Tuesday, September 11, 2012

हिन्दू धर्म-दर्शन व अध्यात्म के प्रचारक स्वामी विवेकानंद ----- अरविन्द विद्रोही

गुरूदेव श्री रामकृष्ण परमहंस की अमर वाणी, ‘‘सभी धर्म सत्य हैं और वे ईश्वर प्राप्ति के विभिन्न उपाय मात्र हैं। ‘‘को आत्म सात् किये हुए स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो -अमेरिका में आयोजित होने वाले विराट धर्मसभा व महासम्मेलन में जाने का निश्चय मद्रास के शिष्यों के अनवरत् दबाव व इच्छा तथा एक रात को गुरूदेव श्री रामकृष्ण परमहंस को स्वप्न में देखा कि वे महासागर के अथाह जल में पैदल चलते चले जा रहें हैं और उन्हें अपने पीछे-पीछे आने को कह रहे हैं, देखकर किया था। मातु श्री शारदा देवी की आज्ञा उन्होंने विदेश यात्रा के लिए पत्र लिख कर मांगीं माता की आज्ञा व आशीर्वाद एक साथ प्राप्त हो गये। स्वामी विवेकानन्द ने सारी उलझनों को त्याग कर धर्मसभा में जाने का निश्चय किया। पश्चिम को हिन्दू दर्शन और अध्यात्म का सन्देश देने तथा गुलामी की जंजीरों में जकड़े स्वदेश को जाने के महान उद्देश्य को पूरा करने के लिए स्वामी विवेकानन्द ने 31मई 1893 को मातृभूमि भारत के सागर तट से जलयान पर सवार हो कर, अपनी यात्रा प्रारम्भ की। पश्चिम के वैज्ञानिक विकास को देखने-समझने की जिज्ञासा मन में समेटे स्वामी विवेकानन्द जहाज के सहयात्रियों तथा कैप्टेन के साथ परिचय प्राप्त कर घुलमिल गये। सागर की तरंगों से उत्पन्न संगीत को ध्यान का माध्यम बना कर विवेकानन्द ने सात दिनों की यात्रा के बाद, जहाज के श्रीलंका के बन्दरगाह पर पहूँचने पर कोलम्बों का नगर भ्रमण किया। बौद्ध धर्म को हिन्दू धर्म की विद्रोही शाखा व पूरक मानने वाले विवेकानन्द ने भगवान बुद्धदेव की महानिर्वाण अवस्था की मूर्ति के दर्शन किये। भाषा की कठिनाई के चलते वहाँ के पुरोहित से स्वामी विवेकानन्द की बात न हो पाई। कोलम्बो से जलयान चलकर मलाया, सुमात्रा, सिंगापुर होते हुए हांगकांग पहूँचा। यहाँ तीन दिन के प्रवास में स्वामी विवेकानन्द ने दक्षिण चीन की राजधानी कैण्टन की यात्रा कर ली। यहाँ भी बौद्ध मन्दिर के दर्शन किये और जापान पहूँचने पर नागासाकी, याकोहामा, ओसाका और टोक्यो को देखकर अपने शिष्यों को लिखा, – ‘‘भारत की मानो जराजीर्ण स्थिति से बुद्धि का भी नाश हो गया है! देश छोड़कर बाहर जाने से तुम लोगों की जाति बिगड़ जाती है! हजारों वर्ष पुराने इस कुसंस्कार का बोझ सिर पर धरे हुए तुम लोग बैठे हुए हो! हजारों वर्ष से खाद्य-अखाद्य की शुद्धा-शुद्धि पर विचार करते हुए तुम लोग अपनी शक्ति बरबाद कर रहे हो! पौरोहित्य रूपी मूर्खता के गम्भीर आवर्त में चक्कर काट रहे हो! सैकड़ों युग के लगातार सामाजिक अत्याचार से तुम्हारा सारा मनुष्यत्व नष्ट हो गया है!……..आओ, मनुष्य बनो। अपने संकीर्ण अन्धकूप से निकलकर बाहर जाकर देखो, सभी देश कैसे उन्नति के पथ पर चल रहें है। क्या तुम मनुष्य से प्रेम करते हो? तुम लोग क्या देश से प्रेम करते हो? तो फिर आओ हम भले बनने के लिए प्राणपण से चेष्टा करे। जहाज प्रशान्त महासागर पार कर बैंकुवर बन्दरगाह पहूँचा। स्वामी विवेकानन्द रेलमार्ग से 3दिन की यात्रा पूरी कर के शिकागों पहूँचे। गेरूवा वस्त्र धारी अपरिचित युवक को देख लोग घूरने व ठगने लगे। खिन्न होकर स्वामी विवेकानन्द एक होटल में जाकर विश्राम करने लगे। दूसरे दिन स्वामी विवेकानन्द प्रदर्शनी देखने गये। वहाँ पर भी अपरिचित युवा साधु को देखकर पत्रकारों ने परिचय प्राप्त किया। अत्यधिक व्यय से चिन्तित स्वामी विवेकानन्द को यह ज्ञात हुआ कि धर्मसभा का आयोजन सितम्बर माह में होगा तथा प्रतिनिधि के रूप में आवेदन पत्र भेजने का समय भी बीत चुका है। व्यय खर्च कम करने के उद्देश्य से विवेकानन्द बोस्टन चल पड़े। एक वृद्ध महिला से आकस्मिक भेंट हो गई। वृद्ध महिला ने अमेरिका में आये वेदान्त के इस प्रचारक को अपने घर अतिथि के रूप में रहने का आमंत्रण दिया। स्वामी विवेकानन्द का मन निश्चिन्त हुआ और वे उनके घर रहने लगे। यहीं पर हार्वर्ड विश्वविद्यालय के विख्यात प्रोफेसर श्री जे0एच0राइट आये और स्वामी विवेकानन्द से परिचय होने के बाद, प्रभावित होकर, धर्मसभा से सम्बन्धित अपने मित्र मिस्टर बनी को पत्र लिखा, -‘‘मेरा विश्वास है कि यह अज्ञात हिन्दू सन्यासी हमारे सभी विद्वानों से अधिक विद्वान है। ’’स्वामी विवेकानन्द श्री राइट के लिखे इस पत्र को लेकर शिकागो आये, दुर्भाग्यवश वे पत्र को खो बैठे। भीषण शीतलहर में किसी तरह रात रेलवे मालगोदाम के सामने पड़े एक बडे से बक्से में बिताई। सड़क किनारे बैठे भूख से निढ़ाल स्वामी विवेकानन्द ने गुरूदेव का स्मरण किया ।जहाँ पर स्वामी विवेकानन्द बैठे थे, वहीं सामने एक विशाल घर था। इसी घर से एक स्त्री ने बाहर आकर स्वामी विवेकानन्द से पूछा, ‘‘क्या आप धर्ममहासभा के प्रतिनिधि हैं? विवेकानन्द ने अपना पूरा हाल बताया। मिसेज जार्ज डब्ल्यू० हैल नामक इस स्त्री ने स्वामी विवेकानन्द को सादर अपने घर आमंत्रित किया, भोजन कराया तथा फिर उन्हें धर्म महासभा के कार्यालय ले कर गई। इस तरह विभिन्न लोगों के सहयोग तथा गुरूदेव के आशीर्वाद से स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में ले लिए गये तथा वहा अतिथि भवन में रहने लगे। फिर वो घड़ी भी आ गई जिसके लिए स्वामी विवेकानन्द भारत भूमि से शिकागो पधारे थे।11सितम्बर1893 को प्रातः से ही शिकागो के आर्ट इंस्टिच्यूट के अन्दर बाहर हजारों का हुजूम एकत्र होने लगा। बड़े हाॅल में एक विशाल मंच पर बीचो-बीच एक बड़ी सी राजसिंहासन नुमा कुर्सी और दोनो तरफ पीछे की तीन पंक्तियों में अर्धगोलाकार तरीके से सजाई गई लकड़ी की कुर्सियां थी। बडे घण्टे की गूंज के साथ ही विश्व धर्म महासम्मेलन के अधिवेशन के सभापति चाल्र्स कैरोल बोनी और अमेरिकी कैथेलिक चर्च के प्रमुख पादरी कार्डिनल गिबन्स हाथ में हाथ डाले, समस्त अतिथि धर्म प्रतिनिधियों का नेतृत्व करते हुए मंच तक आये और फिर सभी लोग तयशुदा स्थान पर आसीन हो गये। चीन, जापान, यूनानी गिरजाघर, अफ्रीका, मिस्र तथा भारत के विभिन्न सम्प्रदायों के प्रतिनिधि अपनी-अपनी वेशभूषा में आसीन हो गये । भारत से-प्रतापचन्द्र मजूमदार ब्रह्म समाज के, वीरचन्द्र गाँधी जैन धर्म के, श्रीमती ऐनी बेसेन्ट थियोसोफी की, नागरकर जी बम्बई के साथ-साथ स्वामी विवेकानन्द गेरूए अचकन और पगड़ी में एक विशुद्ध परिव्राजक के रूप में उपस्थित थे। स्वामी विवेकानन्द का वैराग्य साफ झलक रहा था। श्रोताओं और दर्शकों की निगाहें बरबस ही मंचासीन श्रेश्ठजनों से फिसलती हुई इसी युवा साधु पर टिक जाती थी। विश्व के इतिहास में अपना विशेष स्थान रखने वाली यह धर्म महासभा, हिन्दू धर्म के इतिहास में नये युग का द्वार खोलने वाली सिद्ध हुई। विश्व के प्रत्येक कोने के करोड़ों व्यक्तियों की आस्थाओं व विचारों का प्रतिनिधित्व यहाँ हुआ। सभा का उद्घाटन मधुर वाद्य संगीत से हुआ। सर्वव्यापी परमेश्वर की स्तुति की गई । सभी का परिचय हुआ । सर्वप्रथम यूनानी गिरजाघर के प्रधान धर्माध्यक्ष ने बहुत ही उदार व भाव पूर्ण व्याख्यान दिया। फिर कई प्रतिनिधियो के व्याख्यान हुए । अपरान्ह में चार प्रतिनिधियों के पश्चात् स्वामी विवेकानन्द ने गुरू रामकृष्ण व जगदम्बा काली की शक्ति का स्मरण कर, ज्ञान की देवी माँ सरस्वती को मन ही मन नमन कर अंग्रेजी में अपना व्याख्यान प्रारम्भ किया,-‘‘अमेरिका की बहनों और भाईयो।’’। इस सम्बोधन का विद्युत प्रवाह श्रोताओं पर पड़ा एवं हाॅल काफी देर तक तालियों से गुंजायमान रहा। शिकागो स्थित आर्ट इंस्टिच्यूट के हाॅल में उपस्थित विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधि तथा हजारों-हजार नागरिक भारत के इस युवा सन्यासी की वाणी के अधीन हो, सम्मोहित भाव से सुनते रहे और युवा सन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने आगे कहा, -‘‘आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हमारा स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा ह्दय अवर्णनीय हर्ष से भरा जा रहा है । संसार में सन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिन्दुओं की ओर से धन्यवाद देता हूँ। इस पर उपस्थित अपार जनसमूह द्वारा काफी समय तक जय ध्वनि की गई । फिर विवेकानन्द ने कहा,-‘‘मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी है।’’ 11सितम्बर के तीसरे प्रहर की समाप्ति तक विवेकानन्द ने अपने इस प्रथम लघु व्याख्यान में साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उसकी वीभत्स धर्मान्धता की तीव्र भत्र्सना की। सत्रह दिनों तक लगातार प्रातः, दोपहर और शाम को सम्मेलन की बैठकें चलती रही। ।स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिया गया प्रथम लघु व्याख्यान श्रोताओं के ह्दय को स्पर्श कर गया था । सनातन धर्म की सहिष्णुता, सार्वभौमिकता, सच्चाई तथा विशालता का वर्णन स्वामी विवेकानन्द ने जिस भावपूर्ण तरीके से किया था, उससे सभी अत्यन्त प्रभावित हुए । चौथे दिन 15 सितम्बर को ‘‘हमारे मतभेद के कारण’’ विषय पर बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कुएं के मेंढ़क की कथा सुनाने के बाद कहा कि, ‘‘हम सभी धर्मावलम्बी इसी प्रकार के अपने अपने कुएं में बैठकर अपने अपने धर्म को एक-दूसरे से बड़ा कह कर झगड़ा मोल ले रहें हैं । मैं आप अमेरिका वालों को धन्य कहता हूँ, क्योंकि आप हम लोगों के इन छोटे-छोटे संसारों की क्षुद्र सीमाओं को तोड़ने का महान प्रयत्न कर रहें हैं । ’’फिर 19सितम्बर को ‘‘हिन्दू धर्म’’ पर लिखित निबन्ध को श्रोताओं को बताते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि, ‘‘हिन्दू धर्म सभी प्रकार के धार्मिक विचारों तथा सभी प्रकार की आराधनाओं का समन्वय करता है । ’’वेदान्त दर्शन की व्याख्या के साथ-साथ परमेश्वर की सगुण उपासना का महत्व समझाते हुए उन्होंने सार्वभौमिक धर्म के विषय में उम्मीद जतायी और कहा- ‘‘जो किसी देश और काल से सीमाबद्ध नहीं होगा – वह उस असीम ईश्वर के समान ही असीम होगा, जो संसार के सभी कोटियों के सभी प्राणियो। पर एक सा प्रकाश वितरण करता रहेगा । यह विश्वधर्म सभी धर्मों की अच्छाइयों को अपने बाहुपाश में आबद्ध कर लेगा और मानवता को सुकार्य एवं प्रेम का संदेश देगा । ’’इसी दिन स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका को सम्बोधित करते हुए कहा,- ‘‘ऐ स्वाधीनता की मातृभूमि कोलम्बिया, तू धन्य है । यह तेरा सौभाग्य है कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्त से अपने हाथ नहीं भिगोये, तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्व हरण कर सहज में ही धनी और सम्पन्न होने की चेश्टा नहीं की, अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता की अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य तेरा ही था । ’’20सितम्बर को ‘‘धर्म भारत की प्रधान आवश्यकता नही। ’’विषय पर अपने छोटे से भाषण में ईसाइयों के द्वारा भारत में भेजे हुए धर्म प्रचारकों की कटु निन्दा करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा, -‘‘आप ईसाई लोग जो मूर्तिपूजकों की आत्मा का उद्धार करने के लिए धर्म प्रचारकों को भेजने के लिए इतने उत्सुक रहते है। उनके शरीरों को भूख से मर जाने से बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं करते?……………आप लोग सारे भारत में जाकर गिरजे बनवाते हैं, पर पूर्व का प्रधान अभाव धर्म नहीं है, उनके पास धर्म पर्याप्त है ।’’ 26सितम्बर को ‘‘बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म की निष्पत्ति’’ विषय पर व्याख्यान में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म को बौद्ध धर्म की जननी बताया तथा बौद्ध धर्म की मौलिकताओं को भी बताया । स्वामी ने कहा,-‘‘हिन्दू धर्म बौद्ध धर्म के बिना नहीं रह सकता और न बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म के बिना ही । हिन्दू धर्म का पाण्डित्यपूर्ण दर्शन और बौद्ध धर्म का विशाल ह्दय दोनों जब तक पृथक पृथक रहेंगें, भारत का पतन अवश्यंभावी है, दोनो के सम्मिलन से ही भारत का कल्याण सम्भव है । ’’विश्व धर्म महासभा के अन्तिम दिन 27 सितम्बर को स्वामी विवेकानन्द ने अपने विचार रखते हुए कहा,-‘‘इस महासभा ने जगत के समक्ष यदि कुछ प्रदर्शित किया है, तो वह यह है-इसने यह सिद्ध कर दिया है कि शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता किसी सम्प्रदाय विशेष की एकान्तिक सम्पत्ति नहीं है एवं प्रत्येक धर्म ने श्रेष्ठ एवं अतिशय उन्नत चरित्र स्त्री-पुरुषों को जन्म दिया है । ……….शीघ्र ही सारे प्रतिरोधों के रहते हुए प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा होगा-‘‘सहायता करो, लड़ो मत । पर भाव ग्रहण, न कि पर भाव विनाश, समन्वय और शान्ति न कि मतभेद और कलह ।’’ शिकागो धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यानों ने अज्ञात, अपरिचित गेरूआ वस्त्रधारी भारत के इस सन्यासी की प्रसिद्धी बढ़ा दी। जगह-जगह बड़ी-बड़ी आदमकद तस्वीरें लगाकर आदर प्रकट किया गया । न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा,-‘‘धर्म महासभा में वे निःसन्देह सर्वश्रेश्ठ व्यक्ति हैं । उन्हे सुनने के बाद लगता है कि उनके देश में हम धर्म प्रचारकों को भेजकर कैसा मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं । ’’विभिन्न समाचार पत्रों ने भारत के इस युवा सन्यासी के प्रशंसा में लेख लिखे । धर्मसभा में स्वामी विवेकानन्द को मिली सफलता एवं यश के समाचार भारत में भी पहूँचा । देश में एक आत्मगौरव की लहर तेजी से व्याप्त हो गई । आत्महीनता का स्थान आत्मगौरव ने ले लिया। तप और वैराग्य की घनीभूत शक्ति, गुरूदेव, माँ जगदम्बा, माता तथा माँ सरस्वती के आषीर्वाद से स्वामी विवेकानन्द ने देश के जनमानस को आत्मविभोर कर, आत्मगौरव का अहसास करा दिया। शिकागो के इस धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द ने अपने कथन,- ‘‘जब भारत का इतिहास लिखा जाएगा, तब यह सिद्ध होगा कि धर्म के विषय में और ललित कलाओं में भारत सारे विश्व का प्रथम गुरू है ’’को अक्षरशः सिद्ध कर दिखाया था ।iv>

No comments:

Post a Comment