Wednesday, November 17, 2010

राजगुरू पर विशेष

राजगुरू पर विशेष

आजादी की लड़ाई के हर मौके पर अपनी सहभागिता करने के लिए बेचैन रहने वाले,इस लड़ाई में जान देने व लेने का कोई अवसर हाथ से जाने न देने के लिए तत्पर,अवसर न मिलने पर नाराज हो जाने वाले मस्त स्वभाव के योद्धा का नाम शिवराम हरि राजगुरू है। शिवराम हरि राजगुरू का जन्म 24अगस्त,1908 को हरिनारायण राजगुरू के पुत्र रूप में खेड़ा गांव पूना में हुआ था।इनके बाबा चाकण कस्बा जो कि छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदवी स्वराज्य की राजधानी थी,के प्रसिद्ध विद्वान कचेश्वर पण्ड़ित थे।शिवाजी महाराज के प्रपौत्र श्री शाहू जी महाराज ने कचेश्वर पण्ड़ित को अपना गुरू बनाकर राजगुरू की उपाधि दी थी।
छह वर्ष की अल्पायु में पिता का देहान्त हो गया।बड़े भाई के पास शहर में रहने लगे।पढ़ने में बहुत मन नहीं लगता था।पन्द्रह वर्ष की उम्र 1924 में घर से निकल कर पैदल छह दिन चले और नासिक पहुंचे।नासिक से किसी तरह यात्रा करते झांसी,कानपुर,लखनउ और अंत में काशी पहुंचे।काशी में अहिल्या घाट पर रहने लगे।काशी क्रान्तिकारियों का मुख्य गढ़ था।यहां इनकी मुलाकात गोरखपुर के साप्ताहिक पत्र स्वदेश के सह संपादक मुनीश्वर अवस्थी से हुई।राजगुरू इनके सम्पर्क से ही क्रांति दल के विधिवत सदस्य बनें।
भगवानदास माहौर,सदाशिव राव मलकापुरकर और शिव वर्मा ने अपनी क्रान्ति जीवन के संस्मरण लिखे थे,जो सन् 1959 में प्रकाशित हुए थे।उसमें इन क्रान्तिकारियों ने राजगुरू के बारे में लिखा-जब जब क्रान्तिकारी वीर,देशभक्त,शहीदों और उनके शौके-शहादत की बात चलती है,तब-तब जो एक मूर्ति मेरे मन की आंखों के सबसे आगे और सबसे अधिक स्पष्ट रूप से आकर खड़ी हो जाती है,वह होती है राजगुरू कीं। सशस्त्र क्रान्ति के प्रयासों में जिन अगणित भारतीय युवकों ने अपना जीवन बलिदान किया है,उनमें से कुछ थोड़ों ही के निकट सम्पर्क में आने का महान सौभाग्य मुझे मिलता है।मृत्युंजयी अमर शहीद वीर जतीनदास,भगवती चरण,चन्द्रशेखर आजाद,भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरू,महावीर सिंह और शालिगराम शुक्ल उस दल के शहीद हुए हैं,जिसका सम्बन्ध लाहौर षड़यन्त्र केस से था और जिसका नाम था-हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी।श्री जतीनदास बंगाल के दल के व्यक्ति थे और वे हम लोगों को बम बनाना सिखने के लिए यू0पी0 में आये थे।भगत सिंह आदि के साथ वे लाहौर जेल में अनशन करके शहीद हुए,भगवती भाई रावी के तट पर एक बम की परीक्षा करते हुए बम हाथ में ही फट जाने की दुर्घटना से मारे गये।सेनानी चन्द्रशेखर आजाद ने इलाहाबाद के अल्फ्रेड़ पार्क में पुलिस से युद्ध करते हुए वीरगति पायी।भगतसिंह,राजगुरू,सुखदेव तीनों एक साथ लाहौर की जेल में फांसी चढ़े।महावीर सिंह ने अण्डमान्स अर्थात काला पानी के जेल में अनशन करते हुए शहादत पायी।शालिगराम शुक्ल कानपुर में पुलिस से युद्ध करते हुए शहीद हुए।ये सभी शहीद देश के स्वातन्त्रय युद्ध में अपने आपको बलिदान कर देना चाहते थे।शहादत से सभी को प्यार था और सभी को यह विश्वास था कि कभी न कभी,किसी न किसी रूप में वह उन्हे मिलेगी।ये शहादत के धीरोदात्त प्रेमी कहे जा सकते हैं।शहादत के लिए इतनी उतावली,बेताबी ये सब जाहिर न करते थे जितनी राजगुरू और सम्भवतःइसी कारण शहीदों के सम्बन्ध में शौके शहादत या इश्कें शहादत के एतबार से-अपने परिचय के शहीदों में-सबसे पहले और सबसे आगे शहादत के बेताब आशिक राजगुरू की मूर्ति ही मेरी नज़र के सामने खड़ी हो जाती है।
वे आगे लिखते हैं-हम कह चुके हैं कि राजगुरू शहादत के बेताब आशिक थे और इस इश्क में आपके रकीब थे भगतसिेह।इस अधीरता,व्यग्रता और बेताबी की तो हम कल्पना ही कर सकते हैं,जिसमें फांसी के दिन वे इसके लिए ही चिन्तित होंगे कि कहीं ऐसा न हो कि मेरे से पहले भगतसिंह को फांसी लग जाये।हम भली-भांति कल्पना कर सकते हैं कि पहले फांसी का फन्दा उनके गले में डाला जाये,भगतसिंह के नहीं,इसके लिए वे जेलर या जल्लाद से उलझ पड़े होंगे।हम कल्पना कर सकते हैं कि गर्व से सीना फुला कर,आतमसंतुष्टि की लम्बी सांस लेकर वे फांसी के तख्ते पर खडें हुए होंगे और किस प्रकार राजगुरू ने उनके गहरे वात्सल्य से पुलकित होकर अपने अन्तिम क्षणों में अपने इस छोटे भाई को देखा होगा।राजगुरू के शौके शहादत से अधिक भावुक ह्दय अन्य किस का था,और उसे देखने का सौभाग्य भी उनसे अधिक और किसे मिला था?
ऐसा लगता है कि फाॅंसी का तख्ता का तख्ता गिर जाने के बाद,दिल की धड़कन बन्द होने से पूर्व भी,यदि राजगुरू फाॅंसी की काली टोपी के बाहर आंख खोल कर एक बार देख सकते तो उस दीवाने ने यही देखने की कोशिश की होती कि कहीं भगतसिंह मुझ से पहले तो नहीं……………..और उस समय भगतसिंह के होठों पर भी राजगुरू का यह पागलपन देखकर अपने जीवन की अन्तिम और सबसे मधुर मुस्कान खिल जाती और यदि वे कह सकते तो कहते-शौके शहादत तो हम सबको ही रहा है भाई,पर तू तो सराया शौके-शहादत है।हार गये तुझसे।
राजगुरू की याद कहती है-अधिकार पदों के लिए एक दूसरे पर कीचड़ उछालना ही राजनीति में नहीं होता,कुर्बानी की ऐसी पवित्र स्पर्धा भी होती है।हम मरे नहीं हैं,हम मिटे नहीं हैं,हमारा स्वर्ग तुम्हारे ह्दय में ही है।मनुष्य की मनुष्यता में विश्वास न खोना।

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