Saturday, September 29, 2012

भगत सिंह के विचारो की आजाद भारत में प्रासंगिकता --- अरविन्द विद्रोही


वर्तमान समय में भगत सिंह के विचार कितने प्रासंगिक हैं, यह एक बड़ा प्रश्न है।सरदार भगत सिंह क्रांतिकारियों के बौद्धिक नेता थे,वे क्रांति के उच्च आदर्शों की स्थापना के लिए संघर्षरत् थे। क्रांति क्या है ?,यह स्पष्ट करते हुए उन्होने कहा,‘‘नौजवानों को क्रान्ति का यह संदेश देश के कोने कोने तक पहुँचाना है, फैक्टरी-कारखानों के क्षेत्रों में,गन्दी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।‘‘क्या क्रान्ति सफल हुई? क्या आम जनता को स्वतन्त्रता मिली? गोरे शासकों से सत्ता काले- भूरे शासकों को हस्तांतरित हो गई। आम जन पर अत्याचार बढ़ता जा रहा है। लाल फीताशाही अपना परचम लहरा रही है। अन्नदाता,फटे कपड़ों में जिन्दगी ग़ुजार रहा है।किसानों की उपजाउ भूमि का अधिग्रहण बदस्तूर जारी है। जीवन भर दूसरों का घर बनाने वाला श्रमिक वर्ग बेघर है। अपनी आवाज उठाने पर जनता को लाठी-गोली खानी पड़ रही है।जनता की मेहनत की कमाई राजनेताओं की सनक व आपसी प्रतिद्वन्दिता का भेंट चढ़ रही है।सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार का आरोप जिम्मेदार लोग एक दूसरे पर लगा रहें हैं।दण्ड़ देने के बजाए वोटबैंक बनाने के लिए दूसरे के वोटबैंक में सेंध लगा रहें हैं।युग दृष्टा थे सरदार भगत सिंह।इन स्थितियों का पूर्वानुमान उन्होने फरवरी 1931 में ही लगा लिया था।आपने क्रान्ति का अर्थ समझाते हुए लिखा,‘‘जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना।वास्तव में यही क्रान्ति है,बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं।किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जतायी हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती,लोग छल को पहचानते हैं।भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ भी नहीं चाहते।भारतीय श्रमिकों को-भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकर,जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं,जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित हैं-आगे आना है।हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते।बुराइयां ,एक स्वार्थी समूह की तरह,एक दूसरे का स्थान लेने के लिए तैयार हैं।‘‘आइये मंथन करें,आज भारत में शासक वर्ग क्या कर रहा है? क्या श्रमिकों-गरीबों-मज़लूमों-छात्रों-युवकों-आम जनों को उनका हक हासिल है? बड़े-बड़े नेता गाँव-गाँव जाकर अपनत्व का ढोंग नहीं कर रहे ? क्या दलितो-मजलूमों की आवाज बुलन्द करने वाले महापुरूषों के प्रचार-प्रसार को पूंजीवादी राजनैतिक दल झूठ का सहारा लेकर बाधित नहीं कर रहे? युग दृष्टा भगत सिंह ने इन परिस्थितियों को उसी समय दृष्टि में रखते हुए लिखा था कि-‘‘साम्राज्यवादियों को गद्दी से उतारने के लिए भारत का एकमात्र हथियार श्रमिक क्रान्ति है।कोई और चीज इस उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकती।सभी विचारों वाले राष्टवादी एक उद्देश्य पर सहमत हैं कि साम्राज्यवादियों से आज़ादी हासिल हो।पर उन्हे यह समझने की भी जरूरत है कि उनके आन्दोलन की चालक शक्ति विद्रोही जनता है और उसकी जुझारू कार्यवाइयों से ही सफलता हासिल होगी।चूॅंकि इसका सरल समाधान नहीं हो सकता,इसलिए स्वयं को छलकर वे उस ओर लपकते हैं,जिसे वे आराजी इलाज,लेकिन झटपट और प्रभावशाली मानते हैं-अर्थात चन्द सैकड़े दृढ़ आदर्शवादी राष्टवादियों के सशस्त्र विद्रोह के जरिए विदेशी शासन को पलट कर राज्य का समाजवादी रास्ते पर पुर्नगठन।उन्हें समय की वास्तविकता में झांककर देखना चाहिए।हथियार बड़ी संख्या में प्राप्त नहीं हैं और जुझारू जनता से अलग होकर अशिक्षित गुट की बग़ावत की सफलता का इस युग में कोई अवसर नहीं है।राष्टवादियों की सफलता के लिए उनकी पूरी कौम को हरकत में आना चाहिए और बगावत के लिए खड़ा होना चाहिए।और क़ौम कांग्रेस के लाउडस्पीकर नहीं है,वरन् वे मजदूर-किसान हैं,जो भारत की 95प्रतिशत जनसंख्या है। राष्ट स्वयं को राष्टवाद के विश्वास पर ही हरकत में लायेगा,यानि साम्राज्यवाद और पूंजीपति की गुलामी से मुक्ति के विश्वास दिलाने से।हमें याद रखना चाहिए कि श्रमिक क्रान्ति के अतिरिक्त न किसी और क्रान्ति की इच्छा करनी चाहिए और न ही वह सफल ही हो सकती है।‘‘ युग दृष्टा सरदार भगत सिंह ने जून 1928 के किरती पत्र में एक लेख अछूत का सवाल में दलितों को अपनी ताकत बनाने और बाद में बचाये रखने का आह्वान किया।भगत सिंह ने लिखा था-हम मानते हैं कि उनके अपने जन प्रतिनिधि हों।वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगें ।हम तो साफ कहते हैं कि उठो,अछूत कहलाने वाले असली जनसेवकों तथा भाइयों उठो।अपना इतिहास देखो।गुरू गोविन्द सिंह की फ़ौज की असली शक्ति तुम्हीं थे।शिवाजी तुम्हारे भरोसे पर ही सब कुछ कर सके,जिस कारण उनका नाम आज भी जिन्द़ा है।तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं।तुम जो नित्य प्रति सेवा करके जनता के सुखों में बढ़ोत्तरी करके और जिन्दगी सम्भव बनाकर यह बड़ा भारी अहसान कर रहे हो,उसे हम लोग नहीं समझते!…….उठो, अपनी शक्ति को पहचानो।संगठनबद्ध हो जाओ।असल में स्वयं कोशिशें किये बिना कुछ भी न मिल सकेगा।स्वतन्त्रता के लिए स्वाधीनता चाहने वालों को स्वयं यत्न करना चाहिए।इन्सान की धीरे-धीरे कुछ ऐसी आदतें हो गयी हैं कि वह अपने लिए तो अधिक अधिकार चाहता है,लेकिन जो उनके मातहत है उन्हें वह अपनी जूती के नीचे ही दबाये रखना चाहता है।कहावत है,लातों के भूत बातों से नहीं मानते।अर्थात संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो।तब देखना,कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इन्कार करने की जुर्रत न कर सकेगा।तुम दूसरों की खुराक मत बनो। दूसरों के मुंह की ओर न ताको।लेकिन ध्यान रहे,नौकरशाही के झांसे में मत फॅंसना। यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती,बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चाहती है।यही पूंजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी और ग़रीबी का असली कारण है।इसलिए तुम उसके साथ कभी न मिलना।उसकी चालों से बचना।तब सब कुछ ठीक हो जायेगा। तुम असली सर्वहारा हो…..संगठनबद्ध हो जाओ।तुम्हारी कुछ हानि न होगी।बस गुलामी की जंजीरें कट जायेंगी।उठो,और वर्तमान व्यवस्था के विरूद्ध बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा।सामाजिक आन्दोलन से क्रान्ति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति के लिए कमर कस लो।तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो,वास्तविक शक्ति हो,सोये हुए शेरों,उठो,और बग़ावत खड़ी कर दो। इस तरह दलित शक्ति का भान रखते थे भगतसिंह।उनको विश्वास था कि इनके शक्तिशाली बनने पर पूंजीपतियों-साम्राज्यवादियों द्वारा इनको छल,प्रपंच,लोभ से बरगला कर इनके अपने नेतृत्व से अलग किया जायेगा।इसीलिए उनके साथ किसी भी हालात में न मिलने की चेतावनी दी थी-भगतसिंह ने।आज पूॅंजीपति ताकतें दलितों की एकता को खण्डित करने के लिए नाना प्रकार की नाटक नौटंकी कर रहीं हैं।नौजवानों से अपील करते हुए भगत सिंह ने लिखा,‘‘सभी मानते हैं कि हिन्दुस्तान को इस समय एैसे देशसेवकों की जरूरत है,जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आज़ादी के लिए न्यौछावर कर दें।लेकिन क्या बुड्ढ़ों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे?क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटो में फॅंसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे?यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फॅंसे हों।…….क्या हिन्दुस्तान के नौजवान अलग अलग रहकर अपना और अपने देश का अस्तित्व बचा पायेंगे ? अमृतसर में 11,12,13 अप्रैल 1928 को नौजवान भारत सभा का सम्मेलन हुआ।इसका घोषणा पत्र भगत सिंह और भगवतीचरण वोहरा ने तैयार किया था।घोषणा पत्र में लिखा गया,-‘‘हमनें केवल नौजवानों से ही अपील की है क्योंकि नौजवान बहादुर होते हैं,उदार एवं भावुक होते हैं,क्योंकि नौजवान भीषण अमानवीय यन्त्रणाओं को मुस्कराते हुए बर्दाश्त कर लेते हैं,और बगैर किसी प्रकार की हिचकिचाहट के मौत का सामना करते हैं,क्योंकि मानव प्रगति का सम्पूर्ण इतिहास आदमियों तथा औरतों के खून से लिखा है,क्योंकि सुधार हमेशा नौजवानों की शक्ति,साहस, आत्मबलिदान और भावात्मक विश्वास के बल पर ही प्राप्त हुए हैं- ऐसे नौजवान जो भय से परिचित नहीं हैं और जो सोचने के बजाए दिल से महसूस कहीं अधिक करते हैं।‘‘ धार्मिक उत्तेजना पर कटाक्ष करते हुए लिखा गया-‘‘पीपल की एक डाल टूटते ही हिन्दुओं की धार्मिक भावनायें चोटिल हो उठती हैं।बुतों को तोड़ने वाले मुसलमानों के ताजिये नामक काग़ज के बुत का कोना फटते ही अल्लाह का प्रकोप जाग उठता है और फिर वह नापाक हिन्दुओं के खून से कम किसी वस्तु से संतुष्ट नहीं होता।‘‘घोषणा पत्र में साफ-साफ कहा गया कि-‘‘हमारे हजारों मेधावी नौजवानों को अपना बहुमूल्य जीवन गावों में बिताना पड़ेगा और लोगों को समझाना पड़ेगा कि भारतीय क्रान्ति वास्तव में क्या होगी।…….सफलता मात्र एक संयोग है,जबकि बलिदान एक नियम है।………उनके जीवन अनवरत् असफलताओं के जीवन हो सकते हैं-गुरू गोविन्द सिंह को आजीवन जिन नारकीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था,हो सकता है उससे भी अधिक नारकीय परिस्थितियों का सामना करना पडे।‘‘आगे लिखा,-‘‘नौजवान दोस्तों,इतनी बड़ी लड़ाई में अपने आप को अकेला पाकर हताश मत होना।अपनी शक्ति को पहचानो।अपने उपर भरोसा करो।सफलता आपकी है।धनहीन,निस्सहाय एवं साधनहीन अवस्था में भाग्य आज़माने के लिए अपने पुत्र को बाहर भेजते समय जेम्स गैरीबाल्डी की महान जननी ने उससे जो शब्द कहे थे,याद रखो।उसने कहा,‘‘दस में से नौ बार एक नौजवान के साथ जो सबसे अच्छी घटना हो सकती है,वह यह है कि उसे जहाज की छत पर से समुद्र में फेंक दिया जाये ताकि वह तैरकर या डूबकर स्वयं अपना रास्ता तय करें।‘‘प्रणाम है उस माँ को जिसने ये शब्द कहे और प्रणाम है उन लोगों को जो इन शब्दों पर अमल करेंगें। घोषणा-पत्र के अन्त में लिखा गया-इतालवी पुनरूत्थान के प्रसिध्द विद्वान मैजिनी ने एक बार कहा था,‘‘सभी महान राष्टीय आन्दोलनों का शुभारम्भ जनता के अविख्यात या अनजाने,गैर प्रभावशाली व्यक्तियों से होता है,जिनके पास समय और बाधाओं की परवाह न करने वाला विश्वास तथा इच्छा शक्ति के अलावा और कुछ नहीं होता।‘‘जीवन की नौका को लंगर उठाने दो।उसे सागर की लहरों पर तैरने दो और फिर- लंगर ठहरे हुए छिछले पानी में पड़ता है विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर पर विश्वास करो जहाँ ज्वार हर समय ताज़ा रहता है और शक्तिशाली धारायें स्वतन्त्र होती हैं वहां अनायास,ऐ नौजवान कोलम्बस सत्य का नया तुम्हारा नया विश्व हो सकता है। मत हिचको,अवतार के सिध्दान्त को लेकर अपना दिमाग परेशान मत करो और उसे तुम्हें हतोत्साहित मत करने दो।हर व्यक्ति महान हो सकता है,बशर्ते कि वह प्रयास करे। अपने शहीदों को मत भूलो।करतार सिंह एक नौजवान था,फिर भी बीस वर्ष से कम की आयु में ही देश की सेवा के लिए आगे बढ़कर मुस्कराते हुए वन्देमात्रम के नारे के साथ वह फाँसी के तख्ते पर चढ़ गया।भाई बालमुकुन्द और अवधबिहारी दोनों ने ही जब ध्येय के लिए जीवन दिया तो वे नौजवान थे।वे तुममें से ही थे। तुम्हें भी वैसा ही ईमानदार,देशभक्त और वैसा ही दिल से आज़ादी को प्यार करने वाला बनने का प्रयास करना चाहिए,जैसे कि वे लोग थे।सब्र और होशो-हवाश मत खोओ,साहस और आशा मत छोड़ो।स्थिरता और दृढ़ता को स्वभाव के रूप में अपनाओ।नौजवानों को चाहिए कि वे स्वतन्त्रता पूर्वक,गम्भीरता से,शान्ति और सब्र के साथ सोचें।उन्हें चाहिए कि वे भारतीय स्वतन्त्रता के आदर्श को अपने जीवन के एकमात्र लक्ष्य के रूप में अपनायें। उन्हें अपने पैरों पर खड़े होना चाहिए।उन्हें अपने आपको बाहरी प्रभावों से दूर रख कर संगठित करना चाहिए।उन्हें चाहिए कि मक्कार तथा बेईमान लोगों के हाथों में न खेलें, जिनके साथ उनकी कोई समानता नहीं है और जो हर नाजुक मौक़े पर आदर्श का परित्याग कर देते हैं।उन्हें चाहिए कि संजीदगी और ईमानदारी के साथ ‘‘सेवा,त्याग,बलिदान‘‘ को अनुकरणीय वाक्य के रूप में अपना मार्गदर्शक बनायें।याद रखिये कि-राष्टनिर्माण के लिए हजारों अज्ञात स्त्री,पुरूषों के बलिदान की आवश्यकता होती है जो अपने आराम व हितों के मुकाबले तथा अपने एवं अपने प्रियजनों के प्राणों के मुक़ाबले देश की अधिक चिन्ता करते हैं। यह अपील,यह घोषणा पत्र आज भी प्रासंगिक है।सर्वहारा के हक पर पूंजीपति फन काढे बैठे हैं।राजनीति वंशानुगत जागीर हो गयी है।संघर्ष के रास्ते व्यवस्था परिवर्तन की अगुवाई कर रहे नेताओं को पूंजीवादी,वंशानुगत राजनीति के युवराज अपने भ्रमजाल के माध्यम से खत्म करना चाहते हैं।आज शोषितों,मजदूरों,युवाओं व सर्वहारा वर्ग को इनका फरेब समझना होगा।इन पूंजीवादी,साम्राजियों के भ्रमजाल में पड़ने के बजाए आर्थिक-मानसिक आजादी को हासिल करने के लिए राजनैतिक ताकत को एकजुट रखना पडेगा।आज फिर पूंजीपति गरीब रियाया को आडम्बरयुक्त आचरण से भरमाने हेतु गाँव-गली-कूचे तथा मलिन बस्तियों में फूट डालने,उनकी राजनैतिक ताकत को तोडने के लिए घूम रहे हैं।आज फिर युवकों को चाहिए कि जनजागरण पर निकल पड़ें।जनता को बतायें कि आज़ादी के बाद से अब तक उन्हें आर्थिक तरक्की नहीं मिली तो इसका जिम्मेदार कौन है?आज पुनः आवश्यकता आन पड़ी है कि बरसों के मेहनत व त्याग से अर्जित की गई सर्वहारा वर्ग की राजनैतिक शक्ति को पूंजीपतियों के ‘‘फूट डालो-राज करो‘‘नीति से बचाने की।

1 comment:

  1. सार्थक और सामयिक पोस्ट, आभार.

    ReplyDelete