Wednesday, October 27, 2010

भारतीय ग्राम्य व्यवस्था अरविन्द विद्रोही

राष्ट का गौरवशाली,समृद्धशाली इतिहास राष्ट के निवासियों को उर्जा प्रदान करता है।अनेकानेक कारणों से जनता राष्ट गौरव की गाथाओं,समृद्धशाली इतिहास,बलिदान गाथाओं और विभिन्न कालों में रहे सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की जानकारी से दूर होती जाती है।साहित्य ही वह माध्यम होता है जो जनता को समाज के सम्पूर्ण इतिहास-रूप से जोडता है।साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है।समाज की सोच क्या है,यह साहित्य से ही परिलक्षित होता है।

‘‘वसुधैव कुटुम्बकम‘‘ की भावना को आत्मसात करे हमारी मातृभूमि भारत वर्ष की संरचना ग्राम्य आधारित है।कृषि आधारित हमारा देश मुगलों-अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के पश्चात् लोकतान्त्रिक गणराज्य के रूप में एक पंथनिरपेक्ष राष्ट के रूप में स्थापित है।सरकारों का कत्र्तव्य जनहित की कल्याणकारी योजनाओं का निर्धारण और क्रियान्वयन करना है और हमारा कत्र्तव्य निश्चय ही इन जन कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में सहयोग करना और निगरानी रखना।आजाद भारत की सबसे बडी समस्या भ्रष्टाचार है।कोई भी क्षेत्र इस भ्रष्टाचार रूपी दानव के पंजे से बचा नहीं है।योजनाओं के लिए आवंटित धनराशि का नेता-अपराधी-नौकरशाह मिलकर एक समूह के रूप में बंदरबांट करते हैं और आम जन कोसने के अलावा कुछ नहीं कर पाता है।फिर भी राष्ट को समृद्ध बनाने के लिए राष्ट के उन्नति के बारे में मनन व प्रयास करने वाले मतवालों का संघर्ष जारी रहता है और जारी है।

भारतीय ग्राम्य समाज का स्वरूप तमाम राजनैतिक परिवर्तनों,युद्धों,विदेशी आक्रमण को झेलते हुए भी कमोबेश वही बना रहा है।भारत की आत्मनिर्भर ग्राम्य समाज व्यवस्था के बारे में 1835 में भारत के गवर्नर रहे सर चाल्र्स मेटकाफ के अनुसारःग्राम समाज छोटे-छोटे गणतंत्र हैं।अपनी जरूरत की सारी चीजें इन्हें अपने यहां प्राप्त हैं और विदेशी सम्बन्धों से ये मुक्त हैं।जहां कुछ भी स्थायी नहीं,वहां ये जैसे अकेले अमर हैं।राजकुल लुढ़कते रहे,का्रंतियां होती रहीं,हिंदू,पठान,मुगल,मराठा,सिख,अंग्रेज क्रमशःमालिक बनते रहे,लेकिन ग्राम समाज यथापूर्व बने रहे।

माक्र्स ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ पूंजी में भारत की ग्राम्य व्यवस्था के बारे में लिखाःहिन्दुस्तान के वे छोटे-छोटे तथा अत्यन्त प्राचीन ग्राम समुदाय अर्थात समाज,जिनमें से कुछ आज तक कायम हैं,जमीन पर सामूहिक स्वामित्व,खेती तथा दस्तकारी के मिलाप और एक एैसे श्रम विभाजन पर आधारित हैं जो कभी नहीं बदलता,और जो जब कभी एक नया ग्राम्य समुदाय आरम्भ किया जाता है तो पहले से बनी बनाई और तैयार योजना के रूप में काम आता है।सौ से लेकर कई हजार एकड़ तक के रकबे में फैले हुए इन ग्राम-समुदायों में से प्रत्येक एक गठी हुई इकाई होती है जो अपनी जरूरत की सभी चीजें पैदा कर लेती हैं।पैदावार का मुख्य भाग सीधे तौर पर समुदाय के ही उपयोग में आता है और वह माल का रूप् धारण नहीं करता।इसलिए यहां पर उत्पादन उस श्रम विभाजन से स्वतंत्र होता है जो माल के विनिमय ने मोटे तौर पर पूरे हिन्दुस्तानी समाज में चालू कर दिया है।केवल अतिरिक्त उत्पादन ही माल बनता है और यहां तक की उसका भी एक हिस्सा उस वक्त तक माल नहीं बनता जब तक वह राज्य के हाथों में नहीं पहुंच जाता।अत्यन्त प्राचीन काल से ही यह रीति चली आ रही है कि इस उत्पादन का एक निश्चित भाग सदा जिंस की शक्ल में दिए जाने वाले लगान के तौर पर राज्य के पास पहुॅंच जाता है।हिन्दुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में इन समुदायों का विधान अर्थात गठन अलग-अलग ढ़ंग का है।जिनका सबसे सरल विधान है,उन समुदायों में जमीन को सब मिलाकर जोतते हैं,और पैदावार सदस्यों के बीच बांट ली जाती है।इसके साथ-साथ हर कुटुम्ब में सहायक धंधों के रूप में कताई और बुनाई होती है।इस प्रकार,उन आम लोगों के साथ-साथ,जो सदा एक ही प्रकार के काम में लगे रहते हैं,एक मुखिया होता है जो जज,पुलिस और वसूलदार का काम एक साथ करता है।एक पटवारी होता है जो खेतीबारी का हिसाब रखता है और उसके बारे में हर बात अपने कागजों में दर्ज करता है।एक और कर्मचारी होता है जो अपराधियों पर मुकद्मा चलाता है,अजनबी मुसाफिरों की हिफाजत करता है और उनको अगले गाॅंव तक सकुशल पहुॅंचा जाता है।एक पहरेदार होता है जो पड़ोस के समुदायों से सरहद की रक्षा करता है,आबपाशी का हकीम होता है जो सिंचाई के लिए पंचायती तालाबों से पानी बांटता है,ब्राह्मण होता है जो बच्चों को बालू पर लिखना-पढ़ना सिखाता है,पंचाग वाला ब्राह्मण या ज्योतिषी होता है जो बुआई,कटाई और खेत के अन्य काम के लिए मुहूर्त विचारता है।एक लोहार और एक बढ़ई होते हैं जो खेती के तमाम औजार बनाते हैं और उनकी मरम्मत करते हैं,कुम्हार होता है जो सारे गांव के लिए बर्तन-भांडे तैयार करता है,नाई होता है,धोबी होता है जो कपड़े धोता है,सुनार होता है और कहीं-कहीं पर कवि भी होता है जो कुछ समुदायों में सुनार का,कुछ में पाठशाला के पंड़ित का स्थान ले लेता है।इन दर्जन व्यक्तियों की जीविका पूरे समुदाय अर्थात समाज के सहारे चलती है। अगर आबादी बढ़ जाती है तो खाली पड़ी जमीन पर पुराने समुदाय के ढ़ाचे के मुताबिक एक नये समुदाय की नींव डाल दी जाती है।पूरे ढ़ाचें से एक सुनियोजित श्रम विभाजन का प्रमाण मिलता है।इन आत्मनिर्भर ग्राम्य-समुदायों या समाजों में,जो लगातार एक ही रूप के समुदायों में पुनःप्रकट होते रहते हैं और जब अकस्मात बरबाद हो जाते हैं तो उसी स्थान और नाम से फिर खड़े हो जाते हैं,उत्पादन का संगठन बहुत ही सरल ढंग का होता है और उसकी यह सरलता ही एशियाई समाजों की अपरिवर्तनशीलता की कुंजी है,उस अपरिवर्तनशीलता की जिसके बिल्कुल विपरीत एशियाई राज्य सदा बिगड़ते और बनते रहते हैं और राजवंशों में होने वाले परिवर्तन तो मानों कभी रूकते ही नहीं।राजनीति के आकाश में जो तूफानी बादल उठते हैं,वे समाज के आर्थिक तत्वों के ढ़ाचें को नहीं छू पाते।

भारतीय ग्राम्य व्यवस्था में उद्योग धंधे और पूॅंजी का बेहतर विकास होता था।भारतीय उद्योग के महत्व को वी0एफ0कैलबर्टन ने दि अवेकनिंग आॅफ अमरीका 1939 में लिखाःतीव्र बुद्धि,सूक्ष्म योग्यता और सृजनात्मक प्रतिभा के फलस्वरूप भारतीय उद्योग पाश्चात्य देशों से अपेक्षाकृत आगे बढ़े हुए थे।शुरू की उन सदियों में,जब पाश्चात्य नौपरिवहन सर्वथा अविकसित था,भारत ने भारी बोझ ढ़ोने वाले समुद्री जहाज बनाये थे……………..वस्त्र निर्माण हिन्दुस्तान का प्रमुख उद्योग था,और यहां के सूती और रेशमी कपड़ों की सारी दुनिया में तारीफ और मांग थी।तेरहवीं,चैदहवीं और पन्द्रहवीं सदियों में धातुकार्य,प्रस्तर शिल्प,शक्कर,नील और कागज के भी उद्योग विकसित थे।कुछ भागों में काष्ठ-कर्म,मृत्तिका-पात्र और चर्मकार्य आदि उद्योग भी पल्लिवित हुए।………..देश के कई हिस्सों में रंगाई प्रमुख उद्योग था,कुछ भागों में जरी का काम और कसीदाकारी का काम पूर्णता के चरम बिंदु तक विकसित था।खानों से रांगा,पारा और कुछ हद तक लोहा निकालने और शीशे के निर्माण कार्य भी महत्वपूर्ण और विकसित उद्योग थे।बहुत सारे यात्रियों ने भारत में निर्मित लोहे और यहां के रासायनिक उद्योग की प्रशंसा की है।चीन की तरह भारत में भी चीनी मिट्टी के बर्तनों का उद्योग काफी विकसित था।गजदंत से कंगन,अंगूठी,पांसा,मनका,पलंग और अन्य अनेक चीजें बनती थी और सारी दुनिया में,खासकर यूरोप में इनकी बड़ी मांग थी।बेशकीमती पत्थरों पर किए गये काम में भी बड़ी कुशलता का परिचय मिलता है।

अंग्रेजों और अन्य यूरोपियों के भारत आने से पहले यहां उद्योगों का विकास काफी हद तक हो चुका था।ये उद्योग प्रधानतःघरेलू थे और कृषि सम्बन्धी थे।भारत में दस्तकारी का उच्च कोटि का काम सदियों से था।कलात्मकता अनूठी और आकर्षक थी।ख्याति सर्वत्र फैली होने के कारण भारतीय उद्योगों का माल दुनिया के बाजारों में छाया था।कैलबर्टन के अनुसारः-प्राचीन काल में जब रोम के निजी और सार्वजनिक भवनों में भारतीय कपड़ों,दीवार दरी,ताम चीनी,मोजेक,हीरे-जवाहरात आदि का उपयोग होता था,उस वक्त से औद्योगिक क्रंाति के प्रारम्भ तक,आकर्षक और उद्दीपक वस्तुओं के लिए सारा संसार भारत का मोहताज रहा।

कृष्णराव शिवराव शेलवांकर ने दि प्राब्लम आॅफ इण्ड़िया-1940 में लिखाः-घरेलू उद्योग और कृषि के प्रत्यक्ष संयुक्तीकरण,जिसका वह ग्राम्य समाज प्रतिनिधित्व करता था,और तज्जनित अर्थव्यवस्था की बदौलत,ग्राम्य अपना संतुलन बनाए रखने तथा विघटनकारी प्रभावों का शक्तिशाली मुकाबला करने में समर्थ था।……..ग्राम्य का,जिसमें साधरणतःअर्धदासता या बैरनों अर्थात सामंत सरदारों के शोषण के लिए स्थान न था,आंतरिक गठन बहुत ही दृढ़ था और इसलिए वह सफल हुआ,जबकि मैनोर अर्थात यूरोप के जमींदारों की जमींदारी अपना अलग गठन बनाये रखने में असफल रहा।जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि वह उन्न्ीसवीं सदी में मानव-निर्मित माल के आक्रमण के सामने डटा रहा और अंत में राजनीतिक तथा आर्थिक परिवर्तनों के सम्मिलित दबाव से चरमरा कर बैठ गया तो हमें उसकी अब तक प्रदर्शित दृढ़ता पर आश्चर्य न होगा।

भारतीय समाज के स्वाभाविक विकास की दशा में यहां का पूॅंजीपति वर्ग सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से सशक्त होकर राज्य पर अधिकार कर लेता तथा सामंती राज्यों के स्थान् पर पूॅंजीपति राज्य की स्थापना करता परन्तु फ्रंासीसी,ब्रिटिश तथा अन्य यूरोपीय सशस्त्र शक्तिशाली पूॅंजीपतियों का समूह भारत आ गया।इनके और भारतीय पूॅंजीपतियों के मध्य आर्थिक और राजनैतिक प्रभुत्व के संघर्ष में ब्रिटिश पूॅंजीपति विजयी हुए।ब्रिटिश पूॅंजीवाद वह दानव है जो भारतीय समाज की व्यवस्था की छाती पर सवार हो गया और उसे तहस-नहस कर दिया।इतिहास साक्षी है कि गुलामी का अभिशाप झेल रहे भारत के पठान या मुगल विजेता जो सामंत व्यवस्था के प्रतिनिधि थे,ने भारत की ग्राम्य समाज व्यवस्था को ही अपना आधार बना लिया था।कालांतर में ब्रिटिश विजेता तो पूॅंजीवादी थे।ब्रिटिश विजेताओं के मुक्त व्यापार व्यवस्था,आधुनिकीकरण,अविष्कार और भाप के इंजन ने संयुक्त रूप से भारत के ग्राम्य व्यवस्था के मुख्य आधार चरखे और करघे को तोड़ डाला।

सन्1813 में ब्रिटिश औद्योगिक पूॅंजी ने भारत की अर्थव्यवस्था को लूटना प्रारम्भ कर दिया था।ब्रिटिश कल-कारखानों में बने माल की खपत मण्डी के रूप में भारत का इस्तेमाल प्रारम्भ हो चुका था।कार्ल माक्र्स के अनुसार,ः-1818 और 1836 के बीच ग्रेट ब्रिटेन से हिन्दुस्तान भेजे जाने वाले सूत का परिमाण 5,200गुना बढ़ गया।1824 में अंगरेजी मलमल का हिन्दुसतान को निर्यात ज्यादा से ज्यादा दस लाख गज ीहा होगा पर 1837में यह बढ़कर 6करोड़40लाख गज से भी ज्यादा हो गया।साथ ही ढ़ाका की आबादी 1,50,000से कम होकर 20,000 रह गई।ब्रिटिश शासन का सबसे बुरा परिणाम यही नहीं था कि हिन्दुस्तान के ऐसे नगर,जो कपड़े के उद्योग के लिए प्रसिद्ध थे,तबाह हो गए,ब्रिटिश भाप और विज्ञान ने हिन्दुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक कृषि उत्पादन तथा हस्त उद्योग के समागम को जड़ से उखाड़ फेंका।

ध्यान रहे कि ब्रिटिश काल के पूर्व भारत में ग्राम्य व्यवस्था में भूमि व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी।अंगरेजों ने भारत में ब्रिटेन के ढ़ंग की सामंती व्यवस्था लादी।उत्तर-भारत में जमींदारों का एक नया वर्ग बनाकर उन्हें जमीन का मालिक बना दिया।दक्षिण भारत में रैयतवारी प्रथा को लागू कर किसान को जमीन का मालिक बना दिया।इस प्रकार जमीन को व्यक्तिगत सम्पत्ति बना दिया गया जिसकी बाजार में खरीद फरोख्त हो सकती थी।विभिन्न कानूनों को लागू करके ब्रिटिश शासकों ने ग्राम्य समाज व्यवस्था जो कि स्वायत्तशासित समाज था,के स्वरूप को छिन्न-भिन्न करके केन्द्रीयभूत राज्य की प्रशासकीय इकाई बना डाला।महात्मा गाॅंधी भारत के इसी भारतीय ग्राम्य समाज व्यवस्था की पुनःस्थापना को चाहते थे।स्वदेशी-स्वावलम्बन-कुटीर उद्योग आदि का महत्व वे बखूबी समझते थे।ब्रिटिश शासकों के पूॅंजीवादी व्यवस्था का प्रतिकार व स्वदेशी की बुलन्द आवाज लार्ड कर्जन द्वारा 16अक्तूबर,1905 को बंग-भंग योजना लागू करने के पश्चात् हुई।ढ़ाका,चटगाॅंव और राजशाही डिवीजनों को बंगाल से अलग करके असम के साथ मिला कर पूर्व बंगाल और असम नामक नये प्रंात बनाये गये,राजधानी ढ़ाका बनी।बाकी हिस्सा बंगाल और राजधानी कोलकाता।बंगाल सारे देश में राजनैतिक आंदोलन का केन्द्र था।कर्जन जैसे साम्राज्यवादी शासक ने फूट डालो और राज्य करो के तहत मुसलिम प्रधान पूर्व बंगाल को अलग कर उसे हिन्दू प्रधान शेष बंगाल के खिलाफ खड़ा करने की नाकाम कोशिश की।पूरे बंगाल में विदेशी वस्तुओं का बायकाट घोषित किया गया।बायकाट आंदोलन में चार सूत्रीय कार्यक्रमों को अपनाया गया-ब्रिटेन के कपड़े,नमक,चीनी आदि का बहिष्कार,अंग्रेजी में बोलना बन्द,सरकार के मातहत अवैतनिक पदों और कौंसिलों से इस्तीफा,विदेशी वस्तुओं को खरीदने वालों का सामाजिक बहिष्कार।सामाजिक बहिष्कार के सम्बन्ध में तय किया गया कि-उनके साथ कोई भी खान-पान न करेगा,उनके साथ कोई भी वैवाहिक संबंध न करेगा,उनसे कोई भी खरीद फरोख्त न करेगा,नाई उनका कोई काम न करेंगें,लड़कों और लड़कियों को हिदायत दी जानी चाहिए कि वे उनके बच्चों के साथ न खेलें।तत्कालीन खुफिया रिपोर्ट से पता चलता है कि कैसे जंग-ए-आजादी में भारत की ग्रामीण आम जनता ने शिरकत की,-सिर्फ जमींदारों और वकीलों ने ही नहीं,विद्यार्थियों और नौजवानों ने,किसानों और दुकानदारों ने,यहां तक कि डाक्टरों और देशी सेना ने,ब्राह्म्णों और पुरोहितों,नाइयों और घोबियों ने बायकाट और स्वदेशी आन्दोलन के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।खबर है कि बैरकपुर और फोर्ट विलियम,कलकत्ता के सिपाहियों की तीन रेजीमेण्टों ने जब विदेशी कपड़ों की बनी वर्दी पहनने से इंकार कर दिया तो उन्हें निरस्त्र कर दिया गया और पश्चिमोत्तर भारत की सुदूर छावनियों में भेज दिया गया।

दरअसल ब्रितानिया हुकूमत में भारत की आम जनता का उत्पीड़न अपने चरम पर था,आम जन भयाक्रांत था।शासन जन भावनाओं को पुलिसिया बूटों तले कुचल डालता था,आजिज आकर भारत की जनता ने आजादी की जंग लड़ी और ब्रितानिया हुकूमत से मुक्ति मिली।परन्तु विचारणीय प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।हमारा ग्राम्य समाज आज विकास के किस पायदान पर खड़ा है?भूमि अधिग्रहण के मामलों ने किसानों से उनका हक छीन लिया है।1894 में ब्रितानिया हुकूमत द्वारा बनाये गये भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 ने किसानों और कृषि भूमि दोनों को संकट में डाल दिया है।आम जन की दशा अत्यन्त शोचनीय है।आजाद भारत में भी सरकारों का निरंकुश,गैरजिम्मेदाराना रवैया ब्रितानिया हुकूमत द्वारा दिये गये जख्मों की ही तरह दर्द देते हैं।फर्क सिर्फ इतना ही है कि ये सरकारी तंत्र हमारी ही धरा के चन्द लोगों के हाथों में कैद है।ब्रितानिया पुलिस द्वारा निरपराधों की हत्या व बलात्कार,उत्पीड़न,शोषण का बदला तो चाफेकर बंधुओं,खुदीराम बोस,उधम सिंह,हरिकिशन,भगतसिह,राजगुरू,सुखदेव,आजाद आदि क्रंातिवीरों ने जुल्मी अंग्रेज हुक्मरानों को मौत के घाट उतार कर ले लिया था परन्तु आजाद भारत में इसी धरा के हुक्मरानों और उनके नुमाइंदों,पुलिस बल द्वारा किये जाने वाले पापाचार,उत्पीड़न,शोषण और भ्रष्टाचार की सजा दिलाने के लिए उठने वाली लोकतांत्रिक आवाजों को अनसुना करने का दुःसाहस करने वालों को कौन सजा देगा?विधायिका,कार्यपालिका,न्यायपालिका,मीडिया और हमस ब अपनी जिम्मेदारियों से आखिर कब तक मुॅंह मोडे रहेंगें।न्याय में देरी पीड़ित के दर्द को बढ़ावा देती है।पुलिस हिरासत में नागरिकों की मौतों ने ब्रितानिया हुकूमत के जुल्म को मात दे दी है।आज वही स्थिति है जिसके बारे में 23मार्च,1976 को उ0प्र0 विधानसभा में चैधरी चरण सिंह ने चेतावनी देते हुए कहा था,-‘‘आप समझते हैं कि स्टीम इकठ्ठी होती रहे और बाॅयलर में कहीं कुछ नहीं होगा?होगा,अवश्य होगा,एक विस्फोट होगा,एण्ड दि कण्टरी विल बी डूम्ड इन फलेम्स….और देश लपटों में घिर जायेगा।

कहावत भी है-जबरा मारै,रौवे न देय।इतिहास साक्षी है एैसी घटनाओं की प्रतिक्रिया अवश्यंभावी है।न्याय का गला नहीं घोटना चाहिए,जन आवाज को सुनना चाहिए उसको कुचलना नहीं चाहिए।यह दबती नहीं है वरन् ब्रितानिया हुकूमत के अल्फाजों में देशद्रोही,उपद्रवी,अराजक तत्व,अपराधी कहलाती है परन्तु इतिहास के सुनहरे पन्नों में ये क्रांतिकारी,देशभक्त,मानवता के पुजारी,वीर,शहीद,बलिदानी,माँ के सच्चे सपूत,जनसेवक के रूप में युगों-युगों तक पूजे जाते हैं।

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