बारदौली का किसान संघर्ष
30जून,1927 को ब्रितानिया हुकूमत की गुलामी में जकडी़ भारतमाता के कर्मयोगी सपूतों-अन्नदाता किसानों पर बम्बई प्रदेश की सरकार ने बारदौली जनपद,सूरत ताल्लुक का लगान 20-25 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था।यह वही समय था जब ब्रिटेन की तीनों प्रमुख पार्टियों:कंजरवेटिव,लिबरल और लेबर के प्रतिनिधि साइमन कमीशन के नाम से भारत में तत्कालीन शासन व्यवस्था के काम करने के तरीके का पता लगाने,शिक्षा की दशा,प्रातिनिधिक संस्थाओं के विकास की स्थिति आदि का पता करने घूम रही थी।इस कमीशन का पूरे भारत में जोरदार तरीके से विरोध किया गया था।
लगान में वृद्धि के विरोध में बारदौली के किसानों ने अपना संगठित स्वरूप खड़ा किया।बढ़े हुए लगान का प्रतिरोध करने के लिए आन्दोलन स्वयं किसानों ने खडा किया।किसानों को जागृत किया,एकत्र किया,बड़ी विशाल किसान सभा का तत्काल आयोजन हुआ।किसानों का एक प्रतिनिधि-मण्डल लगान में अनुचित वृद्धि को वापस लेने की मांग को लेकर सरकार के राजस्व अधिकारी से मिला,ज्ञापन दिया।होना क्या था?किसानों को दर्द देने वाले हाथ दवा देने से रहे।किसान अपनी ताकत बढ़ाने में जुट गये।16सितम्बर,1927 को दूसरी किसान सभा का आयोजन किया गया।बम्बई की लेजिस्लेटिव कौसिंल बढ़े हुए लगान को वापस लेने व वसूली रोकने का प्रस्ताव भेज चुकी थी परन्तु सरकार सहमत न हुई।इस दूसरी सभा में तमाम कंाग्रेसी नेता और कौंसिल के सदस्य शामिल हुए थे।निर्णय ले लिया गया-बढ़ा हुआ लगान नहीं देंगे।
सरकार खामोश रही,किसान सुलगते रहे।4फरवरी,1928 को किसानों ने फिर सभा करके अपना निर्णय लगान नही देंगे को दोहराया तथा वल्लभ भाई पटेल को अपना नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया।निमंत्रण मिलते ही पटेल महात्मा गाँधी से मिले।महात्मा गाँधी से इजाजत लेकर,उनसे गहन विचार-विमर्श करने के पश्चात् पटेल ने बारदौली के किसानों का आन्दोलन अपने हाथों में लिया। गाँधी का ब्रह्मास्त्र सत्याग्रह लेकर उनके विश्वस्त पटेल ने किसानों की फौज के सेनापति का दायित्व उठाया।
12फरवरी,1928 को किसानों का सम्मेलन हुआ।फैसला हुआ-जब तक सरकार लगान की दरें संशोधित करने के लिए वचनबद्ध नहीं होगी,तब तक किसान सरकार को लगान नहीं देंगे।बारदौली के गाँव में एक-एक पुराने कांग्रेसी को जिम्मेदारी देकर किसानों को आंदोलन की रूपरेखा बताने में लगा दिया पटेल ने।लगानबंदी के साथ-साथ असहयोग भी प्रारम्भ हो गया।सरकारी महकमें के लोगों से बोलना,बैलगाड़ी देना,सामान बेचना सब बन्द कर दिया किसानों ने।क्या यह सब शान्तिपूर्वक हो रहा था?सरकार दमन पर उतर आई।मवेशियों की कुड़की प्रारम्भ हुई,किसानों ने शान्ति बनाये रखी।फिर सामूहिक कुड़की का दौर चला।पुलिस और उनके पठान किसानों के घरों में घुसते,मारते-पीटते और घर की चीजों और जानवरों को लेते जाते।इन कार्यों के विरोध में केन्द्रीय विधानसभा के अध्यक्ष विठ्ठल भाई पटेल ने वाइसराय को पत्र लिखकर अपने पद से इस्तीफा देने की धमकी दी।
किसानों पर हो रहे इस दमन चक्र की आग पूरे देश में फैल रही थी।हर तरफ से लगान कम करने की मांग उठने लगी।बारदौली के किसानों के समर्थन में देश में चारों तरफ सभाओं का आयोजन हुआ।बम्बई और संयुक्त प्रान्त में भी किसानों ने लगानबंदी का अनुसरण करने का ऐलान किया।आन्दोलन को व्यापकता देने के लिए गाँधी जी ने पूरे देश में एक साथ बारदौली दिवस मनाने की अपील की।तारीख तय हुई-12जून,1928।बारदौली दिवस पर आयोजित एक सभा में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष डा० अंसारी ने कहाः-बारदौली के लोग जमाने से चली आई दासता से हमारे गुलाम मुल्क की मुक्ति के पलटन के हरावल हैं।
किसानों की जनशक्ति को देख,अन्नदाता के विराट संगठित रूप को देख,भारतीयों की भीष्म प्रतिज्ञा को देखकर बंबई के गवर्नर ने पटेल को धमकी भी दी।पर गाॅंधी के सैनिक और किसानों सेनापति पटेल ने लौह पुरूष की दृढ़ता दिखाई।वह टस से मस न हुआ।फलतःबारदौली के किसानों की विजय हुई,पुराना लगान लागू हो गया।गुलामी की जंजीर की एक कड़ी लौह पुरूष पटेल के नेतृत्व में अन्नदाता किसान के विराट रूप ने तोड़ दी।सरकार ने वायदा किया कि सभी गिरफतार लोगों को छोड़ दिया जायेगा तथा कुड़की की सारी सम्पत्ति वापस होगी।इस वायदे के आधार पर जुलाई 1928 को आंदोलन समाप्त कर दिया गया।11-12अगस्त,1928 को सारे गुजरात में बारदौली विजय का उत्सव मनाया गया। यहाँ पर ही किसान शक्ति ने पटेल को सरदार की उपाधि से विभूषित किया था।हर तरफ महात्मा गाँधी की जय और सरदार पटेल की जय गुंजायमान हो रही थी।लेकिन अफसोस बाद में बारदौली के किसानों से किया गया वायदा निभाया न गया।किसानों को जेल से रिहा न किया गया।जब्त सम्पत्तियां भी वापस न की।वाइसराय ने अपने वायदों की कोई कीमत न रखी।गाँधी जी ने वायसराय को इस वायदाखिलाफी के विषय में कई पत्र लिखे,परन्तु कोई असर न हुआ।बहरहाल,एक सत्य यह भी है कि यही बारदौली का सत्याग्रह है जिसने कांग्रेस , गाँधी जी और उनके अनुयायियों की जनप्रियता सारे देश में बहुत बढ़ाई परन्तु किसानों के साथ हुई वायदाखिलाफी पर ये लोग कुछ न कर सकें।बारदौली सत्याग्रह ने गाँधी जी के लिए राजनीति में पुनःप्रवेश और कांग्रेस की बागडोर फिर से अपने हाथ में लेने का मार्ग प्रशस्त किया।
आज आजादी के 62 वर्षों बाद भी किसानों का शोषण-उत्पीड़न बन्द नहीं हुआ है।विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए मनमाने तरीके से किसानों की उर्वरा भूमि का अधिग्रहण जन विरोधी कृत्य है। अपने अथक परिश्रम से जिस भूमि पर अपना खून पसीना बहा कर,तपती दोपहरी में,भयानक सर्द मौसम में और भीषण बरसात में सपरिवार दिलो-जान लगा कर,अपना,अपने परिवार एवं समाज के उदर पोषण हेतु अन्न उपजाता है,वही भूमि,विकास के नाम पर अधिग्रहीत कर के,कंक्रीट के जंगलों में बदल दी जा रही है।सम्पूर्ण देश में भूमि अधिग्रहण के मामलों ने किसानों से उनका हक छीन लिया है।विभिन्न सरकारी आवासीय योजनाओं के लिए कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण तो बदस्तूर जारी ही है,प्रापर्टी डीलरों ने भी किसानों की जमीनों की खरीद-फरोख्त कर के मोटा पैसा कमाने के साथ ही साथ भारत की कृषि आधारित व्यवस्था को बरबाद करने में और किसानों को बर्बादी,शराब खोरी तथा बेरोजगारी की तरफ ढकेलने जैसा कार्य किया है। भूमाफियाओं के काले कारनामें अखबारों की सुर्खियां बनते रहते हैं।विभिन्न अदालतों में भी भूमि सम्बन्धित मामले लम्बित पड़े हैं।धार्मिक स्थल,कब्रिस्तान की जमीनें भी जमीन के इन दलालों ने नहीं छोड़ी हैं।रही-सही कसर किसानों की बेशकीमती उर्वरा भूमि पर शासन-प्रशासन की दृष्टि ने पूरी कर दी है।ग्राम समाज,बंजर,नजूल आदि जमीनों के रहते हुए कृषि योग्य उर्वरा भूमि का अधिग्रहण,ब्रितानिया जुल्मों सितम् की याद दिलाता है।किसानों का कोई पुरसा हाल नहीं है,आम जन मॅंहगाई के बोझ तले कराह रहा है।भारत के वर्तमान कृषि मंत्री सत्ता मद में चूर हो कर,बार-बार कालाबाजारियों को शह देने वाले गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य देकर हिन्दुस्तान की रियाया का मजाक उड़ा रहें हैं।किसानों के हितों,आम जनता के हितों के बजाए कृषि मंत्री मिल मालिकों व जमाखोरों को प्रोत्साहन देने का जन विरोधी कार्य करने में मशगूल हैं।आज किसान बेबस होकर,अपनी शक्ति से आन्दोलन की राह पर खड़ा है।भूमि अधिग्रहण,चकबन्दी,नहर कटान,बाढ़ की विभिषिका,नकली खाद,बीजों की कमी,कृषि लागत में वृद्धि,शैक्षिक स्थिति,स्वास्थ्य-परक समस्याओं से जूझ रहा किसान आज ठगा जा रहा है।दुर्भाग्य वश किसानों का नेतृत्व भी किसानों की शक्ति के बल पर,इनको संगठित करके,अपनी राजनैतिक हैसियत,आर्थिक मजबूती बनाने में लगा रहता है।अधिकारों की बहाली व प्राप्ति के संघर्ष के स्थान पर समझौतों की परिपाटी डाल रखी है,किसानों के इन रहनुमाओं ने।किसान वर्षों से अपनी समस्याओं से जूझ रहा है और राजनीति व नौकरशाही के गठजोड़ में किसानों का शोषण अनवरत् जारी है।
कृषि आधरित भारत की संरचना,महात्मा गाँधी के ग्राम्य स्वराज्य की अवधारणा,आज हमारे हुक्मरानों की अनियंत्रित और जनविरोधी विकास की भेंट चढ़ रहीं हैं।आज किसानों के द्वारा ‘‘सरदार’’ की उपाधि से विभूषित वल्लभ भाई पटेल को अपना आदर्श मानने वालों को किसानों के हित की लड़ाई में अपना सर्वस्व द।ाव पर लगा देना चाहिए। सरदार वल्लभ भाई पटेल को सच्ची श्रद्धाजंली होगी-किसानों की कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण का बन्द होना।युग दृष्टा सरदार भगत सिंह ने कहा था,-‘‘वास्तविक क्रांतिकारी सेनायें तो गाँव और कारखानों में हैं।
आज भी अन्नदाता किसान बेहाल है,किसान हित का दावा करने वाले सभी लोगों को एकजुट होकर बुनियादी जरूरतों के लिए लड़ना चाहिए यही सच्ची श्रद्धाजंलि होगी सरदार वल्लभ भाई पटेल को।
धरोहरों कों सजोंने का,



उ0प्र0 में पंचायती चुनाव की रणभेरी बज चुकी है।चुनावी महाभारत में तमाम योद्धा अपना दम-खम दिखाने के लिए उतरने का ऐलान कर चुके हैं।पंचायती चुनाव में ग्राम पंचायत सदस्य,ग्राम प्रधान,क्षेत्र पंचायत सदस्य तथा जिला पंचायत सदस्य का चुनाव एक साथ करने का मौका मतदाताओं के सम्मुख आ गया है।आज मतदाता के सम्मुख पुनःअपना पंचायत प्रतिनिधि निर्वाचित करने का अवसर आन पड़ा है।दुर्भाग्य वश चुनावों में भारी तादात् में ऐसे लोग निर्वाचित होते हैं जिनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं होता है।राजनीति समाजसेवा का माध्यम न रहकर व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति एवं विकास के धन की लूट करने का जरिया बन चुकी है।आसन्न पंचायती चुनावों में सर्वाधिक दिलचस्प व खर्चीला चुनाव प्रधान पद पर हो रहा है।ग्राम्य विकास विभाग में विकास के लिए आवण्टित धनराशि को आहरित करने का अधिकार ग्राम प्रधान को प्राप्त है।इसी विकास के धन की लूट करने के मकसद से प्रधान पद के अधिकांश प्रत्याशी मतदाताओं को ठगने के फेर में धन को आज चुनाव प्रचार के दौरान लुटा रहें हैं।ढ़ाबे,रेस्टोरेण्ट,शराब की दुकाने,बीयर शाप,पान,चाय की दुकानों सभी जगह प्रधान पद के प्रत्याशी गण मतदाताओं को अपने पाले में करने के लिए अपने दामाद की भांति सेवा करने में लगे हैं।
हिन्दी की राष्टीय पत्रकारिता के जनक गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्तूबर,1890 को अपनी ननिहाल अतरसुइया-इलाहाबाद,उ0प्र0 में हुआ था।आपके पिता श्री जयनारायण ग्वालियर रियासत में शिक्षक थे।विद्यार्थी जी की प्रारम्भिक शिक्षा मुंगावली व विदिशा में हुई।मिडिल पास करने के पश्चात विद्यार्थी जी कानपुर काम करने के उद्देश्य से आ गये।उनके चाचा शिवव्रत नारायण ने पढ़ाई करने के लिए समझाया।चाचा के समझाने पर वे पुनः विदिशा लौटे और मैटिक की परीक्षा 1907 में व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में उत्तीर्ण की।आगे की पढ़ाई कायस्थ पाठशाला इलाहाबाद में की।विदिशा में आपने ‘‘हमारी आत्मोत्सर्गता‘‘ नामक किताब लिखी।विद्यार्थी जी की साहित्यिक प्रतिभा को प्रेरणा इलाहाबाद में पण्डित सुन्दरलाल जी से मिली।
ग्रामीण भारत ही असली भारत है। भारत की 80 प्रतिशत आबादी ग्रामीण अंचलों में निवास करती है तथा शेष 20 प्रतिशत आबादी भी अप्रत्यक्ष रूप से ग्राम्य जीवन से जुड़ी है। कृषि आधारित भारत के ग्राम्य विकास की महती जिम्मेदारी केन्द्रीय ग्रामीण मंत्रालय एवं प्रदेश स्तर पर ग्राम्य विकास विभाग की है। एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना निचले पायदान पर खड़े नागरिक के हितों की रक्षा व पूर्ति से होती है। ग्रामीण भारत के निवासियों के अधिकारों पर खुलेआम, निर्लज्जतापूर्वक डाली जा रही डकैतियों को और अधिक बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए तमाम महत्वाकांक्षी योजनायें भारत सरकार-प्रदेश सरकार संचालित कर रहीं है ।इन योजनाओं के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी ग्राम्य विकास विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों की होती है।पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद ग्राम्य विकास विभाग में बड़ी धनराशि,ग्राम्य जीवन स्तर को उच्च स्तर पर लाने की क्रान्तिकारी योजना के तहत् आवंटित होनी प्रारम्भ हुई।यह इस धरा का दुर्भाग्य है कि यहां के खेतों की मेंड़े ही खेत को चरने लगी हैं। आज दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में हमारा 5वां स्थान है और हमारे भ्रष्ट सरकारी कर्मियों-भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों को शर्म नहीं आ रही है।
राष्ट का गौरवशाली,समृद्धशाली इतिहास राष्ट के निवासियों को उर्जा प्रदान करता है।अनेकानेक कारणों से जनता राष्ट गौरव की गाथाओं,समृद्धशाली इतिहास,बलिदान गाथाओं और विभिन्न कालों में रहे सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की जानकारी से दूर होती जाती है।साहित्य ही वह माध्यम होता है जो जनता को समाज के सम्पूर्ण इतिहास-रूप से जोडता है।साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है।समाज की सोच क्या है,यह साहित्य से ही परिलक्षित होता है।


मेहनत मजदूरी करने वालों की स्थिति में सुधार अभी तक क्यों नहीं हो पाया, यह सवाल अभी भी सरकारों की चिन्ता में शामिल नहीं है। शारीरिक श्रम करने वालों चाहे वो छोटी जोत के किसान हों, दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर हों, विभिन्न कल-कारखानों में कार्य करने वाले मजदूर हों, विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी कार्यालयों में कार्य करने वाले पत्रवाहक, चैकीदार, खलासी, वाहन चालक आदि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हों, सारे का सारा श्रमिक वर्ग अपने परिवार के समुचित पालन पोषण में ही अपनी जिंदगी को व्यतीत कर देता है। भरपूर मेहनत के बावजूद अपने परिवार की जरूरतों को पूरा न कर पाने के कारण एक अजीब सी निराशा व घुटन में मेहनतकश तबका जी रहा है। वहीं दूसरी तरफ समाज में नेताओं, नौकरशाहों,अपराधियों, व्यापारियों, कालाबाजारियों आदि के पास अकूत सम्पत्ति एकत्र होना बदस्तूर जारी है। एक ही देश-समाज के नागरिकों के बीच पूंजी का आमदनी का घनघोर असंतुलन बड़ा ही कष्टकारी है।
समाजवादी चिंतक डा0 राम मनोहर लोहिया अगस्त 1963-64 में इलाहाबाद गये थे। धर्मवीर गोस्वामी, लक्ष्मीकान्त वर्मा, रजनीकान्त वर्मा तथा कुछ अन्य कार्यकर्ताओं के साथ डा0 लोहिया सोरांव के गांव में गाडी से गये। डा0 लोहिया ने दलित बस्ती का रास्ता पूछा और वहा पहुच गये। दलित बस्ती में पहुचते-पहुचते काफी भीड़ जमा हो गई। डा0 लोहिया ने हरिजनों के घर में जाकर औरतों से कहा कि हम तुम्हारी अनाज की हांड़ी देखना चाहते हैं। भौचक रह गई औरतों ने कुछ सोचने के बाद घर के भीतर अनाज की हांड़ी तक सभी को जाने दिया। पचासों झोपड़ियों की हाड़ियों में डा0 लोहिया ने हाथ डाल कर देखा। मात्र दो घरों की अनाज की हनडी में बमुश्किल आधा किलो आटा था। इन घरों के लोग कमाने निकले थे, कमा कर जब आयेंगें, तभी आटा आयेगा और परिवार के सदस्यों को खाना मिलेगा, यह वस्तुस्थिति थी। विचित्र प्रकार की पीड़ा से उद्विग्न हो चुके डा0 लोहिया के माथे पर शिकन आने के साथ-साथ चेहरा तनावग्रस्त हो गया। डा0 लोहिया चुप न रह सके, उन्होने कहा कि-दामों की लूट ने इनको रसातल में भेज दिया है। सामाजिक तौर पर जाति टूट भी जाये, आर्थिक स्तर पर ये जहा हैं वहा से भी नीचे जाति के घेरे में फंसे रहेंगें ।
विकास की अंधाधुंध दौड़ में मानव जाति अपने विनाश की आधारशिला पर एक के बाद एक पत्थर रखती जा रही है। पर्यावरणीय दृष्टिकोण से ग्राम्यांचलों की स्थिति अभी भी बेहतर है। कस्बे और शहर विकसित होने के साथ साथ जल, शुद्ध हवा और स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से जूझ रहें हैं। ग्राम्य अंचलों में जल के भूमिगत् श्रोतों में कमी एक बड़ी समस्या है। नदी-पोखरों का संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है। व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते जल के पारम्परिक श्रोतों को पाटने के चलन ने बड़ी विकट स्थिति पैदा कर दी है। ग्रामीण क्षेत्र आज भी शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार जैसी आवश्यक जन सुविधाओं से वंचित हैं। ग्राम्य विकास का धन भ्रष्टाचारियों के काकस के चलते व्यक्तिगत् तिजोरियों मे। भरा जा रहा है। गावों में आपसी रंजिश की बड़ी वजह पानी निकासी की समुचित व्यवस्था न होना, सम्पर्क मार्गो का व्यवस्थित न होना तथा भूमि सम्बन्धी मामलों में त्वरित निर्णय न होना है। भ्रष्टाचार का दानव विकास का धन किस प्रकार लीलता जा रहा है, यह सर्वविदित है। सरकारी योजनायें लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के कारण अपना जन कल्याणकारी स्वरूप पूर्ण नहीं कर पाती हैं। और लोकतंत्र में सरकारें बगैर जन सहयोग एवं जन दबाव के योजनायें बनाने के अलावा कर भी क्या सकती है।? सिर्फ शासन-प्रशासन को दोषी ठहराने से हमारे मुल्क को हम तरक्की के शीर्ष स्तर पर नहीं ले जा सकते।