिक्खों के पादरी है अथवा सेनापति , यह निश्चय करना बड़ा कठिन है | बलवंत सिंह ने निश्चय कर लिया था कि भारत को हर सम्भव उपाय से स्वतंत्र करवाना ही प्रत्येक भारत वासी का कर्त्तव्य है और सब रोगों कि एक मात्र औषधि भारत कि स्वतंत्रता है | प्रतिनिधि मंडल २०१४ के प्रारंभ में वापस लौटा | इस समय बरकत उल्लाह तथा श्री भगवान सिंह अमेरिका में थे | बलवंत सिंह और प्रतिनिधि मंडल का अभी इनसे संपर्क नहीं हुआ था | इसी प्रकार कि गतिविधिओ में महीनो बीत गये | सन १९१४ के अंतिम में आप शंघाई पहुचे | वहा आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई | परिवार को श्री कर्तार सिंह के साथ वापस भारत भेज दिया | सन १९१५ में बैंकाक आ गये | २१ जनवरी , १९१५ के विद्रोह के आयोजन में जुटे रहे | दुर्भाग्य वश विद्रोह असफल हुआ उसके बाद आप बीमार भी हो गये | डाक्टर ने बिना क्लोरोफोर्म सुंघाए आप्रेशन कर डाला | बीमारी में ही अस्पताल से डिस्चार्ज भी कर दिये गये बलवंत सिंह | स्यान - थाईलैंड कि सरकार ने बलवंत सिंह और उनके साथियो को गिरफ्तार करके भारत की अंग्रेज सरकार के हवाले कर दिया | बलवंत सिंह को सिंगापुर लाया गया | मौन साध गये बलवंत सिंह | आखिर कर १९१६ में लाहौर षड़यंत्र-कारियो में आपको भी शामिल किया गया | २४ दिन के नाटक के बाद आपको फांसी की सजा सुनाई गयी | क्रान्तिकारियो के बौद्धिक नेता भगत सिंह लिखते है -- काल कोठरी में बंद हैं , सिक्ख होने पर टोपी नहीं पहन सकते | कम्बल ही सिर पर लपेट लिया है | बदनाम करने के लिए किसी ने शरारत की - कम्बल के किसी कोने में अफीम बांध दी और कहा गया कि आप आत्म हत्या करना चाहते है | अपने अत्यंत शांति से उत्तर दिया -- मृत्यु सामने खड़ी है | उसके आलिंगन के लिए तैयार हो चुका हूँ | आत्म हत्या कर के मैं मृत्यु सुंदरी को कुरूपा नहीं बनाऊंगा | विद्रोह के अपराध में मृत्यु दंड पाने में गर्व अनुभव करता हूँ | फांसी के तख्ते पर ही वीरता पूर्वक प्राण त्याग दूंगा | पूछ ताछ करने पर भेद खुल गया | कुछ नंबर दार कैदियो तथा वार्डर को कुछ सजाएं हुई | सभी ने आपकी देश भक्ति तथा निर्भीकता की दाद दी | १७ मार्च , १९१६ को बलवंत सिंह और उनके साथ छह साथी वीर नहाने के बाद भारत का स्वतंत्रता गान गाते हुये मुक्ति मार्ग पर चल पड़े | छोड़ गये अपने पीढियो के लिए त्याग , तपस्या और देश प्रेम की अनोखी मिसाल | बलवंत सिंह के जीवन संघर्ष को विस्तार से फ़रवरी १९२८ में चाँद के फांसी अंक में भगत सिंह ने लिखा था | भगत सिंह ने लिखा --- वे बड़े ईश्वर भक्त थे | धर्म निष्ठा के कारण उन्हें सिक्खों में पुरोहित बना दिया गया था | शांति के परम उपासक बलवंत का स्वाभाव बड़ा मृदुल था | वे सुमधुर भाषी थे | पहले पहल वे ईश्वरोपासना की ओर लगे | फिर लोगो को उस ओर लाने की चेष्टा की | बाद में लोगो के कष्ट दूर करने के प्रयास में धीरे धीरे गौरांग महाप्रभुओ से मुठभेड़ होती गयी और अंत में फांसी पर मुस्कुराते हुये आपने प्राण त्याग दिये | भगत सिंह ने फांसी के समय को कुछ इस प्रकार से वर्णित किया --- बलवंत सिंह ने प्रातः काल स्नान किया तथा अपने छह और साथियो के साथ भारत माता को अंतिम नमस्कार किया | भारत स्वतंत्रता का गान गाया | हँसते हँसते फांसी के तख्ते पर जा खड़े हुये | फिर क्या हुआ ? क्या पूछते हो ? वही जल्लत , वही रस्सी ! ओह ! वही फांसी और वही प्राण त्याग ! आज बलवंत सिंह इस संसार में नहीं है , उनका नाम है , उनका देश है , उनका विप्लव है |