Wednesday, November 17, 2010

भगतसिंह के सखा-समर्पण की प्रतिमूर्ति सुखदेव

भगतसिंह के सखा-समर्पण की प्रतिमूर्ति सुखदेव

स्वभावगत जिद्दी,सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति,मासूम व्यक्तित्व,कुशल संगठनकर्ता,अपनत्व के धनी-एैसे थे सुखदेव।सुखदेव का जन्म 15मई,1907 को रामलाल थापर के पुत्र रूप में नौधरा,लुधियाना में हुआ था ।बचपन में ही पिता का साया सिर से उठ गया।लालन पालन माता रल्लीदेई और ताउ चिंताराम थापर जो कि देशभक्त थे तथा जेल की सजा भुगत चुके थे,ने किया ।

क्रांतिकारी दल के नायक चंद्रशेखर आजाद के बाद दल के समस्त साथियों की आवश्यकताओं की तरफ अगर कोई ध्यान देता था तो वह दल में ‘विलेजर‘ नाम प्राप्त सुखदेव ही थे ।सुखदेव जिद्दी थे ।सुखदेव ने कभी अपने साथियों से कोई स्पर्धा नहीं रखी,कोई शिकायत नहीं की और न ही कोई स्पष्टीकरण दिया ।एक तरफ राजगुरू भगतसिंह को शौके शहादत में अपना रकीब मानते थे तो सुखदेव के मन में भगतसिंह के प्रति सबसे ज्यादा प्रेम और अपनापन था ।जब भी सुखदेव और भगतसिंह की मुलाकात होती,तो क्रांति दल के साथियों को भूलकर ये दोनों रात-रात भर बाते करते रहते थे ।भगतसिंह और सुखदेव समाजवाद के पक्के समर्थक थे ।भगतसिंह की स्मरण शक्ति तीव्र व विलक्षण थी ।किसी भी पुस्तक को जल्दी खत्म करने की जैसे उन्हें सनक सवार रहती थी ।

ध्यान दीजिए,यह सुखदेव ही हैं जिनके मित्र के और आदर्शों के प्रति हठ ने क्रांतिकारी आदर्शों के प्रचार के लिए,न्यायालय का बेहतर इस्तेमाल करने के लिए,अपने भगतसिंह की नाराजगी झेलकर,उसे भलाबुरा कहकर असेम्बली बम काण्ड का दायित्व केन्द्रीय समिति से सौंपवाया ।दुर्गा भाभी गवाह थीं कि इस निर्णय को करवाने के पश्चात् सुखदेव की आंखें रोने के कारण सूजी हुईं थी ।सुखदेव ने केन्द्रीय समिति से पहले कहा था कि असेम्बली में बम फोड़ने का काम भगतसिंह को करना चाहिए ।इसका कारण बम फोड़ने का उद्देश्य,दल के आदर्श,महत्व व उद्देश्यों को जनता के सामने लाना था और इस काम के लिए भगतसिेह ही सबसे सक्षम व योग्य थे ।जब भगतसिंह केन्द्रीय समिति के सदस्यों को इस विषय में राजी न कर सके,तब सुखदेव ने भगतसिंह को ललकारा-‘‘जब तुम्हे मालूम है कि दूसरा कोई भी व्यक्ति दल के उद्देश्यों की जवाबदारी पूर्ण करने में तुमसे समर्थ नहीं है,तब तुमने केन्द्रीय समिति के सदस्यों को यह निर्णय करने क्यों दिया कि तुम्हारी जगह कोई और असेम्बली में बम डालने जायेगा ।‘‘ सुखदेव ने भगतसिंह को कायर,डरपोक,अहंकारी जाने क्या-कया कह डाला ।उन्होंने कहा-जिस प्रकार लाहौर हाईकोर्ट ने भाई परमानन्द के विरूद्ध निर्णय देते हुए कहा था कि वे दल के सूत्रभार व मस्तिष्क होते हुए भी डरपोक हैं,इसलिए संकट के समय दूसरों को आगे करते हैं ।इसी तरह की बातें तुम्हारे लिए भी कही जाएगी ।इस विषय में भगतसिंह ने सुखदेव को समझाने की असफल कोशिश की और सुखदेव के व्यंग्य बाणों का शिकार होते रहे ।भगतसिंह का मन मस्तिष्क जब सुखदेव के प्रहारों से घायल हो गया तब उन्होंने सुखदेव से कहा-तुम मेरा अपमान कर रहे हो ।चुप रहो मैं अपने मित्र के प्रति अपना कत्र्तव्य निभा रहा हूॅं-गरजे सुखदेव ।

आखिरकार केन्द्रीय समिति की दोबारा बैठक हुई ।बैठक में सुखदेव चुप रहे ।भगतसिंह ने तर्कपूर्ण आग्रह किया, फैसला हुआ-विजय कुमार सिन्हा के स्थान पर भगतसिंह के साथ बटुकेश्वरदत्त असेम्बली में बम फोड़ेंगें ।

बाद में सुखदेव सहित अन्य पर लाहौर षड़यंत्र का मुकद्मा चला ।सुखदेव का ध्यान बचाव में न था ।वे न्यायालय को ही क्रान्ति का प्रचार माध्यम मानते थे ।अंत में 7अतूबर,1930 को मुकदमें का निर्णय सुनाया गया ।सुखदेव इस षड़यंत्र के प्रमुख तथा भगतसिेह उनके दाहिने हाथ घोषित किये गये ।सुखदेव को क्रांतिकारियों के उद्देश्यों की सफलता पर कितना अडिग विश्वास था,इसका प्रमाण फाॅंसी से कुछ ही पहले महात्मा गाॅंधी के नाम लिखा उनका पत्र है जिसमें उन्होंने लिखा-‘‘क्रांतिकारियों का ध्येय इस देश में सोशलिस्ट प्रजातन्त्र प्रणाली स्थापित करना है।इस ध्येय में संशोधन की जरा भी गुंजाइश नहीं है।‘‘ वे गाॅंधी जी से प्रश्न पूछते हैं कि आपकी भी धारणा होगी कि क्रांतिकारी तर्कहीन होते हैं और उन्हें केवल विनाशकारी कार्यों में आनन्द आता है।सुखदेव आगे लिखते हैं-‘‘हम आपको बतला देना चाहते हैं कि यथार्थ में बात इसके बिल्कुल विपरीत है।वे प्रत्येक कदम आगे बढ़ाने के पहले अपने चारों तरफ की परिस्थितियों पर विचार कर लेते हैं।उन्हें अपनी जिम्मेदारी का ज्ञान हर समय बना रहता है।वे अपने क्रांतिकारी विधान में रचनात्मक अंश की उपयोगिता को मुख्य स्थान देते हैं यद्यपि मौजूदा परिस्थितियों में उन्हें केवल विनाशात्मक अंश की ओर ध्यान देना पड़ता है।वह दिन दूर नही जबकि क्रांतिकारियों के नेतृत्व में और उनके झण्डे के नीचे जन समुदाय उनके समाजवादी प्रजातंत्र के उच्च ध्येय की ओर बढ़ता हुआ दिखायी पड़ेगा ।महात्मा गाॅंधी को लिखे इस पत्र में सुखदेव ने लिखा,-‘‘फाॅंसी देने का हुक्म हुआ है और जिन्होंने संयोगवश देश में बहुत ख्याति प्राप्त कर ली है,क्रांतिकारी दल के सब कुछ नही हैं।वास्तव में इनकी सजाओं को बदल देने देश का उतना कल्याण न होगा,जितना इन्हें फाॅंसी पर चढ़ा देने से होगा ।‘‘

सुखदेव फूल की तरह कोमल परन्तु पाषाण से कठोर अपनी कोमल भावनाओं को,प्यार और ममता को निजी चीज समझ कर अपने अन्दर समेटे रहने वाले सुखदेव के व्यक्तित्व की सबसे खतरनाक चीज थी-उनकी मुस्कुराहट,जिसके पीछे शरारत के साथ साथ हर गलत चीज पर नफरत भरा व्यंग्य साफ साफ उभर आता था ।समाज की कुरीतियों,रूढ़ियों,राजनैतिक मतभेदों के प्रति गहरी उपेक्षा और विद्रोह का प्रतीक थी सुखदेव की मुस्कुराहट ।यहां तक कि बड़ी-बड़ी असफलताओं के आघात को भी वे अपनी मुस्कुराहट की उपेक्षा में डुबो देते थे ।यही र्निविकार भाव समेटे क्रांति का यह पुरोधा आजादी के सपने सजोये अपने हम सफरों भगतसिेह तथा राजगुरू के साथ फाॅंसी के तख्ते पर चढ़कर 23मार्च,1931 को क्रांति मार्ग आलोकित कर गया ।

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